जिंदगी को संवारती हैं परंपराएं
आपने कभी इस बात की कल्पना की है कि अगर हमारे पर्व-त्योहार और रीति-रिवाज न होते तो क्या होता? इनके बिना हमारी जिंदगी कितनी नीरस और बेरंग होती!

आपने कभी इस बात की कल्पना की है कि अगर हमारे पर्व-त्योहार और रीति-रिवाज न होते तो क्या होता? इनके बिना हमारी जिंदगी कितनी नीरस और बेरंग होती! भारतीय समाज की उत्सवधर्मिता ही इसे इतना जीवंत बनाती है कि पूरी दुनिया इसकी कायल है।
सामाजिक एकता का सूत्र
हमारी संस्कृति ऐसी है कि यहां चाहे इंसान के जीवन में कितनी ही जटिल स्थितियां क्यों न आएं, लेकिन उसे अकेला और उदास रहने की नौबत कभी नहीं आती। जन्म से लेकर मृत्यु तक हर खुशी और गम के मौके पर पास-पड़ोस, रिश्तेदार और दोस्त हमारे साथ खड़े होते हैं। यहां हर अवसर के लिए खास तरह की रस्में, गीत, पहनावा और खानपान देखने को मिलता है। ऐसे रस्म-रिवाज न केवल हमारी संस्कृति को अपने विविध रंगों से सजाते हैं, बल्कि ये समाज के हर वर्ग को एक-दूसरे से जोड़ने का काम बड़ी खूबसूरती से करते हैं। डॉ.हरिवंश राय 'बचन' ने अपनी आत्मकथा 'क्या भूलूं क्या याद करूं' में लिखा है, 'विवाह की रस्में कुछ इस तरह बनाई गई हैं कि इसमें समाज के हर जाति और वर्ग के लोगों की इतनी अहम भूमिका होती है कि उनके सहयोग के बिना शादी की रस्में पूरी नहीं की जा सकतीं।' दरअसल आसपास के लोग, जो हमारे सामाजिक जीवन को आसान बनाते हैं, ऐसी रस्मों के बहाने हम उनके प्रति अपना आभार व्यक्त करते हैं।
थाती संजोती स्त्रियां
इसे भारतीय संस्कृति का सुखद पहलू कहा जा सकता है कि यहां की स्त्रियां परंपराओं और रीति-रिवाजों की विरासत को पीढ़ी-दर-पीढ़ी कुशलता से संजोती आ रही हैं। स्त्री की उपस्थिति ही मकान को घर बनाती है। घर के द्वार पर उसके हाथों से उकेरी गई रंगोली, तुलसी चौरे पर जलता माटी का दीया, रोली-अक्षत से सजी पूजा की थाल..। जाने कितनी ही ऐसी चीजें हैं, जो सदियों बाद भी नहीं बदलीं। त्योहार के दिनों मे किचन से उठती पारंपरिक पकवानों की सोंधी ख़ुशबू हमें एहसास दिलाती है कि आज भी हमारी परंपराएं जिंदा हैं। एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत नंदिता कहती हैं, 'हमारा होम टाउन बनारस है। त्योहारों के अवसर पर मैं अपने घर को बहुत मिस करती हूं। मेरे मन में हमेशा इस बात का डर बना रहता है कि दिल्ली में रहने वाले मेरे बच्चे कहीं अपनी संस्कृति से दूर न हो जाएं। इसलिए यहां भी मैं सारे पर्व-त्योहार वैसे ही मनाती हूं जैसे मेरी ससुराल में मनाए जाते हैं। हालांकि इसके लिए समय निकाल पाना बहुत मुश्किल होता है, लेकिन इससे मुझे इस बात की खुशी होती है कि मैंने अपनी परंपराओं को संजोकर रखा है।'
चुनौती बदलते वक्त की
आज का भारतीय समाज जिस बदलाव के दौर से गुजर रहा है, उसके प्रभाव से हमारी संस्कृति भी अछूती नहीं है। खाने-पीने और जीने का सलीका बदला तो इससे हमारे व्रत-त्योहार मनाने के तौर-तरीकों में भी काफी बदलाव आया। 'शुभ दीपावली', अब 'हैप्पी दीवाली' बन चुकी है। त्योहारों की रौनक अब घर-आंगन में कम और बाजारों में ज्यादा दिखाई देती है। भावनाओं की नब्ज को बाजार ने बखूबी पकड़ा है। हालांकि कुछ लोग इसे त्योहारों के बाजारीकरण का नाम देते हुए इसकी आलोचना भी करते हैं, लेकिन हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि बदलते वक्त में परंपराओं को जिंदा रखने में बाजार ने बहुत सकारात्मक भूमिका निभाई है। आज भले ही वक्त की कमी है लेकिन त्योहार मनाने का जज्बा आज भी हमारे भीतर जिंदा है। अगर आज 24 X 7 की दिनचर्या में काम करने वाली वर्किग वुमन होली के त्योहार में गुझिया बनाने का समय नहीं निकाल पाती तो वह बाजार से रेडीमेड गुझिया खरीद कर भी त्योहार मना सकती है। एक छोटे से कस्बे की लड़की भी लंदन या अमेरिका में बैठे अपने भाई को ऑनलाइन राखी की थाली भेजती है तो इसमें क्या हर्ज है? परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है और इस बदलाव के साथ अपनी परंपराओं का निर्वाह करने में हमें कोई गुरेज नहीं होना चाहिए। परंपराओं को बदलते वक्त के साथ संजोकर रखने के लिए विज्ञान और तकनीक का इस्तेमाल निश्चय ही प्रशंसनीय है।
सुरक्षित है यह धरोहर
संजु दास, चित्रकार
बिहार के मिथिलांचल में घर की दीवारों और फर्श को चित्रों से सजाने की परंपरा रही है। बचपन में मैं भी शौकिया तौर पर चित्र बनाती थी। शादी के बाद जब मैं दिल्ली आई तो यहां मेरे इस शौक को और विस्तार मिला। मुझे यह देखकर बहुत खुशी होती है कि कॉलेज गोइंग लड़कियां मेरे पास आकर मुझसे मधुबनी पेंटिंग सीखने की इछा जाहिर करती हैं। पारंपरिक कलाओं के प्रति उनकी यह दिलचस्पी देखकर मुझे ऐसा लगता है कि युवा पीढ़ी के हाथों में हमारी यह धरोहर पूरी तरह सुरक्षित है।
युवा पीढ़ी का दोष नहीं
मालिनी अवस्थी, लोक गायिका
चाहे विवाह के रीति-रिवाज हों या पर्व-त्योहार, इन सारी चीजों के खत्म होने की सबसे बड़ी वजह है-संयुक्त परिवारों का टूटना। एकल परिवारों में त्योहार मनाने का वह उत्साह नहीं रह जाता जो हमारे जमाने के संयुक्त परिवारों में देखने को मिलता था। मैं इस बात से सहमत हूं कि नई पीढ़ी का अपनी संस्कृति से लगाव कम होता जा रहा है। लेकिन इसके लिए मैं युवाओं को नहीं, बल्कि बुजुर्गो को जिम्मेदार मानती हूं। मेरा मानना है कि हम समाज से जो कुछ भी सीखते और ग्रहण करते हैं, हमारा यह फर्ज बनता है कि हम ज्ञान और अनुभवों की वह विरासत अगली पीढ़ी को सौंपें। हालांकि अभी हालात बहुत नहीं बिगड़े। अगर हम अपने बचों के मन में परंपराओं के प्रति दिलचस्पी पैदा करें तो इस अमूल्य विरासत को नष्ट होने से बचाया जा सकता है।
मां ही बचा सकती है संस्कृति
पद्मा सचदेव, साहित्यकार
स्त्री न केवल पारंपरिक कलाओं को संजोने का काम करती है, बल्कि उन कलाओं का संसार भी उसी के हाथों रचा जाता रहा है। मुझे तो ऐसा लगता है कि धरती पर पहली कविता और कहानी का सृजन किसी औरत ने ही अपने बचों को लोरी या कहानियां सुनाते वक्त किया होगा। मैंने जम्मू की अनपढ़ स्त्रियों को भी डोगरी भाषा में बेहद सुंदर और मार्मिक लोकगीत रचते देखा है। यह देखकर मुझे बहुत दुख होता है कि आज के बचे अपनी मातृभाषा भूलते जा रहे हैं। नई पीढ़ी अपनी जमीन से बहुत दूर हो चुकी है। यहां तक कि लोग अपनी क्षेत्रीय भाषाएं और बोलियां भी भूल चुके हैं। इस मामले में मैं दक्षिण भारतीय लोगों की प्रशंसा करना चाहूंगी कि उन्होंने आज के बदलते दौर में भी अपनी संस्कृति को बहुत अछी तरह संजो कर रखा है। अपनी संस्कृति को बचाने के लिए हर परिवार में मां की जिम्मेदारी बनती है कि वह परंपराओं की थाती बचों को सौंपें।
यूथ फ्रेंड्ली बनें पारंपरिक कलाएं
जया जेटली, राजनीतिज्ञ एवं कला मर्मज्ञ
रचनात्मकता स्त्रियों का जन्मजात गुण है। इसीलिए कलाओं को संजोने का काम शुरू से स्त्रियां ही करती आ रही हैं। प्रकृति ने स्त्रियों को सृजनशीलता का वरदान दिया है। वे संतान को जन्म देकर उसकी परवरिश करती हैं। वे अपने घर और आसपास के माहौल को साफ और सुंदर बनाने का काम करती हैं। अगर कोई ग्रामीण स्त्री अपनी जरूरत के लिए झाड़ू या टोकरी भी बनाती है तो उसे वह सुंदर रंगों से सजाकर नया रूप देती है। वह बड़ी खामोशी और खूबसूरती के साथ पारंपरिक कलाओं को संजोने का काम सदियों से करती आ रही हैं। लेकिन इतनी सुंदर चीजें बनाने वाले कलाकारों की जिंदगी का एक बदसूरत पहलू यह भी है कि वे खुद बेहद गरीब, बीमार और उपेक्षित हैं। मेरा यह मानना है कि कला के संरक्षण के लिए यह बहुत जरूरी है कि पहले कलाकार की जिंदगी को बेहतर बनाया जाए, उसका आर्थिक-सामाजिक उत्थान हो। उसे उसकी कला का उचित सम्मान और मेहनताना मिले। उनकी इसी जरूरत को ध्यान में रखते हुए मैंने दिल्ली हाट की स्थापना की। हम अपनी संस्कृति भूलते जा रहे हैं लेकिन पूरी दुनिया हमारी सांस्कृतिक समृद्धि की कायल है। पिछले दिनों हैंडलूम की एक प्रदर्शनी के सिलसिले में मैं चेन्नई गई थी तो वहां मुझे यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि मलेशिया के प्रधानमंत्री की पत्नी ने अपने लिए हैंडलूम की ढेर सारी साडि़यां खरीदीं। मुझे ऐसा लगता है कि नई पीढ़ी को अपनी संस्कृति से जोड़ने के लिए यह बहुत जरूरी है कि पारंपरिक कलाओं को यूथ फ्रेंड्ली बनाया जाए। यह जरूरी नहीं है कि कोई भी पारंपरिक चित्रकला केवल घर की दीवारों तक ही सीमित रहे, उसे युवाओं की टी शर्ट और बैग पर भी उकेर कर लोकप्रिय बनाया जा सकता है।
वैज्ञानिक आधार परंपराओं का पं. संपूर्णानंद, निदेशक, अंतरराष्ट्रीय ज्योतिष अनुसंधान संस्थान
हमारी जितनी भी धार्मिक मान्यताएं हैं, उनके पीछे कोई न कोई वैज्ञानिक आधार अवश्य निहित है। मेरा मानना है कि युवाओं को हर परंपरा के वैज्ञानिक आधार के बारे में जानकारी दी जाए तो वे अपनी परंपराओं को सहजता से आत्मसात करेंगे। इस कार्य में स्त्रियों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण साबित होगी। अगर हर मां शुरू से ही अपने बच्चे में अच्छे संस्कार विकसित करे तो नई पीढ़ी भी परंपराओं के प्रति आस्थावान होगी।
डॉ. रवीन्द्र नागर
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