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Durgamati Movie Review: ना डराती है, ना रोमांचित करती है भूमि पेडनेकर की दुर्गामती, साउथ का एक और कमज़ोर रीमेक

Durgamati Movie Review दुर्गामती की कहानी अरशद वारसी के किरदार ईश्वर प्रसाद से शुरू होती है। ईश्वर प्रसाद एक साफ़-सुथरी छवि वाला बेहद ईमानदार नेता और जल संसाधन मंत्री है। ईश्वर प्रसाद के इलाक़े में मंदिरों से पुरानी मूर्तियां लगातार चोरी हो रही हैं जिससे लोग नाराज़ हैं।

By Manoj VashisthEdited By: Published: Fri, 11 Dec 2020 12:33 PM (IST)Updated: Fri, 11 Dec 2020 08:55 PM (IST)
Durgamati Movie Review: ना डराती है, ना रोमांचित करती है भूमि पेडनेकर की दुर्गामती, साउथ का एक और कमज़ोर रीमेक
दुर्गामती, तेलुगु-तमिल फ़िल्म भागमती का रीमेक है। फोटो- ट्विटर

नई दिल्ली, मनोज वशिष्ठ। राजनीतिक भ्रष्टाचार और पद के दुरुपयोग पर हिंदी सिनेमा में अनगिनत फ़िल्में आयी हैं। नेता अपनी सत्ता और सियासत को बचाने के लिए किस तरह सरकारी तंत्र का ग़लत इस्तेमाल करते हैं, यह भी हिंदी सिनेमा के दर्शक सैकड़ों दफ़ा पर्दे पर देख चुके हैं। शुक्रवार को अमेज़न प्राइम पर रिलीज़ हुई भूमि पेडनेकर की दुर्गामती इसी परम्परा की एक बेहद कमज़ोर कड़ी है, जिसका ट्रीटमेंट हॉरर-थ्रिलर की तरह रखा गया। हालांकि, दुर्गामती दोनों ही मोर्चों पर विफल रहती है।

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दुर्गामती, तेलुगु-तमिल फ़िल्म भागमती का रीमेक है, जिसका निर्देशन जी अशोक ने किया, जिन्होंने ओरिजिनल फ़िल्म की बागडोर संभाली थी। दुर्गामती के सह निर्माताओं में अक्षय कुमार भी शामिल हैं, जो ख़ुद तमिल फ़िल्म कंचना 2 के रीमेक लक्ष्मी में लीड रोल निभा चुके हैं। दुर्गामती देखने के बाद एक सवाल ज़हन में कौंधता है, दक्षिण भारत में हिट फ़िल्म बनाने के बाद उन्हीं निर्दशकों को हिंदी में फ़िल्म बनाते वक़्त आख़िर क्या हो जाता है कि वो करिश्मा ग़ायब रहता है? जिन लोगों ने भागमती देखी है, वो इस सवाल को अधिक समझ पाएंगे।

दुर्गामती की कहानी अरशद वारसी के किरदार ईश्वर प्रसाद से शुरू होती है। ईश्वर प्रसाद एक साफ़-सुथरी छवि वाला बेहद ईमानदार नेता और जल संसाधन मंत्री है। ईश्वर प्रसाद के इलाक़े में मंदिरों से पुरानी मूर्तियां लगातार चोरी हो रही हैं, जिससे लोग नाराज़ हैं। एक सभा में ईश्वर प्रसाद वादा करता है कि अगर 15 दिनों के अंदर मूर्तियां बरामद नहीं हुईं तो वो राजनीति से संन्यास ले लेगा और अपने एक विश्वासपात्र को अपना उत्तराधिकारी भी घोषित कर देता है।

ईश्वर प्रसाद के इस एलान से सरकार में खलबली मच जाती है। ईश्वर प्रसाद जनता की नज़रों में हीरो ना बन सके, इसके लिए उसे भ्रष्टाचारी साबित करने की साजिश रची जाती है। इसके लिए सीबीआई अधिकारी शताक्षी गांगुली (माही गिल) को काम पर लगाया जाता है। ईश्वर प्रसाद के बारे में अधिक जानकारी हासिल करने के लिए आईएएस ऑफ़िसर चंचल चौहान से पूछताछ करने की योजना बनायी जाती है, जो दस साल तक ईश्वर प्रसाद की निजी सचिव रह चुकी है।

चंचल अपने मंगेतर शक्ति सिंह (करण कपाड़िया) के क़त्ल के इल्ज़ाम में जेल में बंद है। शक्ति, एसीपी अभय सिंह (जिशु सेनगुप्ता) का छोटा भाई था, जो स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी से एमबीए करने के बाद विदेश में अच्छी नौकरी कर रहा था, मगर समाज सेवा के लिए सब छोड़कर इस गांव में लौट आता है। गांव वाले उसका बहुत सम्मान करते हैं और उसकी एक आवाज़ पर कुछ भी करने को तैयार रहते हैं।

चंचल के इंटेरोगेशन को गुप्त रखने के लिए उसे जेल से जंगल के बीचोंबीच बने एक वीरान महल में शिफ्ट किया जाता है, जिसकी ज़िम्मेदारी एसीपी अभय सिंह को ही मिलती है। इस महल में शिफ्ट करने की वजह यह है कि गांव वाले इस महल को भूतिया मानते हैं और इसके आसपास जाने से भी डरते हैं। महल में रहने के दौरान चंचल को दुर्गामती के बारे में पता चलता है। दुर्गामती की आत्मा चंचल को अपने कब्ज़े में ले लेती है और रात घिरते ही अपने रूप में आ जाती है। चंचल इस क्रम में ज़ख़्मी हो जाती है।

आख़िरकार, चंचल को बचाने के लिए उसे मानसिक अस्पताल भेज दिया जाता है, जहां ईश्वर प्रसाद उससे मिलता है और फिर कई राज़ खुलते हैं। ईश्वर प्रसाद की असलियत, शक्ति का क़त्ल, चंचल के ख़िलाफ़ साजिश और 1800 करोड़ रुपये के घाटोले का खुलासा होता है। 

लेखन के स्तर पर दुर्गामती बेहद कमज़ोर फ़िल्म है। आरम्भ में दिखाया जाता है कि ईश्वर प्रसाद को सियासी तौर पर निपटाने के लिए सरकार में बैठे लोग सीबीआई को उसके पीछे सिर्फ़ इसलिए लगाते हैं, क्योंकि वो ईमानदार है। यह अलग बात है कि ईश्वर प्रसाद भी दूसरे नेताओं से अलग नहीं है। वो भी उतना ही भ्रष्ट है, जितना उसके पीछे सीबीआई लगाने वाले।

ईश्वर प्रसाद इसलिए भी सत्तासीनों की आंख की किरकिरी बन जाता है, क्योंकि उन्हें डर है कि ईश्वर प्रसाद के जाने के बाद कोई छोटा इंसान उनकी बराबरी में आकर बैठ जाएगा। फ़िल्म राजनीतिक सोच को लेकर उलझी हुई प्रतीत होती है और कोई सार्थक कमेंट करने में विफल रहती है। पूरे नैरेटिव में एक दकियानूसी सोच हावी रहती है, जो दृश्यों के फ़िल्मांकन में भी नज़र आती है।

अभिनय के स्तर पर भी दुर्गामती अपना असर नहीं छोड़ती। भूमि पेडनेकर और अरशद वारसी को छोड़कर सभी किरदार ऊर्जाहीन और असरहीन दिखायी पड़ते हैं। जिशु सेनगुप्ता बंगाली सिनेमा के बेहतरीन कलाकार माने जाते हैं, मगर हिंदी सिनेमा में ऐसे किरदार करने की उनकी मजबूरी समझ नहीं आती। सीबीआई अफ़सर के रोल में माही गिल बिल्कुल प्रभावित नहीं करतीं। उनका किरदार बंगाली दिखाया गया है, जिसे जस्टिफाई करने के लिए वो उच्चारण से जूझती रहती हैं।

बोलचाल में लिंग के लिए ग़लत क्रिया का इस्तेमाल बंगाली उच्चारण दिखाने के लिए काफ़ी नहीं होता। पंजाबी एक्ट्रेस माही के बंगाली एक्सेंट से ज़्यादा सटीक बंगाली एक्टर जिशु सेनगुप्ता का हिंदी एक्सेंट है। डिम्पल कपाड़िया की बहन सिम्पल कपाड़िया के बेटे  करण कपाड़िया को फ़िल्म में अहम किरदार मिला, मगर उनकी स्क्रीन प्रेज़ेंस बेजान है। उनके हिस्से कुछ भावनात्मक दृश्य आये, जिनमें करण छाप छोड़ सकते थे। करण की संवाद अदायगी सुनकर सुनील शेट्टी की याद आ जाती है। फ़िल्म की सहायक स्टार कास्ट भी प्रभावित नहीं कर पाती। 

दुर्गामती- द मिथ नाम और ट्रीटमेंट से एक माइथोलॉजी थ्रिलर फ़िल्म का एहसास देती है, मगर असल में यह एक रिवेंज स्टोरी है, जिसकी पृष्ठभूमि में सियासत और सरकारी तंत्र की आंख-मिचौली है। कुछ दृश्यों को छोड़ दें तो फ़िल्म डराना तो छोड़िए चौंकाती भी नहीं। फ़िल्म का क्लाईमैक्स खींचा हुआ और अति-नाटकीयता से भरपूर है। फ़िल्म की अवधि भी इसकी एक कमज़ोरी है। ढाई घंटे की फ़िल्म की अवधि कम करके इसे कसा जा सकता था।  

कलाकार- भूमि पेडनेकर, अरशद वारसी, करण कपाड़िया, माही गिल, जिशु सेनगुप्ता आदि।

निर्देशक- जी अशोक

निर्माता- भूषण कुमार, अक्षय कुमार आदि।

वर्डिक्ट- **(दो स्टार)

अवधि- 2 घंटा 35 मिनट


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