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बैलों से होती है टिकाऊ खेती, ट्रैक्टर से होता है पृथ्वी का दोहन

एचएयू के रिटार्यड पूर्व निदेशक बोले- 1970 से पहले की खेती का दौर लाना होगा।

By JagranEdited By: Published: Wed, 20 Oct 2021 06:42 AM (IST)Updated: Wed, 20 Oct 2021 06:42 AM (IST)
बैलों से होती है टिकाऊ खेती, ट्रैक्टर से होता है पृथ्वी का दोहन
बैलों से होती है टिकाऊ खेती, ट्रैक्टर से होता है पृथ्वी का दोहन

खेत खलिहान----

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फोटो : 46

- एचएयू के रिटार्यड पूर्व निदेशक बोले- 1970 से पहले की खेती का दौर भी भारत में लाना होगा

- कृषि पारिस्थितिकी तंत्र को संरक्षित करने के लिए एग्रीक्लचर टूरिजम की तरफ देना होगा ध्यान

जागरण संवाददाता, हिसार : जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे हैं, हमारी पौराणिकता पीछे छूटती जा रही है। ऐसे ही अपनी परम्पराओं, पौराणिकता को अगर हम दूर करते रहे तो एक दिन यह सब हमसे बहुत दूर हो जाएंगी। ऐसे में ग्रामीण एवं शहरी युवाओं को कृषि प्रधान देश के जीवन के सभी क्षेत्रों में पारंपरिक और आधुनिक कृषि पारिस्थितिकी तंत्र से परिचित कराने की सख्त जरूरत है। यह कहना है प्रो. राम सिंह (पूर्व, निदेशक, मानव संसाधन प्रबंधन और पूर्व, प्रमुख, कीट विज्ञान विभाग, चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार) का।

कला, संस्कृति का गूढ़ ज्ञान रखने वाले प्रो. राम सिंह कहते हैं कि करीब चार दशकों से ग्रामीण पारिस्थितिकी तंत्र से शहरी वातावरण में जन शक्ति का बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है। ज्ञान-आधारित सूचना प्रौद्योगिकियों के संयोजन में कृषि प्रौद्योगिकियों में ग्रामीण भौतिक प्रथाओं का बड़े पैमाने पर मशीनीकरण के लिए परिवर्तन शुरू चुका है। देश में हर किसी को पुरानी प्रथाओं का उचित ज्ञान और आईटी आधारित आधुनिक प्रथाओं और मशीनों के साथ उचित समन्वय से परिचित कराना बहुत आवश्यक है। प्रो. सिंह वर्ष 1960 के मध्य से 2021 तक दोनों ग्रामीण और शहरी कृषि पर्यावरण के साक्षी हैं। इस समय अंतराल में उन्होंने अनुभव किया कि पहले के ग्रामीण पर्यावरण का पारंपरिक ज्ञान नई पीढ़ी और शहरी युवाओं को प्राप्त करने के लिए आज कोई विकल्प नहीं है। हमारे कृषि पारिस्थितिकी तंत्र को संरक्षित करने, बदलने और वर्तमान समाज में एकीकृत करने के लिए कृषि पर्यटन एक अच्छा विकल्प है। प्रो. सिंह ने आधुनिक पीढ़ी के युवाओं में कृषि सामग्री की जानकारी और ज्ञान की कमी पर कुछ प्रकाश डाला है। डा. सिंह का कहना है कि आज की पीढ़ी ना तो पशुओं में भी भेद बता सकती हैं और ना ही वह पौधों व बीजों का अंतर जानती है।

1970 से पहले होती थी जैविक व टिकाऊ खेती: प्रो. राम सिंह

प्रो. राम सिंह के मुताबिक वर्ष 1970 से पहले देश में हर जगह जैविक और टिकाऊ खेती होती थी। वर्तमान समय में बढ़ती मानव आबादी की खाद्य आवश्यकता को पूरा करने के लिए कृषि पद्धतियां अत्यधिक उत्पादक लेकिन एक स्तर बनाए रखने के लिए अपर्याप्त हैं। बैलों द्वारा की गई खेती टिकाऊ खेती थी और ट्रैक्टर द्वारा की हुई खेती पृथ्वी का दोहन करने वाली खेती है। इस असंतुलन को मानव हितैषी बनाने के लिए सामंजस्य की जरूरत है। आज का युवा तो यह भी नहीं जानता कि भैंस और बकरी के थनों में क्या अंतर है।

ये शब्द भी गांवों से हो रहे लुप्त

गांवों में भी अगर किसी भी युवा से कुछ शब्दों और वस्तुओं के बारे में पूछा जाता है, वे उनके बारे में बिल्कुल अनभिज्ञ हैं-जैसे फाली, हाली, पाली, जाली, अलसी, करसी, फल्सी, जेली, तेओंगली, गोपिया, गंडासी, टोका, जोंडा, जोल्ला, टाटा, टिडी, इंडी, मिडी, मटिडी, जेर, खीस, बलध, गिरड़ी, बधवाड़ छोडऩा, पड्डा काटना, रामजोल, मुकलावा, शांटा, चोका, दिसोटन, संदेशा, दांती, खुर्पा, कसोला, ओरणा, पोरा, बार, गठड़ी, पांड, पंडोकली, झोला, बस्ता, कंबल, लोई, दोसाला, पतल, लासी, साग, गुड़, गोर, गोरी, बेरड, ऊधी, चबचा, खुटला, कोठी, ठेका, कूप, गोसा, थेपड़ी, गोबर, लीद, मींगण।

ये दिए सुझाव

एक से दो हेक्टेयर सरकारी भूमि पर कम से कम हर 15 किलोमीटर के दायरे में गांवों के समूहों में कृषि पर्यटन केंद्र स्थापित किए जाएं, ताकि फसलों और सामग्रियों से हमें एकीकृत ग्रामीण पर्यावरण पारिस्थितिकी तंत्र का वास्तविक अर्थ समझने में मदद मिले। उचित योजना बनाकर ये कृषि पर्यटन केंद्र आत्मनिर्भर बन सकते हैं। पूरे राज्य में एक या दो केंद्र जनता को शिक्षित करने के लिए घोर अपर्याप्त हैं। प्रो. राम सिंह की राय में आधुनिक इंसान को इच्छाओं और जनसंख्या पर नियंत्रण की अति आवश्यकता है।


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