देवगढ़ का दसावतार मुख्य प्रदर्श के लिए चुना
कुरुक्षेत्र, जागरण संवाद केंद्र : श्रीकृष्ण संग्रहालय में दिसंबर माह के मुख्य प्रदर्श के रूप में उत्तर प्रदेश ललितपुर जिले के प्राचीन दसावतार मंदिर को प्रदर्शित किया गया है। देवगढ़ स्थित दसावतार मंदिर ब्रिटिश कप्तान चार्ल्स स्ट्राहन ने खोजा था।
ललितपुर जिले के मुख्यालय ललितपुर के निकट वेतवा नदी के किनारे स्थित देवगढ़ नाम का एक प्राचीन गाव गुप्तकाल में निर्मित प्राचीन दसावतार मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। ललितपुर जिले का यह क्षेत्र कभी ग्वालियर रियासत का भी भाग रहा है। इसका निर्माण गुप्तकाल में हुआ माना जाता है। इसे भारतवर्ष के प्रथम पंचायतन मंदिर कहलाने का भी गौरव प्राप्त है। यद्यपि इस मंदिर का दसावतार मंदिर नाम प्रसिद्ध पुरातत्वेता अलेक्जेंडर कनिंघम ने दिया। इस मंदिर में भगवान विष्णु के दस प्रमुख अवतारों का अंकन किया गया है। मंदिर के द्वार पर गंगा व यमुना के उत्कीर्णन देखने को मिलते हैं। मंदिर के गर्भगृह वाले भाग में गजेंद्र मोक्ष, नर-नारायण एवं शेषशायी विष्णु का अलंकृत उत्कीर्णन गुप्तकाल की मूर्तिकला के श्रेष्ठ उदाहरणों में से एक है। पुरातत्व की दृष्टि से यह मंदिर इसलिए प्रसिद्ध है कि यह उत्तरी भारत का प्रथम शिखर वाला मंदिर है। मंदिर एक ऊंचे मचान पर बना हुआ है जिसके निचले भाग में एक बरामदा है। यहा मूर्तियों के उत्कीर्णित फलक भूतल के सीढ़ीनुमा तलों पर बने हुए है। मंदिर के चारों ओर पत्थरों की एक दीवार बनाई गई है। यह दीवार तब मंदिर की सुरक्षा के लिए बनाई गई थी जब इसकी खोज हुई थी। मंदिर के गर्भ गृह में वर्तमान में कोई मूर्ति नही मिलती है। संभवत: यहा स्थित मूर्ति यहा से कहीं अन्यत्र ले जाई गई होगी। जहा तक मंदिर के गर्भ गृह की मूर्ति का प्रश्न है वह निश्चय ही भगवान विष्णु की मूर्ति रही होगी।
मंदिर के प्रवेशद्वार वासुदेव का प्रतिनिधित्व करता है। गजेंद्र मोक्ष वाली दिशा सर्कषण का, नर-नारायण वाली दिशा प्रद्युमन् तथा अनन्तशायी विष्णु वाली दिशा अनिरुद्ध का प्रतिनिधित्व करती है। मंदिर का मुख पश्चिम की ओर है। मंदिर का मचान 55.5 फुट ऊंचा है। मंदिर तक पहुंचने के लिए बाहर से चारों तरफ से सीढि़या बनी है। इस मंदिर को विष्णु धर्माेत्तर पुराण में उल्लिखित सर्वोत्तभद्र मंदिर की श्रेणी में रखा जाता है। भारत के प्रसिद्ध वास्तुविज्ञानी पर्सी ब्राउन के अनुसार अपने पूर्ण स्वरूप में निश्चय ही यह मंदिर अपने वास्तु अंगों के साथ अपनी प्रयोगात्मक दृष्टि एवं श्रेष्ठ कला भावना का एक उदाहरण रहा होगा। वास्तु के विभिन्न अंगों का सुंदर संयोजन व उनका प्रयोगात्मक पक्ष इस मंदिर को श्रेष्ठता व भव्यता प्रदान करता है। भारत के बहुत कम स्मारकों में कला व वास्तु का यह संयोजन देखने को मिलता है।
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