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Kaagaz Review: सिस्टम की बैंड बजाकर ज़िंदा हुए एक जुनूनी शख्स की कहानी में पंकज त्रिपाठी ने फूंकी जान

Kaagaz Review आंखों के सामने खड़े हाड़-मांस के आदमी का पूरा वजूद सिर्फ़ एक कागज़ पर टिका हो। कागज़ नहीं तो आदमी नहीं। जब सिस्टम एक सीधे-सादे आदमी की ज़िंदगी को मज़ाक बना दे तो वो अपने हक़ के लिए कितनी दूर तक जा सकता है?

By Manoj VashisthEdited By: Published: Thu, 07 Jan 2021 10:00 AM (IST)Updated: Sat, 09 Jan 2021 08:56 AM (IST)
Kaagaz Review: सिस्टम की बैंड बजाकर ज़िंदा हुए एक जुनूनी शख्स की कहानी में पंकज त्रिपाठी ने फूंकी जान
कागज़ ज़ी5 पर रिलीज़ हो गयी है। फोटो- इंस्टाग्राम

मनोज वशिष्ठ, नई दिल्ली। कागज़ वैसे तो बेजान है, मगर किसी के लिए जान से ज़्यादा कीमती हो सकता है। ख़ासकर तब, जबकि उसके ज़िंदा होने का सबूत ही कागज़ हो। आंखों के सामने खड़े हाड़-मांस के आदमी का पूरा वजूद सिर्फ़ एक कागज़ पर टिका हो। कागज़ नहीं तो आदमी नहीं। जब सिस्टम एक सीधे-सादे आदमी की ज़िंदगी को मज़ाक बना दे, तो वो अपने हक़ के लिए कितनी दूर तक जा सकता है? 

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ज़ी5 पर 7 जनवरी को रिलीज़ हुई सलमान ख़ान निर्मित और सतीश कौशिक निर्देशित कागज़ ऐसी ही एक अनोखी लड़ाई की कहानी है। असल ज़िंदगी में इस कहानी के नायक उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले में रहने वाले लाल बिहारी मृतक हैं, जबकि पर्दे पर यह 'कागज़ी' जंग भरत लाल मृतक यानी पंकज त्रिपाठी ने लड़ी है और इतनी शिद्दत से लड़ी है कि दर्शक इस लड़ाई में खो जाता है। कभी हंसता है तो कभी सोचने को मजबूर होता है और कभी भरत लाल पर तरस खाने लगता है। कागज़ हिंदी सिनेमा में व्यंग्य-प्रधान फ़िल्मों की उस परम्परा की कड़ी मानी जा सकती है, जिसका एक सिरा हिंदी सिनेमा की कल्ट फ़िल्म जाने भी दो यारों तक जाता है। इस फ़िल्म का सह-लेखन सतीश कौशिक ने ही किया था।  

कहानी कुछ यूं है- आज़मगढ़ ज़िले के अमीलो गांव में भरत लाल की बैंड-बाजे की दुकान है। पंडित की सलाह और पत्नी की ज़िद पर वो दुकान बड़ी करने के लिए बैंक में लोन के लिए आवेदन करने जाता है। बैंक वाले समझाते हैं कि लोन के लिए कुछ ज़मीन-जायदाद गिरवी रखना पड़ेगा। नज़दीक स्थित दूसरे गांव में भरत लाल की पुश्तैनी ज़मीन है, जिस पर उसके चाचा और उनका परिवार खेती-बाड़ी करता है। भरत लोन के लिए अपने हिस्से की ज़मीन को गिरवी रखने की सोचता है।

जब वो ज़मीन के बारे में पता करने तहसील ऑफ़िस में पहुंचता है तो उसके पैरों के नीचे से ही ज़मीन खिसक जाती है। भरत को पता चलता है कि उसे मरे हुए तो एक दशक बीत चुका है। जो लेखपाल बचपन में गांव के स्कूल में उसके साथ पढ़ा था, वो भी उसे ज़िंदा नहीं मानता, क्योंकि कागज़ों में लिखा है कि भरत मर चुका है। चाचा के परिवार ने लेखपाल से साठगांठ करके  उसे कागज़ों में मार डाला था। 

लोन और ज़मीन भूलकर अब भरत ख़ुद को ज़िंदा साबित करने की कोशिशों में जुट जाता है। डीएम से लेकर पीएम तक को चिट्ठी लिखता है, मगर नतीजा सिफर रहता है। उसे एहसास होता है कि इस देश में सबसे ताक़तवर लेखपाल ही है, पीएम से भी ज़्यादा। पुलिस, क़ानून, राजनीति कुछ भी भरत के काम नहीं आता। इस जुनून में 18 साल का लम्बा वक़्त बीत जाता है। बाल पक जाते हैं। पत्नी बच्चों को लेकर अपने मायके जा चुकी होती है। व्यवसाय ठप हो चुका होता है। मगर, भरत हार नहीं मानता।

लोकतंत्र की तीनों स्तम्भों से निराश होने के बाद भरत कागज़ों में मृत घोषित किये गये लोगों के साथ मृतक संघ बनाकर अपनी व्यक्तिगत लड़ाई को एक आंदोलन का रूप दे देता है, जिसमें उसकी मदद लोकतंत्र का चौथा खम्भा यानी प्रेस करती है। इसके बाद कई ऐसे घटनाक्रम आते हैं, जो दर्शक को झिंझोड़ते हैं और सोचने के लिए विवश करते हैं, क्या यह सिस्टम वाकई समाज के आख़िरी आदमी को ज़िंदा रखने के लिए बनाया गया है या मारने के लिए?

फ़िल्म की पटकथा और संवाद इम्तियाज़ हुसैन ने लिखे हैं, जिन्होंने पटकथा को नैरेटिव स्टाइल में रखा है। सतीश कौशिक के वॉइसओवर के साथ कहानी सत्तर के उस दौर में शुर होती है, जब देश इमरजेंसी से निकला ही था, राजेश खन्ना का स्टारडम पूरे उफान पर था, मोहम्मद रफ़ी के तराने हर शादी-ब्याह की सभी रस्मों के एंथम हुआ करते थे और विनाका संगीतमाला के सुर दुपहरियों को सुकून भरा बनाते थे। इन प्रतीकों का भरपूर इस्तेमाल करके उस दौर को स्थापित किया गया है।

संवाद चुटीले हैं और ह्यूमर का प्रवाह पूरी पटकथा में निरंतर बना रहता है। परिस्थिति चाहे जितनी संजीदा हो, संवादों के ज़रिए इसे हल्का-फुलका रखा गया है। सीन इस तरह लिखे गये हैं कि शुरुआत गंभीर होती है, मगर उसका अंत ह्यूमर के साथ ही होता है। दृश्यों को लिखने में कथाभूमि की भाषा, सामाजिकता और रहन-सहन का बारीकी से ध्यान रखा गया है, जिसने फ़िल्म को एक अलग ही आयाम दिया है।

कागज़ की पटकथा को इसके कलाकारों का पूरा सहयोग मिला है। भरत लाल के किरदार में पंकज त्रिपाठी पूरी तरह रम गये हैं और ग्रामीण परिवेश को ओढ़ लिया है। भरत के किरदार की सहजता, सरलता और चालाकी को  पंकज ने बेहद बारीकी से अपनाया है। यह उनकी अदाकारी का ही कमाल है कि इस किरदार की बेबसी पर आपको तरस के साथ हंसी भी आती है।

साधुराम केवट एडवोकेट के रोल में सतीश कौशिक हों या भरत की पत्नी रुक्मिणी के रोल में मोनल गज्जर या फिर विधायक अशर्फ़ी देवी के किरदार में मीता वशिष्ठ, सभी ने भरत लाल के किरदार को मजबूत किया है। अमर उपाध्याय, दबंग विधायक के किरदार में हैं। हालांकि, उनके हिस्से में ज़्यादा कुछ आया नहीं। तारीफ़ उन स्थानीय कलाकारों की भी करनी होगी, जिन्होंने फ़िल्म में छोटे-छोटे किरदार निभाये हैं। इन कलाकारों की वजह से दृश्यों के प्रभावी संयोजन में मदद मिली है।

सतीश कौशिक का निर्देशन संतुलित है। साथ में पंकज त्रिपाठी जैसा एनएसडी का जूनियर हो तो कोई भी क़िला फतेह करना मुश्किल नहीं होता। फ़िल्म में वास्तविक लोकेशंस का बेहतरीन इस्तेमाल किया गया है, जो फ़िल्म की विश्वसनीयता बढ़ाता है। क्रेडिट रोल से पहले सलमान ख़ान की आवाज़ में कागज़ पर कही गयी कविता धारदार और विचारोत्तेजक है।  कागज़ की लड़ाई देश में आज भी जारी है। ऐसे में कहानी दशकों पुरानी होते हुए भी सामयिक है। 

कलाकार- पंकज त्रिपाठी, मोनल गज्जर, मीता वशिष्ठ, सतीश कौशिक, अमर उपाध्याय आदि।

निर्देशक- सतीश कौशिक

निर्माता- सलमान ख़ान, निशांत कौशिक, विकास मालू।

वर्डिक्ट- ***1/2 (साढ़े तीन स्टार)

अवधि- 1 घंटा 49 मिनट


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