Azadi Amrit Mahotasav: 1857 की क्रांति में मौत की बाल्टी देखकर भी नहीं डरे थे पृथ्वीसिंह
जेल में पृथ्वीसिंह की कोठरी के सामने प्रतिदिन एक बाल्टी पानी रखा जाता तो क्रांतिकारियों को लगता कि आज उन्हें फांसी दी जाएगी। आतंकित करने की यह क्रूर क्रिया जेल प्रशासन 14 दिनों तक करता रहा लेकिन पृथ्वीसिंह का मनोबल नहीं डिगा।

जागरण संवाददाता, हिसार। अंबाला जिले के लाहड़ू गांव में जन्मे पृथ्वीसिंह का ध्यान बचपन से ही पढ़ाई की बजाय राजनीति में ज्यादा था। जिद करके अपने व्यवसायी पिता के साथ बर्मा गए थे। इसके बाद मात्र 19 साल की उम्र में कई देशों की यात्रा करते हुए जब अमेरिका पहुंचे तो लाला हरदयाल की गदर पार्टी में शामिल हो गए।
कालांतर में पार्टी के समाचार पत्र गदर के प्रकाशन में सहयोग देने लगे। पार्टी के आह्वान पर ये अपने साथियों के साथ भारत लौट आए और अंबाला स्थित सैनिक छावनियों में भारतीय सैनिकों को अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विद्रोही रुख अपनाने की प्रेरणा देने लगे।
स्वदेश लौटकर पृथ्वीसिंह आजाद सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी के मेंबर बने और चंद्रशेखर आजाद व भगत सिंह के साथी के नाते क्रांतिकारी विचारों को जन-जन तक पहुंचाने लगे। 8 दिसंबर 1914 को इन्हें बंदी बनाकर लाहौर की सेंट्रल जेल में भेज दिया गया। न्यायालय ने उक्त केस में 24 क्रांतिकारियों को फांसी की सजा सुनाई और उन क्रांतिकारियों में पृथ्वीसिंह का नाम भी शामिल था।
लाहौर जेल में उस समय कायदा यह था कि फांसी देने के बाद शवों को नहलाया नहीं जाता था और जेल कैंपस में जेल के ही किसी कर्मचारी द्वारा शव को जलवा दिया जाता था। इस रिवायत के खिलाफ राजबंदियों की मांग थी कि जिस दिन उन्हें फांसी दी जानी हो, उसके पहले स्नान करने की व्यवस्था करें। राजबंदियों की बढ़ती मांग को देखकर जेल प्रशासन ने उस क्रांतिकारी की कोठरी के सामने एक बाल्टी पानी रखना शुरू कर दिया जिसे फांसी देनी होती थी।
जेल में पृथ्वीसिंह की कोठरी के सामने प्रतिदिन एक बाल्टी पानी रखा जाता तो क्रांतिकारियों को लगता कि आज उन्हें फांसी दी जाएगी। आतंकित करने की यह क्रूर क्रिया जेल प्रशासन 14 दिनों तक करता रहा लेकिन पृथ्वीसिंह का मनोबल नहीं डिगा। इसे उनका भाग्य ही कहा जाएगा कि उनके मृत्युदंड को बाद में आजीवन कारावास में बदल दिया गया था।
1915 से लेकर 1921 तक ये अंडमान में एक कैदी के रूप में जीवनयापन करने को बाध्य हुए और जब पृथ्वीसिंह को कैदी के रूप में दिल्ली लाया जा रहा था तो पुलिस को चकमा देकर भाग निकले और 16 साल तक अज्ञातवास में रहे। इसी दौरान इन्हें 1931 और 1934 में रूस जाने का अवसर मिला और बोल्शेविक पार्टी से जुड़े। 1938 में इन्होंने गांधीजी की इच्छानुरूप आत्मसमर्पण कर दिया था।
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