Shiv Shastri Balboa Review: ख्वाहिशों को पूरा करने की कहानी में रॉकी की फिलॉसफी, धीमी है फिल्म की रफ्तार
Shiv Shastri Balboa Review अनुपम खेर एक बेहतरीन अभिनेता हैं और किसी भी किरदार को शिद्दत से जीते हैं। ऐसे में शिव शास्त्री बल्बोआ के रोल में उन्हें देखना सुखद है। वो फिल्म को अपने कंधों पर लेकर चलते हैं।
प्रियंका सिंह, मुंबई। एक उम्र पार करने के बाद जिंदगी खत्म नहीं होती है, बल्कि एक नई इनिंग की शुरुआत होती है। इस जज्बे पर कई फिल्में पिछले दिनों रिलीज हुई हैं। अब निर्देशक अजयन वेणुगोपालन इस विषय के आसपास अपनी पहली हिंदी फिल्म शिव शास्त्री बाल्बोआ लेकर आए हैं।
कहानी शुरू होती है मध्य प्रदेश के रहने वाले शिव शंकर शास्त्री (अनुपम खेर) से, जो साल 1976 में रिलीज हुई अभिनेता सिल्वेस्टर स्टेलॉन की फिल्म रॉकी से बहुत प्रभावित हैं। उन्होंने रॉकी बाक्सिंग क्लब की स्थापना भी की है, जहां से कई बाक्सर आगे निकले हैं। शिव बैंक से रिटायर हो चुके हैं और अपने बेटे राहुल (जुगल हंसराज) के परिवार के साथ रहने के लिए अमेरिका चले जाते हैं।
अमेरिका जाने से पहले शिव ने एक न्यूज चैनल को इंटरव्यू दिया है। एंकर उनसे कहते हैं कि इस इंटरव्यू की शुरुआत में वह शिव का एक वीडियो लगाना चाहते हैं, जो उन्हें राकी स्टेप्स पर शूट करना है। रॉकी स्टेप्स अमेरिका के फिलेडेल्फिया में है।
अमेरिका पहुंचने के बाद अपने पोते को स्कूल छोड़ने के दौरान शिव की मुलाकात एल्सा (नीना गुप्ता) से होती है। हैदराबाद की रहने वाली एल्सा एक इंडो-अमेरिकन परिवार में घरेलू सहायक है। वह उसे भारत जाने नहीं देते हैं। एक दिन उसे अपना पासपोर्ट मिल जाता है। वह अपनी पोती के 13वें जन्मदिन के लिए भारत जाना चाहती है। शिव इसमें उसकी मदद करते हैं, क्योंकि उन्हें भी फिलेडेल्फिया जाना है।
इस सफर में दोनों की मुलाकात सिनेमन सिंह (शारिब हाशमी) और सिया (नरगिस फाखरी) से होती है। क्या शिव और एल्सा अपनी ख्वाहिशों को पूरा कर पाएंगे कहानी इस पर आगे बढ़ती है।
अजयन की इस फिल्म की खास बात यह है कि रॉकी का फैन होने के बावजूद यह फिल्म बॉक्सिंग पर नहीं, बल्कि रॉकी की फिलॉसफी पर है, जो हार के बाद फिर से उठकर खड़े होने की हिम्मत देती है। शिव का रॉकी से क्या कनेक्शन है, उसकी वजहें भी अजयन ने स्पष्ट की हैं।
कहानी में विदेश में रह रहे भारतीयों का अकेलापन, रंगभेद का शिकार, विदेश जाने पर सांस्कृतिक झटका, भारतीय घरेलू सहायकों की स्थिति, एक उम्र पार कर जाने के बाद समाज के बनाए नियमों के मुताबिक जीवन जीने का दबाव जैसे कई मुद्दों को छूते हुए आगे बढ़ती है।
शिव और उनके कुत्ते कैस्पर की बॉन्डिग भी प्यारी है, जिसमें वह कुत्ता क्या सोच रहा है, उसे स्क्रीन पर लिखकर दिखाया जाता है। हालांकि, फिल्म में कई खामियां भी हैं, जैसे फिल्म की गति बहुत धीमी है। सिनेमन सिंह और सिया के प्रेम-प्रसंग वाले एंगल की जरुरत महसूस नहीं होती। पंजाबी गायक बनने की ख्वाहिश रखने वाले सिनेमन को कूल दिखाने के लिए उसके बालों के रंग को नीला रखा गया है, लेकिन मेकअप टीम ने ध्यान नहीं दिया कि वह नीला रंग उनके माथे तक लगा हुआ है।
फिल्म कई संवाद जैसे नौकरी से रिटायर हुआ हूं, जिंदगी से नहीं... रिटायरिंग क्या है? री टायरिंग, जिंदगी की गाड़ी के टायरे को फिर से बदलना और नई जर्नी की तरफ निकला जाना... यह दर्शाते हैं कि घरेलू जिम्मेदारियों से मुक्त होने के बाद अपनी ख्वाहिशों को पूरा करना भी बहुत मायने रखता है।
अनुपम खेर अभिनय में माहिर हैं। फिल्म की जिम्मेदारी वह बखूबी अपने कंधों पर लेकर चलते हैं। उम्र से जुड़ी बीमारी के साथ, अंदर राकी की फिलॉसफी लिए, वह उम्र की सीमा को तोड़ते हैं। इसमें उनका साथ नीना गुप्ता देती हैं। विदेश में कम पैसों में काम कर रही घरेलू सहायक के दर्द और घर लौटने की चाह को वह महसूस करवाती हैं। लंबे समय बाद जुगल हंसराज को पर्दे पर देखना दिलचस्प है।
वह एक सुलझे हुए बेटे की भूमिका में जंचते हैं। शारिब हाशमी अपनी कामिक टाइमिंग से हंसाते हैं। नरगिस के पात्र पर खास मेहनत नहीं की गई है, ऐसे में वह सीमित दायरे में रहकर काम करने का प्रयास करती हैं।
मुख्य कलाकार: अनुपम खेर, नीना गुप्ता, शारिब हाशमी, नरगिस फाखरी, जुगल हंसराज
निर्देशक: अजयन वेणुगोपालन
अवधि: 132 मिनट
रेटिंग: तीन