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    Jubilee Web Series Review Part 2: ओटीटी स्पेस का धूम सितारा है विक्रमादित्य की वेब सीरीज 'जुबली'

    By Manoj VashisthEdited By: Manoj Vashisth
    Updated: Sat, 15 Apr 2023 04:07 PM (IST)

    Jubilee Web Series Review Part 2 प्राइम वीडियो पर जुबली सीरीज दो किस्तों में स्ट्रीम की गयी है। पहले पांच एपिसोड्स 7 अप्रैल को रिलीज किये गये थे और अब बाकी के पांच एपिसोड स्ट्रीम कर दिये गये हैं।

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    Jubilee Web Series Review 6 to 10 Episodes Directed By Vikramaditya Motwane. Photo- Twitter

    मनोज वशिष्ठ नई दिल्ली। ''बदलते वक्त और बदलती ताकत के सामने झुकने में कोई पॉवर नहीं है। उनके प्रोपेगैंडा के हिसाब से फिल्में बनाने में कोई पॉवर नहीं। अपनी पूरी क्षमता के साथ सिनेमा के हथियार का निर्माण करना हमारी पॉवर है (Power is building this weapon of cinema with all our might)।

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    सिनेमा पब्लिक का लेवल ऊपर उठा सकता है... उन्हें पोइट्री, फोटोग्राफी, संगीत और उम्मीदें देकर... सिनेमा लोगों को सशक्त बना सकता है (By giving them a test of poetry, a photography, of music, of aspiration. Cinema can empower people)। वही सिस्टम से लड़ने वाला मदन कुमार पैदा किया मैंने।''

    प्रोपेगैंडा फिल्में बनाने के रूसी कम्पनी के प्रस्ताव के खिलाफ रॉय टॉकीज के मालिक श्रीकांत रॉय के इस एकल संवाद में 'जुबली' सीरीज का सार छिपा है।

    श्रीकांत सिनेमा को प्रोपेगैंडा का जरिया नहीं मानता। उसके लिए सिनेमा लोगों को सशक्त बनाने के माध्यम है।उसकी नजर में ताकत वही है, जब अपने हिसाब से लोगों की ख्वाहिशों के मुताबिक सिनेमा बनाने का मौका मिले। श्रीकांत के ये तेवर तब हैं, जबकि रॉय टॉकीज बर्बादी की कगार पर पहुंच चुका है।

    वक्त से आगे चलते रहने के आदी श्रीकांत को ऐसा कोई समझौता मंजूर ना था, जो उसके सिनेमा को गिरवी रख दे। भले ही उसका स्टूडियो कर्ज में डूबा रहे। 

    दिलचस्प पहलू यह है कि सिनेमाई सोच से इतर श्रीकांत रॉय का किरदार आदर्श नहीं है। उसमें कई दोष हैं। कॉटन की सट्टेबाजी से पैसा जमा करके फिल्मों में लगाना चाहता है। अपने फायदे के लिए वो मदन कुमार के उस रहस्य को छिपाकर रखता है, जो उसे जेल पहुंचा सकता है। अपने ईगो के लिए वो पूरी फिल्म बर्बाद करके फ्लॉप का नुकसान उठा सकता है।

    मगर, तमाम नकारात्मकताओं के बावजूद श्रीकांत फिल्ममेकिंग के लिए समर्पित और सिनेमा के भविष्य के लिए उत्साहित वाला फिल्मकार है। 'जुबली' सीरीज सिनेमा के ऐसे ही तमाम दोषयुक्त किरदारों का लगभग दोषमुक्त चित्रण है। 

    Jubilee के अंतिम पांच एपिसोड्स की कहानी 

    'जुबली' के आखिरी पांच एपिसोड्स की कहानी मुख्य रूप से जय खन्ना के बतौर एक्टर-फिल्ममेकर ऊपर चढ़ने, जमशेद खान की मौत को लेकर मदन कुमार के अपराधबोध से जूझने, रॉय टॉकीज के पतन, सुमित्रा कुमारी की बगावत, बॉम्बे फिल्म इंडस्ट्री में प्रभुत्व को लेकर अमेरिकी और रूसी कम्पनियों के बीच साजिशों और नीलूफर कुरैशी की ख्वाहिशों के बिखरने को दिखाती है।

    Jubilee की पटकथा और संवाद 

    सीरीज के लेखक अतुल सभरवाल ने 10 एपिसोड्स में उस दौर की फिल्म इंडस्ट्री को लेकर इतना कुछ समेट दिया है कि सीरीज का एक भी दृश्य फिजूल नहीं लगता। एक-एक घंटे के 10 एपिसोड्स होने के बावजूद गति बनी रहती है। आखिरी के पांच एपिसोड्स जुबली की जान हैं। यह स्क्रीनप्ले की खासियत है कि हर दृश्य जरूरी लगता है और सीरीज के सभी मुख्य पात्रों की जर्नी को विस्तार मिलता है।

    1947 से 1953 के बीच सफर करती कहानी की पटकथा में उस दौर के संदर्भों का जमकर इस्तेमाल किया गया है, जिससे दर्शक को कहानी और किरदारों से जुड़ने में वक्त नहीं लगता। जय खन्ना और मदन कुमार की फिल्मों के शीर्षक उस दौर की कामयाब फिल्मों से प्रेरित हैं। पहली फिल्म 'टैक्सी ड्राइवर' की सफलता के बाद जय अपनी दूसरी फिल्म 'बैजू आवारा' बनाना है, जो 'बैजू बावरा' की तर्ज पर रखा गया है।

    भारतीय सिनेमा की आइकॉनिक फिल्म 'मुगले आजम' की मेकिंग को लेकर प्रचलित कि इस फिल्म को बनने में कई साल लगे थे और इसका इस्तेमाल इंडस्ट्री में कहावत की तरह किया जाता है। 'जुबली' के संवादों में 'मुगले आजम' का संदर्भ उलाहना और सिनेमाई उत्कृष्टता, दोनों तरह से दिया गया है, जब एक ताने के जवाब में श्रीकांत रॉय कहता है कि मैंने 'मुगले आजम' का एक फ्रेम देखा है, यह फिल्म भारतीय सिनेमा का इतिहास बदल देगी।

    लेखन में ऐसे कई संदर्भ सिनेमा से नजदीकी रखने वालों को प्रभावित करते हैं। जमशेद खान की मौत का अपराधबोध जब मदन कुमार को सोने नहीं देता तो मनोचिकित्सक छुट्टी पर जाने की सलाह देता है। भारतीय सिनेमा के थेस्पियन कहे जाने वाले दिलीप कुमार के करियर में भी ऐसा दौर आया था, जब निरंतर ट्रैजिक किरदार निभाने का असर उनकी सेहत पर पड़ने लगा, जिसके बाद चिकित्सकों ने उन्हें ऐसे किरदारों से ब्रेक लेने की नसीहत दी थी। 

    'जुबली' की कहानी इसके पात्रों के मानवीय पहलुओं के अलावा उस दौर में सिनेमा के तकनीकी विकास की यात्रा को भी पेश करती है। सिनेमास्कोप तकनीक को भारतीय फिल्मों में लाने के लिए उत्साहित श्रीकांत रॉय के किरदार में भारतीय सिनेमा के जीनियस गुरुदत्त का अक्स नजर आता है। कुछ दृश्यों बाद श्रीकांत जिस अंदाज में दुनिया को अलविदा कहता है, वो भी गुरुदत्त की याद दिलाता है। भारतीय सिनेमा की पहली सिनेमास्कोप फिल्म 'कागज के फूल' बनाने का श्रेय गुरुदत्त को ही जाता है।    

    रियल लाइफ के ऐसे संदर्भों के साथ कहानी अपने रोमांच बरकरार रखती है और दसवें एपिसोड में अदालत तक पहुंचती है, जब सुमित्रा कुमारी, फोटोग्राफ्स के आधार पर मदन कुमार को जमशेद खान के कत्ल के आरोप में गिरफ्तार करवाती है। मुकदमा चलता है और अब मदन की किस्मत जय खन्ना के हाथों में है।

    कैसा है कलाकारों का अभिनय?

    'जुबली' के आखिरी पांच एपिसोड्स में श्रीकांत रॉय की हनक को पर्दे पर उतारने में प्रोसेनजित चटर्जी ने कमाल कर दिया है। इस किरदार की मौजूदगी को महसूस किया जा सकता है। खासकर उस दृश्य में जब एक साजिश के बाद रॉय टॉकीज पर आयकर विभाग का छापा पड़ता है और मदन कुमार श्रीकांत को गिरफ्तार होने से बचाता है। इस दृश्य में श्रीकांत की भावाभिव्यक्ति देखने लायक है।

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    जमशेद खान के प्यार में डूबी सुमित्रा कुमारी को जब पता चलता है कि वो नहीं रहा तो इस दृश्य में अदिति राव हैदरी की ठहरी हुई अदाकारी असर छोड़ती है। बेतकल्लुफ, जज्बाती और आवेश में रहने वाले जय खन्ना के किरदार में सिद्धांत गुप्ता को देखना सुकूनभरा है। इस किरदार के लिए सिद्धांत ने जो शारीरिक भाषा पकड़ी है और जिस तरह के हावभाव रहे हैं, वो दिलचस्प है।

    सीरीज के दूसरे हाफ में बिनोद दास यानी मदन कुमार के किरदार की जटिलता बढ़ती है, जिसे अपारशक्ति खुराना ने पूरी ईमानदारी और कामयाबी के साथ पेश किया है। अपने अतीत से जूझते हुए स्टारडम समेटने की कोशिश करते मदन कुमार को निभाने में अपार ने पूरी शक्ति लगा दी। दरिया चा राजा गाने के दौरान आंखों में दर्द और चेहरे पर चाहने वालों की मुस्कान लिए मदन कुमार, अपारशक्ति के अभिनय की शानदार परिणीति है।

    तवायफ से हीरोइन बनी नीलूफर कुरैशी के किरदार की चंचलता, दुख, आकांक्षाओं और धोखे को वामिका गब्बी अपने अभिनय से महसूस करवाती हैं। अन्य कलाकारों में राम कपूर वालिया के किरदार में प्रभावित करते हैं।

    कैसा है गीत, संगीत और तकनीकी पक्ष?

    कौसर मुनीर के गीतों पर अमित त्रिवेदी का संगीत और आलोकानंद दासगुप्ता का पार्श्व संगीत 'जुबली' की कहानी के असर को गहरा करता है।

    'कागज के फूल' के ट्रैजिक गीत 'छूटे सभी बारी-बारी' की तर्ज पर क्लाइमैक्स का गाना 'सारे के सारे अकेले' कचोटता है। इस गाने के पर दृश्यों के संयोजन के लिए निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाने और सौमिक सेन की तारीफ की जानी चाहिए। घर से भागने के बाद दरबदर हुआ रेलवे ब्रिज पर बैठा नरेन गाना शुरू करता है, बैकग्राउंड में बजते गाने के साथ दृश्य बदलते रहते हैं, जिनमें टूटने, बिखरने और जुदाई के मंजर नजर आते हैं।

    किसी जमाने में कामयाबी के शोर से आबाद रहने वाले रॉय टॉकीज को अंतिम दृश्यों में जिस दुर्दशा में दिखाया जाता है, वो बेहद मार्मिक है।

    कॉस्ट्यूम, मेकअप, लाइटिंग, सेट डिजाइनिंग, एडिटिंग, हर विभाग का योगदान एक-एक दृश्य में नजर आता है। भारतीय सिनेमा के 1947 से 1953 के दौर को दिखाती 'जुबली' ओटीटी स्पेस में मौजूद सबसे सशक्त पीरियड सीरीजों में शामिल मानी जा सकती है, जो अपने कथ्य को पूरी संजीदगी और ईमानदारी से दिखाती है। 

    कलाकार- प्रोसेनजित रॉय, अपारशक्ति खुराना, जय खन्ना, अदिति राव हैदरी, वामिका गब्बी, राम कपूर, अरुण गोविल आदि।

    निर्देशक- विक्रमादित्य मोटवाने

    प्लेटफॉर्म- प्राइम वीडियो

    अवधि- लगभग एक घंटे के 5 एपिसोड्स

    रेटिंग- ****