राष्ट्रपति के अंगरक्षकों में सिर्फ जाट, जट सिख और राजपूत ही क्यों? केंद्र ने दिया यह जवाब...
केवल जाट जट सिख और राजपूतों को ही राष्ट्रपति के अंगरक्षक के तौर पर नियुक्ति देने से जुड़ी याचिका पर सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने हाई कोर्ट में अपना पक्ष रखा।
जेएनएन, चंडीगढ़। केवल जाट, जट सिख और राजपूतों को ही राष्ट्रपति के अंगरक्षक के तौर पर नियुक्ति देने से जुड़ी याचिका पर सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने हाई कोर्ट में अपना पक्ष रखा। केंद्र सरकार ने कहा कि राष्ट्रपति के अंगरक्षकों की अलग से भर्ती नहीं होती है। आर्मी से ही कार्य के अनुरूप टुकड़ियों को बांटा जाता है और उनको नियुक्ति दी जाती है। ऐसे में राष्ट्रपति के अंगरक्षकों की नियुक्ति प्रक्रिया में जातिवाद का आरोप पूरी तरह से गलत है।
मामले में याचिका दाखिल करते हुए छात्र सौरव यादव ने हाई कोर्ट को बताया कि हमारे संविधान में प्रावधान है कि प्रत्येक नागरिक को बराबरी का हक दिया जाएगा और जाति, रंग, क्षेत्र आदि के आधार पर किसी से भेदभाव नहीं होगा। इस सबके राष्ट्रपति की सुरक्षा के लिए गार्ड की नियुक्ति में ही जाति के आधार पर भेदभाव किया जा रहा है।
याची ने कहा कि आजादी के बाद से लेकर आज तक राष्ट्रपति की सुरक्षा के लिए केवल जाट, जट सिख और राजपूत जाति के लोगों को ही रखा जाता है। ऐसा करना सीधे तौर पर संविधान के प्रावधानों के खिलाफ है। इस दलील के साथ उन्होंने डायरेक्टर आर्मी रिक्रूटमेंट ऑफिस द्वारा हाल ही में की जा रही नियुक्ति की प्रक्रिया को रद करने की अपील की है। केंद्र सरकार ने कहा कि नियुक्ति करते हुए जाति नहीं, बल्कि क्लास देखी जाती है। कद और अन्य मानक पूरे करने वालों को इस दस्ते में स्थान मिल सकता है और जाति की कोई शर्त नहीं है।
अंग्रेजी शासनकाल में कुछ जाति विशेष को तरजीह देकर उनके कामों को तय कर दिया जाता था, ताकि वे उस वर्ग की अपने प्रति ईमानदारी को सुनिश्चित कर सकें। अंग्रेज चले गए, लेकिन उनके द्वारा अपनाई गई प्रथा आज भी राष्ट्रपति की सुरक्षा के लिए गार्ड नियुक्त करते समय अपनाई जा रही है। गार्ड नियुक्त होने के लिए केवल जाट, जट्ट सिख और राजपूत जाति के व्यक्ति ही आवेदन कर सकते हैं। इसे संविधान में दिए गए समानता के अधिकार का उल्लंघन करार देते हुए पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट में जनहित याचिका दाखिल की गई थी।
आर्मी स्वीकार चुकी है नियुक्ति में इस प्राथमिकता को
इस मामले में राष्ट्रपति के सुरक्षा कर्मियों यानि प्रेसिडेंट्स बॉडीगार्डस (पीबीजी) में सिर्फ तीन जातियों के युवकों को शामिल किए जाने के तथ्य को भारतीय सेना ने सुप्रीम कोर्ट में 2013 में ही स्वीकार कर लिया था। उस समय कहा था कि राष्ट्रपति की सुरक्षा कर्मियों की कुछ विशेष विशेष आवश्यकताओं के चलते सिर्फ हिंदू राजपूत, हिंदी जाट या जट्ट सिख ही टुकड़ी में शामिल किए जाते हैं।
1240 साल से पुराना है पीबीजी का इतिहास
वर्तमान में पीबीजी के नाम से जानी जाने वाली भारतीय सेना की इस टुकड़ी का इतिहास 240 वर्ष से भी अधिक का है। 1773 में तत्कालीन गवर्नर वॉरन हेस्टिंग्स ने पहली बार बनारस में पीबीजी का गठन किया था। तब इस टुकड़ी को ‘द गार्ड ऑफ मुगल्स’ का नाम दिया गया था। 1784 में इसका नाम बदल कर ‘द गवर्नर जनरल्स बॉडीगार्ड’ कर दिया गया। 1858 में इसके नाम को फिर से बदला गया और इसे ‘द वाइसरायस बॉडीगार्ड’ कहा जाने लगा। साल 1944 में अंग्रेजों के शासन के अंतिम दौर में इसका नाम फिर से बदला गया और इसे ‘44वें डिवीजनल रिकोनिसेंस स्क्वाड्रन (जीजीबीजी)’ का नाम दे दिया गया।
आजादी के बाद इसे एक बार फिर ‘ द गवर्नर जनरल्स बॉडीगार्ड’ का नाम दे दिया गया। 26 जनवरी 1950 को भारतीय गणराज्य की स्थापना होने पर इसे वर्तमान नाम ‘प्रेजि़डेंट्स बॉडीगार्ड्स (पीबीजी)’ का टाइटल दिया गया।
150 सैनिकों की इकाई है पीबीजी
आर्मी ने कहा था कि पीबीजी लगभग 150 सैनिकों की एक छोटी इकाई है जो राष्ट्रपति सचिवालय के अंतर्गत काम करती है। अपने नाम के विपरीत यह इकाई राष्ट्रपति भवन में प्रोटोकॉल के अनुसार रस्मी शिष्टाचार गतिविधियों को पूरा करती है। इन रस्मी समारोहों में ड्यूटी के लिए बराबर कद काठी, छवि और पोशाक की समानता वाले जवानों की आवश्यकता होती है।