State Of Siege- Temple Attack: अक्षय खन्ना ने कहा, 'एक्टर के लिए कंफर्ट जोन होना काफी खतरनाक है'
मुझे नहीं लगता है कि एक्टर का कोई कंफर्ट जोन होता है क्योंकि अगर कंफर्ट जोन बन गया तो कलाकार आलसी हो जाएगा। वह नई चीजें करने की कोशिश नहीं करेगा। कंफर्ट जोन बहुत खतरनाक चीज है। मेरा कोई कंफर्ट जोन नहीं है।

प्रियंका सिंह, मुंबई। डिजिटल प्लेटफार्म पर फिल्म ‘स्टेट आफ सीज: टेंपल अटैक’ के साथ डेब्यू कर चुके हैं अक्षय खन्ना। जी5 पर रिलीज हुई इस फिल्म में वह स्पेशल टास्क फोर्स अफसर की भूमिका में हैं। डिजिटल डेब्यू, फिल्म की तैयारियों व अन्य मुद्दों पर अक्षय से प्रियंका सिंह की बातचीत के अंश...
आखिरकार आपको भी डिजिटल प्लेटफार्म ने अपनी ओर खींच ही लिया?
(हंसते हुए) हां, बिल्कुल। कंटेंट देखने के इस अलग मीडियम के कई फायदे हैं। धीरे-धीरे इंडस्ट्री के लोगों और दर्शकों को इस प्लेटफार्म की आदत पड़ रही है। आप इस पर जब चाहे तब कंटेंट देख सकते हैं। सिनेमाघर के फायदे और अनुभव अलग हैं। मैं काफी वक्त से एक एक्शन फिल्म करना चाह रहा था। इस फिल्म की स्क्रिप्ट पसंद आई, सो, इसमें काम कर लिया।
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यह फिल्म अक्षरधाम मंदिर पर हुए आतंकी हमले से प्रेरित है। स्क्रिप्ट के अलावा आपकी अपनी रिसर्च क्या रही?
मुंबई में हुए आतंकी हमले में नरिमन हाउस में एनएसजी टीम का नेतृत्व कर रहे कर्नल संदीप सेन इस फिल्म से बतौर कंसल्टेंट जुड़े हैं। उनसे ही सीखा कि सुरक्षा से जुड़ी हर एजेंसी के पास आने वाले खतरे को लेकर जानकारियां होती हैं। हर सुरक्षा एजेंसी से जुड़े लोगों की ट्रेनिंग भी अलग होती है। सबकी अपनी अहम जिम्मेदारियां होती हैं, जो उन्हें निभानी पड़ती हैं।
आप पहले भी आर्मी और पुलिस अफसर के रोल निभा चुके हैं, लेकिन अब फिल्में बहुत रियलिस्टिक जोन में बनती हैं। पहले के मुकाबले अब किरदारों की तैयारियों में क्या बदलाव आया है?
आर्मी या पुलिस अफसर की जो ट्रेनिंग होती है, वह सालों तक चलती है। एक कलाकार के लिए यह संभव नहीं है कि वह उस पूरी ट्रेनिंग को कर सके। हम सीन के मुताबिक ट्रेनिंग करते हैं। यही वजह है कि प्रोडक्शन हाउस ने कर्नल संदीप सेन से निवेदन किया था कि वह हमारा मार्गदर्शन करें। हमने उन्हीं के निर्देशों को माना। उन्होंने जो और जैसे कहा, वैसे हमने किया।
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वर्दी वाले किरदारों को निभाने की सबसे बड़ी चुनौती क्या होती है?
दूसरे देशों में आर्म फोर्सेज पर जब फिल्में बनती हैं तो वे उस फिल्म को बनाने में मेकर को अपनी तरफ से हरसंभव मदद करते हैं। ‘बार्डर’ के दौरान हमें आर्मी ने टैंक्स, जरूरी सामान यहां तक कि अपने बेस पर शूटिंग की इजाजत भी दी थी। दुर्भाग्यवश हमारे यहां अब ऐसा नहीं होता। यहां कमी फिल्म इंडस्ट्री की है। हम कई बार उनकी कहानी को सही तरीके से दिखा नहीं पाते। हम भले ही उनकी तारीफ करें या खामियां दर्शाएं, लेकिन उसमें विश्वसनीयता होनी चाहिए। यह फिल्म करते हुए हमारी शुरू से यही कोशिश रही कि आर्मी या एनएसजी की तरफ से किसी को अंगुली उठाने का कोई मौका न मिले। किसी का अपमान नहीं होना चाहिए।
आजकल अपने काम को इंटरनेट मीडिया पर प्रमोट करना भी अहम जिम्मेदारी होती है। आप इंटरनेट मीडिया पर नहीं हैं। इस तरह के प्रमोशन को मिस नहीं करते?
प्रमोशन का काम यहीं तक सीमित होता है कि लोगों को इस बात की जानकारी हो जाए कि फलां फिल्म आ रही है। अब बिजनेस वैसा नहीं रह गया है। अब सिर्फ लोगों को जागरूक करना होता है कि यह हमारा प्रोडक्ट है, इस तारीख को रिलीज होने वाला है। उसके अलावा अपने बारे में कहने या खुद को प्रमोट करने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं।
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प्रमोशन से फिल्म का बिजनेस भी जुड़ा होता है। क्या कभी उसके बारे में सोचते हैं?
हमारे बिजनेस का सबसे बड़ा हिस्सा तो यही है न कि फिल्म ने पैसा कितना कमाया? डिजिटल प्लेटफार्म के जमाने में अब इसकी भी अहमियत थोड़ी कम हो गई है। बिजनेस कम नहीं हुआ, लेकिन बदल जरूर गया है। इस प्लेटफार्म पर फिल्म 50 करोड़ रुपए का बिजनेस करे या 100 करोड़ रुपए का, वह पता नहीं चलता। आपको सिर्फ यह पता चलता है कि फिल्म लोगों को पसंद आई या नहीं।
क्या कलाकार का कोई कंफर्ट जोन होता है, जिससे बाहर निकलकर काम करना मुश्किल हो जाता है?
मुझे नहीं लगता है कि एक्टर का कोई कंफर्ट जोन होता है, क्योंकि अगर कंफर्ट जोन बन गया तो कलाकार आलसी हो जाएगा। वह नई चीजें करने की कोशिश नहीं करेगा। कंफर्ट जोन बहुत खतरनाक चीज है। मेरा कोई कंफर्ट जोन नहीं है। मैं वह काम तलाशता हूं, जो पहले कभी न किया हो।
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