पाकिस्तान में रहे सूखे मेवों के व्यापारी, भारत आकर साइकिल पर लगाई फेरी
कृपया विभाजन की त्रासदी का लोगों भी लगाएं पाकिस्तान में रहे सूखे मेवों के व्यापारी पिता
कृपया विभाजन की त्रासदी का लोगों भी लगाएं पाकिस्तान में रहे सूखे मेवों के व्यापारी, पिता ने दिलवाई थी घोड़ी, वहीं छोड़नी पड़ी, भारत आकर साइकिल पर लगाई फेरी
--नेत्रहीन बहन की शादी में चार बारातियों को नहीं पिला पाए मीठी चाय, बेचना पड़ा मकान
जींद। हमारे परिवार ने विभाजन की त्रासदी को इस प्रकार झेला कि पाकिस्तान में बेशक शाही जिदगी जी रहे थे, लेकिन भारत आने के बाद काफी खस्ताहाल जीवन मिला। यहां तक कि बहन की शादी के लिए सरकार द्वारा दिया गया घर भी बेचना पड़ा। महज चार बारातियों को मीठी चाय भी नहीं दे पाए थे और नमक वाली चाय पिलानी पड़ी थी। विभाजन से कुछ पहले ही पिता ने मेरे लिए घोड़ी खरीदी थी, ताकि मैं उस पर सफर कर सकूं, लेकिन बंटवारे के कारण घोड़ी वहीं छोड़नी पड़ी। इसके बाद हालात ऐसे बने कि भारत में आकर साइकिल पर फल-सब्जियों की फेरी लगानी पड़ी।
नारंग बताते हैं, ' मेरी उम्र उस समय करीब सात साल थी। हमारा परिवार वर्तमान पाकिस्तान के मुलतान जिले के अल्लहाबाद गांव में सामान्य जीवन जी रहा था। अगस्त महीने के शुरूआत में ही बंटवारे की चर्चाएं चलने लगी। गांव में करीब 200 घर थे और इनमें से 15-20 घर हिदुओं के। 15 अगस्त को जब लोग आजादी की खुशियां मना रहे थे, तभी काफी लोग ढोल बजाते हुए आए और हिदू परिवार को चेतावनी दी गई कि या तो मुसलमान बन जाओ, या पाकिस्तान छोड़ दो। करीब दस दिन बाद गांव के बाहर एक पठान के बाग में सभी हिदू परिवारों को बुलाया गया, वहां पर जल्द फैसला लेने को कहा गया। इस पंचायत में हिदुओं ने भारत जाने का फैसला लेते हुए एक महीने का समय मांगा और करीब 15 दिन में ही अपना सारा सामान बांध लिया।
इसी बीच सेना के जवान वहां आए और कहा कि जिन लोगों को भारत जाना है, वे तैयार रहें। लोगों ने आनन फानन में रास्ते के लिए खाना तैयार किया। मेरे पिता, मैं, मां, दादी, एक छोटा भाई और एक ²ष्टहीन बहन को साथ लेकर लेकर सेना के ट्रक में सवार हो गए। यहां से हमें गांव से करीब दस मील दूर बूरा मंडी में रेलवे स्टेशन के पास धर्मशाला में छोड़ दिया।
धर्मशाला में हमले की सूचना मिलने पर सभी परिवार सामान लेकर रेलवे स्टेशन की ओर दौड़े, लेकिन मैं खेलते-खेलते वहीं रह गया। करीब डेढ़ घंटे बाद पंजाबो नामक महिला ने रेलवे स्टेशन पर परिजनों से मिलवाया। यहां से सुबह पांच बजे ट्रेन चली, लेकिन रास्ते में मुसलमानों ने ट्रेन को रोक लिया। ट्रेन के सभी खिड़की व दरवाजे बंद कर लोग अंदर दुबक गए। करीब चार घंटे तक ट्रेन खड़ी रही और इसके बाद फिरोजपुर पहुंची। यहां जंगलों में बनाए गए शिविर में रहे। यहां करीब तीन हजार लोग रह रहे थे और सेना द्वारा राशन दिया जाता था, लेकिन सुविधाएं नहीं थी। ऐसे में शिविर में हैजा फैला गया। करीब एक महीने बाद उन्हें यहां से कुरुक्षेत्र भेजा गया और यहां शिविर में ही दस महीने तक रहे। यहां से हिसार भेज दिया गया और हिसार में छह महीने रहे।
हिसार के बाद वे रतिया के पास गांव मड़ में रहने लगे। इसके बाद जींद आए। मेरे पिता अपने गांव में सूखे मेवों का कारोबार करते थे, लेकिन यहां आकर उन्हें साइकिल पर फेरी लगानी पड़ी।
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पांच महीने बाद मिले पिता
हम जब बूरा मंडी रेलवे स्टेशन से ट्रेन पकड़ने पहुंचे तो सबसे पहले दादी को ट्रेन में चढ़ाया। इसके मां को, ²ष्टहीन बड़ी बहन व छोटे भाई को। इससे पहले कि मेरे पिता और मैं ट्रेन में चढ़ पाते ट्रेन चल पड़ी। मैंने करीब तीन किलोमीटर तक ट्रेन के पीछे दौड़ लगाई। गार्ड ने ट्रेन रोक कर मुझे ट्रेन में चढ़ाया, लेकिन पिता पीछे रह गए। इसके बाद कुरुक्षेत्र स्थित शिविर में रखा गया। करीब पांच महीने के बाद शिविर में पिता मिले। इस दौरान जिदगी काफी कष्टदायी रही।
- 81वर्षीय, बनवारी लाल नारंग ने ऐसा दैनिक जागरण के मुख्य संवाददाता, धर्मवीर निडाना को बताया।
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