Move to Jagran APP

Movie Review: बदले और आवेश की गाथा है 'शादी में ज़रूर आना', जानें मिले कितने स्टार

फ़िल्म और बेहतर हो सकती थी, अगर दिलचस्प मोड़ की तादाद और मजबूत तर्कों की तादाद ज्यादा रहती।

By Hirendra JEdited By: Published: Fri, 10 Nov 2017 10:28 AM (IST)Updated: Fri, 10 Nov 2017 10:38 AM (IST)
Movie Review: बदले और आवेश की गाथा है 'शादी में ज़रूर आना', जानें मिले कितने स्टार
Movie Review: बदले और आवेश की गाथा है 'शादी में ज़रूर आना', जानें मिले कितने स्टार

- अमित कर्ण

loksabha election banner

मुख्य कलाकार: राजकुमार राव, कृति खरबंदा, अलका अमीन, मनोज पाहवा, गोविंद नामदेव आदि।

निर्देशक: रत्ना सिन्हा

निर्माता: सौंदर्य प्रोडक्शन

कानपुर, इलाहाबाद और बनारस जैसे शहरों में आज भी युवक-युवतियों को कैरियर और ज़िंदगी से जुड़े फैसले लेने की अनन्य आजादी नहीं है। परिजनों के अपने तर्क और मूल्यों के हवाले हैं। युवाओं को वे दकियानूसी प्रतीत होते हैं। वे उनसे स्वाधीनता चाहते हैं, मगर कुछ परिवारों में वैसा नहीं हो पाता। नतीजतन अहम अवसरों पर कुछ न सूझता देख वे ऐसे कदम उठा जाते हैं, जो निजी रिश्तों को तनाव, जुनून, बदले और पछतावों के भावों से पाट देते हैं।

इलाहाबाद में राज्य लोक सेवा की तैयारी कर रही आरती शुक्ला और वहीं सरकारी क्लर्क सत्येंद्र मिश्रा ऊर्फ सत्तु की अरेंज मैरेज होनी है। आरती हुनरमंद है, लेकिन पिता के दकियानूसी सोच के आगे समर्पण करती रहती है। असल में उसे ज़िंदगी असीम ऊंचाइयां हासिल करनी है।

श्रवण कुमार सा मां-पिता भक्तं सत्तुल अपनी कर्ल्क की नौकरी से खुश है। बहरहाल, शादी से पहले वे एक-दूसरे से मिलते हैं। पसंद भी आ जाते हैं। आरती के पिता दहेज की मोटी रकम तक सत्तु के पिता को दे देते हैं। लेकिन शादी की रात आरती कैरियर की प्राथमिकता को ध्यान में रख वैवाहिक बंधन में तब न बंधने का फैसला करती है, पर वह सत्तु को उपयुक्त भरोसे में नहीं ले पाती। 

सब कुछ बिखर जाता है। सत्तु के पिता और मामा के साथ बदसलूकी भी होती है। इससे सत्तू टूट जाता है। आरती से उसकी बेपनाह मुहब्बत बेइंतहा नफरत में तब्दील हो जाती है। कहानी पांच साल आगे बढ़ती है। आरती राज्य लोक सेवा में चयनित हो अफसर बन चुकी है और सत्तू हाड़-तोड़ मेहनत कर केंद्रीय लोक सेवा में चयनित हो कर लखनऊ का डीएम।

बदले की आग में जल रहा सत्तू आरती को विभागीय भ्रष्टालचार के मामले में कसूरवार साबित करने में लग जाता है। आगे घटनाक्रम क्या मोड़ लेते हैं, फ़िल्म उस बारे में है। निर्देशक रत्ना सिन्हा ने कथाभूमि में रहने वाले युवाओं के पास उपलब्ध कैरियर विकल्पों को गहनता से पेश किया है।

युवकों के अहम और परम आजादी की ख्वाहिशमंद युवतियों की तड़प भी शालीन सी लगती है। कमी है आरती और सत्तू दोनों के कार्य-कारणों के ठोस वजहों की। उनमें मेलोड्रामा कुछ ज्यादा घुल गया है। साथ ही दो घंटे 17 मिनट लंबी फ़िल्म  सिर्फ एक टिवस्ट और टर्न के सहारे पूरी होती है। वह पटकथा की कमियों की ओर इंगित करती है। लेखक कमल पांडे आरती को जायज और मजबूत वजहों से लैस नहीं कर पाए हैं। सत्तू के बदले और आवेश अंतहीन गाथा बन सी गई है।

इन सब के चलते दहेज और लैंगिक असमानता के मुद्दे पर सीधे चोट करने के बावजूद फ़िल्म संपूर्णता में असर नहीं छोड़ पाती है। दूसरे हिस्से में लगता है कि किसी सास-बहू शो की रसोई राजनीति चल रही है। संवाद और भावुक करने वाले पल यदा-कदा टुकड़ों में ठीक से लगते हैं। लेखन के इस बर्ताव के चलते राजकुमार राव, कृति खरबंदा और अन्य प्रतिभाशाली कलाकारों की मौजूदगी से भी फ़िल्म असरदार नहीं बन पड़ी है।

राजकुमार राव पिछली फ़िल्मों की भांति यहां भी अपने किरदार में अनुशासित भाव से रमे और जंचे हैं। आरती शुक्ला बनीं कृति खरबंदा मोहक लगी हैं। उनकी स्क्रीन मौजूदगी अच्छी है। सत्तू के पिता की भूमिका में केके रैना ठीक लगे हैं। उसके मामा के काइंयापन को विपिन शर्मा और मां की मर्दवादी सोच को अलका अमीन ने यथोचित सत्कार दिया है। आरती के पिता के परंपरावादी अवतार को गोविंद नामदेव लाउड नहीं हुए हैं। मां के किरदार में नवनी परिहार जंची हैं। आरती के मामा मनोज पाहवा अलग अंदाज में दिखे हैं। गौरव द्विवेद्वी का फ़िल्म में कैमियो है।

फ़िल्म और बेहतर हो सकती थी, अगर दिलचस्प मोड़ की तादाद और मजबूत तर्कों की तादाद ज्यादा रहती। हां, गीत-संगीत अच्छे बन पड़े हैं।

जागरण रेटिंग: 5 में से 2.5 (ढाई) स्टार

अवधि: 2 घंटे 17 मिनट


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.