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Junglee Movie Review: हाथी के दांत दिखाने के और, खाने के और

Junglee Movie Review- विद्युत जामवाल को अब भी और मंझने की जरूरत है. हां उनका एक्शन प्रभावित करता है. फिल्म बेवजह लंबी हो गयी है.

By Manoj KhadilkarEdited By: Published: Fri, 29 Mar 2019 12:10 AM (IST)Updated: Fri, 29 Mar 2019 01:06 PM (IST)
Junglee Movie Review: हाथी के दांत दिखाने के और, खाने के और
Junglee Movie Review: हाथी के दांत दिखाने के और, खाने के और

अनुप्रिया वर्मा

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फिल्म : जंगली

कलाकार : विद्युत जामवाल, पूजा सामंत, मकरंद देशपांडे

निर्देशक :चक रसैल

निर्माता : जंगली पिक्चर्स

रेटिंग : 2 स्टार

हिंदी सिनेमा में निःसंदेह जानवरों से जुड़े विषय को लेकर कम ही फिल्में बनी हैं. और जानवरों से जुड़ी संवेदनाओं को लेकर भी कम ही कहानी बुनी गयी है. वर्ष 1971 में राजेश खन्ना की फिल्म आयी थी. हाथी मेरे साथी, जो कि उस दौर में स्लिपर हिट साबित हुई थी. इसके बाद तेरी मेहरबानियां और कुछ साल पहले अक्षय कुमार की फिल्म एंटरटेनमेंट भी आयी थी. जंगली पिक्चर्स की जंगली उस लिहाज में अगली कड़ी है.

फिल्म की कहानी हाथी के संरक्षक करने वाले ओडिशा के चंद्रिका सेंच्युरी के इर्द-गिर्द घूमती है, जहां नायर जंगल को ही अपना घर समझते हैं और वह हाथियों की रक्षा करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं. उनका बेटा राज है, जो कि वेटरनरी डॉक्टर है और वह अपने पिता से नाराज होकर कई साल पहले जंगल छोड़ कर मुंबई चला गया है. लेकिन किसी कारण से जब उसकी वापसी होती है तो वह फिर जंगल का होकर ही रह जाता है. चूंकि परिस्थितियां वैसी बनती चली जाती है. हर कहानी की तरह यहां महिला पात्र राज के पिता के साथ मिल कर हाथियों के संररक्षण में मदद करती है और उसे राज से प्यार होता है.

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इस क्रम में एक किरदार एक वीडियो जर्नलिस्ट का है, जो कि नायर पर फिल्म बनाना चाहती है. वह भी राज से जुड़ जाती है. ऐसे में ऐसी परिस्थितियां जंगल में ही व्यतीत होती हैं कि राज चाहकर भी वापस नहीं जा पाता. उसके साथ एक के बाद एक त्रासदी होती जाती है. न वह सिर्फ अपने बाबा को बल्कि अपने प्रिय हाथियों को भी खोता जाता है. हाथियों के झूंड का जो सरदार हाथी है, वह फिल्म के नायक का बचपन का दोस्त है. हाथियों के दांत के लालच में उसकी स्मगलिंग के एक शिकारी उनका शिकार करता है और फिर नायक उन सबसे बदला लेता है. एक कहावत है जो हम अमूमन खूब इस्तेमाल करते हैं. हाथियों पर ही आधारित है कि हाथी के दांत दिखाने के कुछ और होते हैं और खाने के कुछ और होते हैं. मसलन आपको जो दिखाया जा रहा है, दरअसल वह होता नहीं है.तो इस फिल्म के साथ भी निर्देशक कुछ वैसे ही हाथी के दांत दिखा रहे हैं और छल रहे हैं. फिल्म के ट्रेलर और फिल्म के प्रोमोशन में जिस तरह फिल्म के नायक विद्युत् जामवाल का अनोखा अंदाज दिखाया गया था, पूरी उम्मीद थी कि फिल्म निश्चित तौर पर एक अच्छी कहानी कहेगी. लेकिन फिल्म में वहीं पुराना ड्रामा परोसा गया है. शिकारी आता है, शिकार करता है. स्मगलिंग करता है और फिर हीरो उन सबका बदला लेता है. इस क्रम में जितने भी किरदार जुड़ते जाते हैं, सभी पूरी तरह अति अभिनय से ही ग्रसित नजर आये. फिल्म में जिस तरह की परिस्थितियां उत्पन्न की गयी हैं. वह बेहद फिल्मी है.

अगर विद्युत के कंधे पर पूरी जिम्मेदारी दी गयी तो इस बात का भी ख्याल रखा जाना चाहिए था कि फिल्म को पूर्ण रूप से एक्शन पर केंद्रित किया जाये, चूंकि विद्युत ने इसमें ही महारथ हासिल कर रखी है. लेकिन फिल्म में बेवजह का इमोशनल ड्रामा और साथ में विद्युत के एक् शन का मिश्रण ऊबाऊ है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि विद्युत की चपलता नजर आती है. लेकिन विद्युत को हमने उनकी पहले की फिल्मों में भी ऐसा ही एक्शन करते देखा है. फिल्म में जानवरों के साथ अच्छे बर्ताव के एक मैसेज के अलावा फिल्म में ऐसी कोई नयी बात नहीं हैं. फिल्म में दिखाई गये लोकेशन भी बनावटी ही नजर आते हैं.

जंगली फिल्म का जंगल काफी फिल्मी नजर आया और साथ ही मॉर्डन भी नजर आया. यह भी आश्चर्यजनक बात है कि जंगल के निर्देशक के जेहन में यह बात कहां से आयी कि जंगल के किरदारों को उन्होंने इतने मॉर्डन अंदाज में दिखाया है, जहां नायिका हर दिन न सिर्फ मॉर्डन कपड़ें बदलती है, बल्कि खूब सारा साज-श्रृंगार भी करती है. इस फिल्म में लंबे समय के बाद मकरंद देशपांडे की उपस्थिति अच्छी लगी. लेकिन उन्हें न तो अधिक संवाद न ही अधिक दृश्य दिये गये थे. पूजा सामंत और आशा भट्ट ने सामान्य अभिनय ही किया है.

विद्युत जामवाल को अब भी और मंझने की जरूरत है. हां, उनका एक्शन प्रभावित करता है. फिल्म बेवजह लंबी हो गयी है.उम्मीद थी कि यह फिल्म बच्चों को प्रभावित कर सकती है. लेकिन उसकी गुंजाईश नजर नहीं आ रही है

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