मिट्टी की किल्लत से बुझने लगी दीयों की रोशनी, संकट में कुंभकारों का कारोबार; ऑर्डर को करना पड़ रहा कैंसिल
झज्जर में मिट्टी की कमी के कारण कुम्हारों का कारोबार ठप हो गया है। बारिश से मिट्टी की आपूर्ति बाधित हुई और कीमतें बढ़ गईं। आर्डर रद्द हो रहे हैं जिससे उत्पादन प्रभावित हुआ है। प्रदूषण की शिकायतों ने भी मुश्किलें बढ़ा दी हैं। कुम्हार प्रशासन से मिट्टी की आपूर्ति सुनिश्चित करने की मांग कर रहे हैं ताकि दीयों की लौ जलती रहे और उनकी संस्कृति बनी रहे।

जागरण संवाददाता, झज्जर। हर साल दीपावली से पहले झज्जर के छावनी मोहल्ले में एक अलग ही रौनक देखने को मिलती थी। चाक पर घूमती मिट्टी, सांचे में ढलते दीये, भट्टियों से उठता धुआं और हर घर में चलते हाथ, यह दृश्य न केवल एक पारंपरिक कला की पहचान था, बल्कि सैकड़ों परिवारों की आजीविका का जरिया भी।
लेकिन इस बार न तो चाक घूम रहा है, न ही दीये बन रहे हैं। कारण - मिट्टी की भारी किल्लत और आसमान छूती कीमतें। देखा जाए तो छावनी मोहल्ला में मिट्टी की अनुपलब्धता ने एक पारंपरिक व्यवसाय को लगभग ठप कर दिया है। देखें तो मिट्टी का संकट केवल कुम्हारों का संकट नहीं है, यह हमारे समाज, संस्कृति और स्थानीय अर्थव्यवस्था का संकट है।
बरसात ने बिगाड़ा कुंभकारों का गणित
बीते महीनों में आई तेज बारिश ने झज्जर और आसपास के क्षेत्रों की मिट्टी को पूरी तरह गीला और अनुपयोगी बना दिया है। वहीं, जहां से पहले मिट्टी की आपूर्ति होती थी, उन इलाकों तक पहुंचने का रास्ता या तो बंद हो गया है या पानी खड़ा होने की वजह से मिट्टी उपलब्ध नहीं हो पा रही हैं।
छावनी मोहल्ला निवासी और तीस साल से कुम्हारी कर रहे सूरजभान प्रजापत कहते हैं, पहले एक ट्राली मिट्टी 2500 रुपये में मिल जाती थी, अब वही 4500 रुपये से ऊपर जा चुकी है। वो भी तब जब आपको मिट्टी मिल जाए। अब हाल ये है कि पैसे देने पर भी मिट्टी नहीं मिल रही।
साथ ही इनका कहना है कि मिट्टी की किल्लत से जूझ रहे कुंभकारों के लिए पड़ोसियों की शिकायतें एक और बड़ी परेशानी बन गई हैं। जैसे ही कोई भट्टी जलाता है, आसपास के लोग प्रदूषण की शिकायत कर देते हैं। सूरजभान का कहना है, भट्टी तो जलानी ही पड़ेगी।
अब आस-पास के लोग पुलिस या नगर परिषद में शिकायत कर देते हैं। कहने लगे हैं कि इससे हवा खराब होती है। अब ऐसे में हमारा घर कहां से चलेगा।
दीपोत्सव की तैयारी अधूरी, आर्डर हो रहे रद
छावनी मोहल्ला के कुंभकारों को हर साल दीपावली के लिए बड़े पैमाने पर आर्डर मिलते हैं — मुंबई, पुणे, जयपुर, दिल्ली जैसे शहरों से। मई-जून में ही आर्डर बुक हो जाते हैं और नवरात्र शुरू होते ही उत्पादन जोरों पर चलने लगता है।
परंतु इस बार ऐसा कुछ नहीं हो रहा। कुंभकार महावीर ने बताया कि मुंबई से 6 लाख दीयों का ऑर्डर आया था। हर साल की तरह इस बार भी तय कीमत पर डील हो गई थी, लेकिन मिट्टी नहीं मिली तो काम शुरू ही नहीं हुआ। ग्राहक को मना करना पड़ा।
उन्होंने अब गुजरात से ऑर्डर शिफ्ट कर दिया है। उनका कहना है कि पुराने रेट पर अब सामान बनाना घाटे का सौदा है, क्योंकि कच्चा माल तीन गुना महंगा हो गया है।
मिट्टी नहीं, तो क्या बनेगा?
दीये, कुल्हड़, मूर्तियां, धूपदान, गणेश-लक्ष्मी की प्रतिमाएं - ये सभी उत्पाद मिट्टी से ही बनते हैं। इनकी सबसे अधिक मांग नवरात्र से लेकर दीपावली तक रहती है। लेकिन मिट्टी की अनुपलब्धता ने पूरा उत्पादन रोक दिया है। कुंभकार राजू, जो पिछले 15 वर्षों से मिट्टी से दीये और घर की सजावटी वस्तुएं बना रहे हैं, इस बार तो कोई तैयारी ही नहीं हो पाई। पहले हम पूरे मोहल्ले में मिलकर भट्टियां जलाते थे। अब न मिट्टी है, न काम। घर खर्च चलाना भी मुश्किल हो गया है।
प्रदूषण की दुहाई बनी नई मुसीबत
जहां एक ओर कुम्हारों की मुश्किलें बढ़ी हैं, वहीं बाजार में पीओपी (प्लास्टर आफ पेरिस) और प्लास्टिक से बने सस्ते दीये और मूर्तियां तेजी से अपनी जगह बना रहे हैं। स्थानीय दुकानदार सुनील बताते है, यह संकट केवल एक व्यवसाय या कुछ परिवारों की आय तक सीमित नहीं है।
यह हमारी संस्कृति, परंपरा और विरासत से भी जुड़ा है। मिट्टी के दीये केवल दीपावली की सजावट नहीं होते, वे प्राकृतिक, पुनः उपयोगी, और पर्यावरण-अनुकूल विकल्प हैं।
कुंभकारों की सबसे बड़ी मांग यह है कि प्रशासन मिट्टी की आपूर्ति को लेकर कोई स्थायी व्यवस्था बनाए। साथ ही उन्हें यह आश्वासन भी चाहिए कि पारंपरिक भट्टियों को लेकर अनावश्यक कार्रवाई न की जाए।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।