250 ग्राम की पश्मीना शाल, कीमत 80 हजार
पश्मीना शाल का नाम और इसकी खासियत के बारे में सुना तो जरूर होगा। ...और पढ़ें

अभिषेक शर्मा, फरीदाबाद : पश्मीना शाल का नाम और इसकी खासियत के बारे में सुना तो जरूर होगा, पर कभी इसे बनते-बुनते हुए न देखा होगा। अंतरराष्ट्रीय सूरजकुंड हस्तशिल्प का थीम स्टेट इस बार है जम्मू-कश्मीर और कश्मीर की खूबसूरत वादियों से पश्मीना काणी शाल को बनाने की कला के साथ आए हैं शिल्पी शौकत अहमद खान। मेले में मुख्य चौपाल के ठीक बगल में शौकत अहमद शाल बुनते हुए दिखाई दे जाएंगे।
कश्मीर की 250 वर्ष पुरानी परंपरा को जीवंत बनाए रखने के लिहाज से काम में तल्लीन शौकत अहमद जब शाल की बुनाई के काम में जुटते हैं, तो इस बेहद बारीक कारीगरी को देखने के लिए कदम भी ठिठक जाते हैं। शौकत देशी-विदेशी पर्यटकों व दर्शकों को पश्मीना काणी शाल बुनकर दिखा रहे हैं।
शौकत बताते हैं कि पश्मीना शाल बनाने के कार्य से 20 वर्षों से जुड़े हुए हैं। यह कार्य श्रीनगर के ईदगाह और नरवा निवासियों की आय का प्रमुख स्त्रोत है। शाल की बुनाई इतनी बारीक होती है कि उसे बुनने में छह महीने का समय लगता है। इसकी बुनाई पूरी तरह हाथों से होती है। इस शाल की अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारी मांग है। मात्र 250 ग्राम वजन वाली एक शाल 70 से 80 हजार रुपये में बिकती है, जबकि पुरुषों की शाल डेढ़ लाख रुपये में बिकती है। नूरी जानवर के ऊन से बनती है शाल
यह शाल लद्दाख की माइनस 20 से 40 डिग्री में पाए जाने वाले नूरी जानवर के ऊन से बनाई जाती है। नूरी जानवर से उतारी गई कच्ची ऊन 15 हजार रुपये प्रति किलो बिकती है और यह ऊन मनुष्य के बाल से भी हल्की होती है। बुनाई के दौरान कई बार टूट भी जाती है। इसके चलते एक शाल को बनाने में छह महीने का समय लगता है। एक शाल को दो कारीगर मिलकर तैयार करते हैं। इसकी बुनाई भी सामान्य शाल से अलग से होती है। इसके कागज पर डिजाइन की कोडिग की जाती है, जो सिर्फ कुशल बुनकर ही समझ सकता है। कोडिग के अनुसार ही डिजाइन तैयार होती है। राजा अपनी रानियों को खुश करने के लिए देते थे उपहार में
शौकत के अनुसार पश्मीना काणी शाल का इतिहास 250 वर्ष पुराना है। पहले मुगल काल, उसके बाद डोगरा और फिर सिखों की रियासत में राजा अपनी रूठी हुई रानियों को खुश करने के लिए पश्मीना काणी शाल देते थे। ब्रिटिश शासन काल तक यह कला जीवित रही, पर 1965 के बाद से यह विलुप्ति के कागार पर पहुंच गई। दो-चार परिवारों को छोड़कर कोई भी इसके कार्य को नहीं करता था। बाद में पश्मीना की जगह शहतूश चीरू जानवर की खाल से बनाई जाने वाली शाल ने ले ली। शहतूश चीरू जानवर को मारकर उसकी खाल निकाल ली जाती थी। प्रतिबंध के बाद फिर पश्मीना के काम ने पकड़ा जोर
वर्ष 1996 में पशु प्रेमी सांसद मेनका गांधी द्वारा जानवरों की हत्या पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद पश्मीना काणी शाल के काम ने फिर से जोर पकड़ा और श्रीनगर के 10 हजार से भी ज्यादा युवा इसकी बुनाई से जुड़े हुए हैं। जम्मू-कश्मीर के हस्तशिल्प विभाग ने भी इसे बढ़ावा दिया है। बाजार में कई लोग सामान्य शाल को भी पश्मीना बनाकर बेच रहे हैं। इसके लिए जम्मू कश्मीर सरकार ने ज्योग्राफिकल इंडिकेशन मार्क जारी किया है। यह मार्क जिस शाल पर होता है, वह असली पश्मीना काणी शाल मानी जाती है।

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