Interview: 'शेरनी' के शिकारी शरत सक्सेना का दर्द- 'जिनके मसल्स होते थे, उन्हें विलेन का चमचा बना दिया जाता था'
Sharat Saxena Interview सालों तक हाशिए पर रहने की कड़वाहट व्यंग्य के रूप में ज़ुबां पर आती है। हालांकि ओटीटी के दौर में कहानियां कहने का अंदाज़ बदलने से उन्हें बेहतर किरदार और मौक़े मिलने की उम्मीद है। पढ़िए जागरण डॉटकॉम से शरत सक्सेना की बेबाक बातचीत।

मनोज वशिष्ठ, नई दिल्ली। अमित मसुरकर निर्देशित विद्या बालन की 'शेरनी' में शिकारी पिंटू भैया के किरदार के लिए वरिष्ठ कलाकार शरत सक्सेना को काफ़ी तारीफ़ें मिल रही हैं। हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में 50 साल पूरे कर चुके शेरनी को शरत बतौर कलाकार अपने लिए नई शुरुआत मानते हैं।
आज के दौर में जो फिजिकल फिटनेस फ़िल्म के हीरो की एक ज़रूरी योग्यता बन गयी है, वही मस्क्युलर बॉडी सत्तर के दौर में शरत के करियर के लिए नेगेटिव साबित हुई और उन्हें एक ख़ास तरह के किरदारों में टाइप कर दिया गया। शरत का यह दर्द आज भी छलक उठता है। सालों तक हाशिए पर रहने की कड़वाहट व्यंग्य के रूप में ज़ुबां पर आती है। हालांकि, ओटीटी के दौर में कहानियां कहने का अंदाज़ बदलने से उन्हें बेहतर किरदार और मौक़े मिलने की उम्मीद है। पढ़िए, जागरण डॉटकॉम से शरत सक्सेना की बेबाक बातचीत।
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शिकारी के किरदार में आपको काफ़ी पसंद किया गया। इस किरदार की मानसिकता समझने के लिए क्या तैयारी की?
अमित मसुरकर साहब ने मुझे चार-पांच शिकारियों के वीडियो भेजे थे, जिनको देखा और समझा था। मध्य प्रदेश में बड़ा होने की वजह से काफ़ी शिकारियों से मुलाक़ात कर चुके हैं, उनको जान चुके हैं, क्योंकि मध्य प्रदेश में हम जहां पर रहते थे, वहां काफ़ी लोगों के पास खेत थे। वहां जितने बड़े-बड़े किसान हैं, उनके पास बंदूकें होती हैं और वो शिकार भी करते हैं। ऐसे लोगों से हमारी मुलाक़ात थी। इसकी वजह से एक शिकारी के लिए जो मानसिकता चाहिए, वो हमारे अंदर पहले से ही है। हालांकि, हमने कभी ज़िंदगी में शिकार नहीं किया, लेकिन जानते हैं कि शिकारी कैसे सोचते हैं।
फ़िल्म में आपके किरदार को ट्रिगर-हैप्पी दिखाया गया है। इस पर हैदराबाद के एक शिकारी ने आपत्ति ज़ाहिर की है। कुछ कहेंगे?
इसके बारे में मुझे कोई ख़बर नहीं है।
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जिस दौर में आपने फ़िल्मों में करियर शुरू किया था, उस दौर में आप जिस्मानी तौर पर हीरो पर भारी पड़ते थे। इससे करियर पर क्या प्रतिकूल प्रभाव पड़ा?
(व्यंगात्मक लहज़े में) हमारे जैसे सैम्पल उस ज़माने में बहुत कम थे। उस ज़माने में हिंदुस्तानी एक्टर्स के मसल नहीं होते थे। हम इतने अनोखे थे, इसलिए लोग हमें सिर्फ़ फाइट करने के लिए बुलाते थे। इससे सिर्फ़ नेगेटिव इफेक्ट पड़ा है। पॉज़िटिव इफेक्ट तो पड़ा ही नहीं, क्योंकि हर वो इंसान जो फ़िल्म इंडस्ट्री ज्वाइन करने के लिए मुंबई आता है, वो हीरो बनने के लिए आता है। लेकिन जब कोई हीरो बनने आये और उसे फाइटर बना दें। हमारी इंडस्ट्री ने डिसाइड कर लिया था, जिनके मसल होते हैं, उनके दिमाग नहीं होता। वो एक्टर तो हो ही नहीं सकते। शुरुआत में हमारा करियर ही ख़राब कर दिया था।
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हमारी फ़िल्मों में जो मेन विलेन के रोल होते थे, वो अलग क़िस्म के लोगों को मिलते थे, जिनको एक्टर समझा जाता था। जिन लोगों की चर्बी कम होती थी। जिनके मसल्स ज़्यादा होते थे और जो एथलेटिक लगते थे, हम लोगों को उनका चमचा बनाकर फाइटर बनाया जाता था। यह हमारी फ़िल्म इंडस्ट्री का बहुत बड़ा अभिशाप है।
गुलाम में आप मुख्य विलेन बने। अपने संवाद 'घिस-घिस कर यहां पहुंचा हूं' से आप कितना रिलेट कर पाते हैं?
बहुत सच्चाई है उस डायलॉग में। जब वो डालॉग हमने बोला था, आंखों में आंसू आ गये थे। एक विलेन की आंखों में आपने आंसू देखे होंगे तो उसी डायलॉग में देखे होंगे, क्योंकि हम जहां तक पहुंचे हैं, घिस-घिसकर आये हैं। बहुत कम लोग इसका अंदाज़ा लगा सकते हैं। हम सुनते हैं कि इसने 15 साल, 20 साल स्ट्रगल किया। आपको यह पहला कैरेक्टर 'शरत सक्सेना' मिलेगा, जिसने 40 साल स्ट्रगल किया और अभी पचासवें साल पर है।
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एक्टर बनने की शुरुआत कैसे हुई?
(व्यंगात्मक लहज़े में) थोड़ा पगला गये थे। इसलिए बंबई (मुंबई) आ गये हीरो बनने। बंबई आकर पता चला कि हमारे जैसे लोगों को एक्टर का काम नहीं मिलता, फाइटर का काम मिलता है। करना तो एक ही काम था। बड़ी इच्छा थी कि कलाकार बनेंगे और इंडस्ट्री में छाएंगे। लगे रहे और आज 50 साल हो गये हैं और अब जाकर आशीर्वाद मिला है... 'शेरनी' जैसी फ़िल्म मिली।
'महाभारत' में आपने कीचक का किरदार निभाया। उसके बाद टीवी पर काम करने के बारे में नहीं सोचा?
महाभारत में भी रवि चोपड़ा ने इसलिए लिया था, क्योंकि प्रवीण कुमार (भीम) 6 फुट सात इंच के आदमी थे। उनके सामने किसी को खड़ा करना था तो हम ही मिल गये उनको। हम फ़िल्म इंडस्ट्री ज्वाइन करने आये थे, टीवी ज्वाइन करने नहीं आये थे। इसलिए नहीं किया।
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ओटीटी प्लेटफॉर्म्स को लेकर क्या सोचते हैं?
ओटीटी प्लेटफॉर्म पर यह मेरा पहला प्रोजेक्ट था और अब हमें ऐसा लगने लगा है कि हमारे जैसे लोगों को ओटीटी पर ही काम करना चाहिए, क्योंकि ओटीटी पर स्टार सिस्टम ख़त्म हो जाएगा। यहां सारे स्टार्स-सुपरस्टार्स एक लेवल पर आ जाएंगे। यह हर एक्टर के लिए यह एक 'लेवल प्लेइंग ग्राउंड' है।
आपको ऐसा लगता है कि आप जैसे कलाकारों के लिए फ़िल्म लेखक भी नये किरदार नहीं गढ़ते?
मनोज भाई ऐसा है कि अगर आपको बड़ी पिक्चर बनानी है और आप चाहते हैं कि लोग पैसे देकर पिक्चर देखने जाएं तो आपको सुपर स्टार्स को लेकर ही पिक्चर बनानी पड़ती है। जब सुपर स्टार्स को लेते हैं तो उनको दिमाग में रखकर स्क्रिप्ट लिखनी पड़ती है, लेकिन अब जो ओटीटी प्लेटफॉर्म आ गया है, यहां पर आप फ़िल्म बनाएंगे तो यह ज़रूरी नहीं रहेगा। यहां जो पिक्चर देख रहा है, वो मोबाइल, लैपटॉप या आईपैड पर पिक्चर देख रहा है। उसे घर से निकलकर थिएटर तक जाकर 500 रुपये खर्च करके पिक्चर नहीं देखनी है। इसलिए ओटीटी प्लेटफॉर्म पर जो पिक्चर आएंगी, उसमें हर आदमी सुपरस्टार के लेवल का ही होगा। मेरा मतलब है कि छोटा से छोटा एक्टर भी ख़ुद को सुपरस्टार समझ लेगा।
अमित मसुरकर की पिछली फि़ल्म न्यूटन ऑस्कर के लिए भारत की आधिकारिक प्रविष्टि चुनी गयी थी। शेरनी को लेकर आपको क्या उम्मीद है?
यह ऑस्कर के लिए जाने वाली है। मेरे दिमाग में तो बात आ चुकी है। काफ़ी और लोगों के दिमाग में आ चुकी है। मुझे लगता है कि ऑस्कर के लिए अगली एंट्री शेरनी होने वाली है। आप इसको लिखकर रख लीजिए, यह होने वाला है।
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विद्या बालन को आज के दौर की अभिनेत्रियों में कहां पाते हैं?
विद्या की ख़ूबी यह है कि बहुत सुलझी हुई कलाकार हैं। उनमें ईगो नाम की चीज़ नहीं है। बहुत ही साधारण ढंग से आपसे मिलती हैं। आपको इज़्ज़त देती हैं और बहुत आराम से काम करती हैं। उनके साथ काम करके टेंशन नहीं होती। अच्छा अनुभव रहा।
अब किस तरह के काम की उम्मीद कर रहे हैं?
अच्छा रोल मिलता है तो हम करते हैं। अच्छा रोल नहीं मिलता है तो हम वो पिक्चर छोड़ देते हैं। अब यह डायरेक्टर-प्रोड्यूसर पर निर्भर करता है कि हमें क्या देते हैं भविष्य में। शेरनी देखने के बाद कौन डायरेक्टर मुझे अपनी पिक्चर में लेता है, यह अभी देखना पड़ेगा। कोई अच्छा रोल देता है तो ज़रूर करेंगे।
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