50 की उम्र में पहली फिल्म
एके हंगल को पहली बार फिल्मों में अभिनय करने का अवसर मिला पचास की उम्र में 1966 में बासु भट्टाचार्य निर्देशित फिल्म तीसरी कसम में। यह फिल्म 1967 में रिलीज हुई। इसमें उनकी भूमिका हीरामन यानी राजकपूर के भाई की थी।
एके हंगल को पहली बार फिल्मों में अभिनय करने का अवसर मिला पचास की उम्र में 1966 में बासु भट्टाचार्य निर्देशित फिल्म तीसरी कसम में। यह फिल्म 1967 में रिलीज हुई। इसमें उनकी भूमिका हीरामन यानी राजकपूर के भाई की थी।
बासु भट्टाचार्य ने उन्हें नाटक में रोल करते देखा था, तो अपनी फिल्म के उस छोटे रोल के लिए उन्हें चुन लिया, लेकिन इस फिल्म के बनने में देरी हुई। इससे पहले उनकी दूसरी साइन की हुई फिल्म शागिर्द रिलीज हो गई। सुबोध मुखर्जी निर्देशित इस फिल्म में उनकी भूमिका सायरा बानो के पिता की थी। बासु भट्टाचार्य ने हंगल को अपनी अगली फिल्म भूमिका में भी एक रोल दिया। फिर उन्होंने कई फिल्मों, मसलन सात हिंदुस्तानी, धरती कहे पुकार के और सारा आकाश में काम किया। उन्हें छठी फिल्म मिली गुड्डी, जिसके निर्देशक थे ऋषिकेश मुखर्जी। इस फिल्म में उनकी भूमिका गुड्डी यानी जया भादुड़ी (बच्चन) के पिता की थी। शूटिंग के समय जब उनका शॉट खत्म हुआ, तो उनके स्वाभाविक अभिनय से प्रभावित होकर ऋषिदा ने कहा, सिनेमा सही मायने में निर्देशक का माध्यम होता है, लेकिन ऐसा लगता है कि अब आपने इसकी बागडोर थाम ली है। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आप स्टेज के पहले ऐसे कलाकार हैं, जिसे कैमरे का कोई कॉम्प्लेक्स नहीं है।
ए के हंगल मल्टी टैलेंटेड थे, यह बात उन्होंने अपने अभिनय के जरिये पूरे करियर में साबित किया, लेकिन वे इस बात को लेकर दुखी हुए कि यहां यानी इंडस्ट्री में टाइप कास्ट की परंपरा है। वे पहले भी इस बात को कहते थे, मैंने जब गुड्डी में पिता का रोल किया, तो जो भी लोग उस वक्त मेरे पास आए, सभी की भूमिका वैसी ही थी। मैंने कुछ फिल्में कीं भी, क्योंकि कुछ तो करना ही था। घर कैसे चलता..? यही हाल हुआ शोले की रिलीज के बाद। लोगों ने मुझे मुस्लिम किरदार खूब दिए। यहां भी मैंने चुनकर कुछ फिल्मों में काम किया। मास्टर जी और प्रिंसिपल के रोल भी मैंने खूब किए। यह सब टाइप कास्ट का ही परिणाम था, लेकिन मुझे इस बात से अब कोई दुख नहीं है। आज मुझे लोग उन्हीं किरदारों से जानते हैं, मेरे लिए यही बड़ी बात है।
आज लोग भूमिका ऐसी लिखवाते हैं कि उनकी पहचान लोगों में बन जाए। सच तो यही है कि हंगल साहब उन कलाकारों में से थे, जो भूमिका से नहीं पहचाने जाते, भूमिका उनसे पहचानी जाती है।
रतन
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