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    हर प्राणी में ईश्वर

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    श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने प्राणियों में समानता की शिक्षा दी है। आज बंटे हुए समाज में गीता

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    श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने प्राणियों में समानता की शिक्षा दी है। आज बंटे हुए समाज में गीता की उपादेयता और भी बढ़ जाती है। गीता जयंती [6 दिसंबर] पर विशेष..

    दुनिया में समानता का विचार आधुनिक काल की देन माना जाता है, किंतु भारत में श्रीमद्भगवद्गीता में समानता का विचार अद्भुत ढंग से प्रस्तुत हुआ है। इसमें किसी भी भेद के लिए कोई स्थान ही नहीं है।

    श्रीमद्भगवद्गीता के पंद्रहवें अध्याय में वे कहते हैं- 'इस संसार में सारे जीव मेरे अंश हैं। वे छह इंद्रियों से घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है।' जब सब प्राणी ईश्वर के अंश हैं, तो उनमें भेदभाव कैसे किया जा सकता है। चींटी और हाथी में भेद कैसे किया जा सकता है? श्रीकृष्ण इसे और स्पष्ट करते हैं- 'विनम्र पुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण सभी को समान दृष्टि [समभाव] से देखता है।' अर्थात जब हम किसी भी भूखे की भूख मिटाते हैं, तो भगवान की भूख मिटाते हैं। प्रत्येक प्राणी में ईश्वर है। फिर भेद कैसा? किसी भी जीव को प्रताड़ित करना, कष्ट देना ईश्वर को कष्ट पहुंचाना है।

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    श्रीमद्भगवद्गीता में समानता का यह स्वर सभी जगह मिलता है। छठे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- 'जब मनुष्य निष्कपट हितैषियों, प्रिय मित्रों, तटस्थों, मध्यस्थों, ईष्र्यालुओं, शत्रुओं तथा मित्रों को समान भाव से देखता है, तो वह और भी उन्नत माना जाता है।' स्पष्ट है कि हमारे सांसारिक संबंध कैसे भी हों, पर हमारे व्यवहार में समानता का भाव होना चाहिए।

    यदि ऐसा है, तब भला संसार में कौन छोटा और कौन बड़ा है? फिर हम किसी के साथ छुआछूत कैसे कर सकते हैं? बीमार, अपंग, असहाय और वृद्ध भी ईश्वर का ही रूप हैं। अलग-अलग जाति, धर्म, भाषा वाले लोग एक ही हैं। इसीलिए महात्मा गांधी से लेकर मदर टेरेसा तक सभी ने आम लोगों में ईश्वर को देखा। स्वामी विवेकानंद ने भी अपने कार्य-व्यवहार में ईश्वर की पहचान गरीबों-असहायों के रूप में की।

    व्यावहारिक रूप में एक न्यायाधीश और अपराधी में अंतर दिखाई दे सकता है, पर भाव जगत में सब एक हैं। इसीलिए किसी धर्म में अहंकार के लिए जगह नहींहै। अहंकार का नाश करने के लिए तो ईश्वर को अवतार लेना पड़ता है। यह केवल आध्यात्मिक नहीं, व्यावहारिक विचार है। हम देखते हैं कि धनबल, बाहुबल, बुद्धिबल जैसे किसी भी बल के अभिमान का अंत में क्या हाल हुआ। अहंकार का पतन अंत में अवश्य होता है। यदि चींटी बेहद छोटी है, तो इसमें उसका क्या दोष? हाथी यदि बहुत विशाल है, तो इसमें उसका क्या बड़प्पन? श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि किसी विशेषता का अहंकार करना व्यर्थ है, क्योंकि वह ईश्वर की देन है।

    [सत्यनारायण भटनागर]

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