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    मूवी रिव्यू-एक थी डायन

    यह किस्सा है। यह खौफ है। यह विभ्रम है। यह हॉरर फिल्म है। यह सब का मिश्रण है। क्या है 'एक थी डायन' एकता कपूर और विशाल भारद्वाज की प्रस्तुति एक थी डायन के निर्देशक कन्नन अय्यर हैं। इसे लिखा है मुकुल शर्मा और विशाल भारद्वाज ने। उन्होंने भारतीय समाज में प्रचलित डायन कथा को नया आयाम दिया है। मुख्यधारा के

    By Edited By: Updated: Fri, 19 Apr 2013 02:28 PM (IST)

    मुंबई। यह किस्सा है। यह खौफ है। यह विभ्रम है। यह हॉरर फिल्म है। यह सब का मिश्रण है। क्या है 'एक थी डायन' एकता कपूर और विशाल भारद्वाज की प्रस्तुति एक थी डायन के निर्देशक कन्नन अय्यर हैं। इसे लिखा है मुकुल शर्मा और विशाल भारद्वाज ने। उन्होंने भारतीय समाज में प्रचलित डायन कथा को नया आयाम दिया है। मुख्यधारा के चर्चित कलाकारों को प्रमुख भूमिकाएं सौंप कर उन्होंने दर्शकों को भरोसा तो दे ही दिया है कि यह हिंदी में बनी आम हॉरर फिल्म नहीं है। हां,इसमें इमरान हाशमी हैं। उनके साथ कोंकणा सेन शर्मा,कल्कि कोइचलिन और हुमा कुरेशी भी हैं।

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    संयोग ऐसा हुआ कि इस फिल्म का क्लाइमेक्स मैंने पहले देख लिया और फिर पूरी फिल्म देखी। इसके बावजूद फिल्म में रुचि बनी रही और मैं उस क्षण की प्रतीक्षा करता रहा जहां फिल्म चौंकाती है। अप्रत्याशित घटनाएं हमेशा रोचक और रोमांचक होती हैं। फिल्म जादू“र बोबो इमरान हाशमी के मैजिक शो से आरंभ होती है। बोबो को मतिभ्रम होता है कि उसे कोई अनदेखी शक्ति तंग कर रही है। तार्किक जादूगर अपने मनोवैज्ञानिक मित्र की मदद लेता है। प्निोसिस के जरिए अपने अतीत में पहुंचने पर उसे पता चलता है कि बचपन की स्मृतियां नए सिरे से उसे उलझा रही हैं। मनोचिकित्सक उसकी बाल स्मृतियों को मानसिक ग्रंथि बतलाता है। हमें पता चलता है कि बचपन में डायन कथाएं पढ़ते-पढ़ते बोबो डायन में यकीन करने लगी है। अपने पिता की जिंदगी में आई औरत को वह डायन ही समझता है,जबकि मनोवैज्ञानिक की राय में सौतेली मां को स्वीकार नहीं कर पाने की वजह से उसने ऐसी कहानी अनजाने में रची हो“ी। 'एक थी डायन' की यहां तक की कहानी रोचक और विश्वसनीय लगती है। एहसास होता है कि कन्नन अय्यर हमें हॉरर फिल्मों की नई दुनिया में ले जा रहे हैं। इंटरवल के कुछ बाद तक फिल्म बांधे रखती है।

    समस्या इस फिल्म के क्लाइमेक्स में है। जिस सहजता से फिल्म मुंबई के आधुनिक परिवेश में डायन की कथा बुनती है,उसी सहजता के साथ वह अंत तक नहीं पहुंचती। फिल्म अचानक टर्न लेती है और अपने तर्को को ही दरकिनार कर हिंदी फिल्मों के प्रचलित फार्मूले का अनुसरण करती है। इसके बाद फिल्म साधारण हो जाती है। क्या हो सकता था या क्या होना चाहिए था जैसी बातें समीक्षा के दायरे में नहीं आतीं। फिर भी शिकायत रह जाती है,क्यों कि फिल्म अपनी ही कथा का उल्लंघन करती है। इंटरवल से पहले दिए भरोसे को तोड़ देती है।

    कलाकारों में हुमा कुरेशी सबसे ज्यादा प्रभावित करती हैं। उन्होंने दृश्यों के अनुसार भावों को जिम्मेदारी से निभाया है। कोंकणा सेन शर्मा तो हैं ही कुशल अभिनेत्री। उन्होंने साबित किया है कि किसी भी तरह की भूमिका में कौशल का इस्तेमाल किया जा सकता है। कल्कि कोइचलिन की भूमिका ढोटी और अस्पष्ट है। उन्हें कुछ पल मिले हैं। इमरान हाशमी अवश्य अलग अंदाज में दिखे। अपनी अन्य फिल्मों से अलग उनमें ठहराव दिखा। उनके प्रशंसकों का बता दें कि उनके किसिंग सीन हैं। फिल्म को विशेष तिवारी,सारा अर्जुन और भावेश बालचंदानी बाल कलाकारों से भरपूर मदद मिली है।

    विशाल भारद्वाज और गुलजार की जोड़ी का गीत-संगीत है। उनकी संगत का जादू फिल्म में गूंजता है।

    अवधि-135 मिनट

    *** तीन स्टार

    -अजय ब्रह्मात्मज

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