Dry Day Review: अभिनय ने सम्भाली हिचकोले खाती कहानी, भावुक नहीं करता भावनाओं का उतार-चढ़ाव
Dry Day Review जितेंद्र कुमार ने ओटीटी स्पेस में अपनी अलग पहचान कायम की है। इस पहचान का बड़ा हिस्सा मिडिल क्लास को लक्ष्य रखकर बनाये गये शोज और फिल्मों से आता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि जितेंद्र कुमार ओटीटी पर मिडिल क्लास स्पेस का चेहरा बन चुके हैं। इस क्लास की एक-एक भाव-भंगिमा जितेंद्र के चेहरे की लकीरों में दिखती है।
एंटरटेनमेंट डेस्क, नई दिल्ली। Dry Day Review: छोटे शहर-कस्बों की पृष्ठभूमि में रची-बसी कहानियां ओटीटी स्पेस में खूब गढ़ी जा रही हैं। यहां के किरदार, मुद्दे, समस्याएं सब उस दर्शक वर्ग से कनेक्ट करते हैं, जो इन शहर-कस्बों में ओटीटी पर फिल्मों या सीरीज का लुत्फ उठा रहा है।
उस दर्शक वर्ग को साधने के लिए तकरीबन सभी ओटीटी प्लेटफॉर्म ऐसे कंटेंट को तरजीह दे रहे हैं, जहां हिंदी हार्टलैंड के दर्शक को तवज्जो मिलती है और ओटीटी पर ऐसे दर्शक का प्रतिनिधि चेहरा जितेंद्र कुमार बन चुके हैं। टीवीएफ के मिडिल क्लास को समर्पित वेब शोज से लोकप्रियता हासिल करने वाले जितेंद्र इन कहानियों में समा जाते हैं।
प्राइम वीडियो पर आई उनकी नई फिल्म ड्राई डे उसी सिलसिले को आगे बढ़ाती है। ड्राई डे सैटायरिलकल कॉमेडी फिल्म है, जो एल्कोहल के खिलाफ एक पियक्कड़ की लड़ाई दिखाती है। सौरभ शुक्ला ने फिल्म का निर्देशन किया है, जो खुद बेहतरीन लेखक और अभिनेता हैं।
क्या है ड्राई डे की कहानी?
कहानी उत्तर भारत के काल्पनिक कस्बे जगोधर में स्थापित की गई है, जहां गन्नू (जितेंद्र कुमार) स्थानीय राजनेता ओमवीर सिंह उर्फ दाऊजी (अन्नू कपूर) का दाहिना हाथ है। गन्नू घनघोर शराबी है। सुबह से लेकर शाम तक शराब में डूबा रहता है।
गर्भवती पत्नी निर्मला (श्रिया पिलगांवकर) की लानत-मलानत भी उसे सुधार नहीं पातीं, लेकिन जब वो अपने राजनैतिक संरक्षक से सार्वजनिक तौर पर बेइज्जत होता है तो उसकी जिंदगी में अहम मोड़ आता है और वो शराब के खिलाफ ही कस्बे में जंग छेड़ देता है।
गन्नू शराबबंदी की मांग को लेकर आमरण अनशन पर बैठ जाता है और शहर में शराबबंदी के लिए अदालत में याचिका डालता है। साथ ही, निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर कॉरपोरेटर के चुनाव में ताल ठोक देता है। हालांकि, इस आंदोलन में उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी हुड़क को काबू में रखने के साथ राजनीति से निपटने की है।
कैसा है स्क्रीनप्ले?
सौरभ शुक्ला लिखित-निर्देशित फिल्म की सादा कहानी को स्क्रीनप्ले के जरिए दिलचस्प बनाने की पूरी कोशिश की गई है। हालांकि, कुछ घटनाक्रम नाटकीय और खिंचे हुए लगते हैं, जो फिल्म की गति को मंद करते हैं।
गन्नू की शराब की लत से कशमकश, आमरण अनशन की वजह का खुलासा करना, राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी सत्तो के उसे रास्ते से हटाने के दावपेंच, गन्नू और उसकी बीवी के बीच शराब को लेकर खींचतान जैसे दृश्य कथ्य को खींचते हैं। इन दृश्यों में ह्यूमर के साथ भावनाओं का उतार-चढ़ाव तो है, मगर वो सतही लगता है, दिल को नहीं छूता।
ड्राई डे आखिरी के 20 मिनट फिल्म का बेस्ट पार्ट हैं। दाऊजी जिस तरह गन्नू को शराबखोरी के खिलाफ याचिका वापस लेने के लिए दवाब बनाता है, अन्नू कपूर इस दृश्य में अपने पूरे रंग में नजर आते हैं। फिल्म ऑल इज वेल वाले मोड़ पर आकर खत्म हो जाती है।
कैसा है कलाकारों का अभिनय?
ड्राई डे की सबसे बड़ी खूबी कलाकारों का अभिनय ही है। तकरीबन सभी कलाकारों ने अपने किरदारों को शिद्दत से निभाया है और उसका असर दिखता भी है। जिस दृश्य में स्क्रिप्ट कमजोर लगती है, उन्हें अभिनय बचाता है।
जितेंद्र कुमार छोटे कस्बे की कहानियों के हीरो बनने में पारंगत हो चुके हैं। उनको देखकर ही स्मॉल टाउन की फीलिंग आने लगती है।
हालांकि, गन्नू का किरदार जिस तरह गुंडा दिखाया गया है, जो दाऊजी के इशारे पर बूथ कैप्चरिंग, मारधाड़ और किडनैपिंग तक कर लेता है, उसमें जितेंद्र के किरदार की एपीयरेंस जस्टिफाई नहीं होती। ये दृश्य दिखाये नहीं गये हैं, सिर्फ संवादों के जरिए खाका खींचा गया है। कथ्य की अंतरधारा हास्य होने की वजह से इसे नजरअंंदाज किया जा सकता है।
सांसद और मंत्री ओमवीर सिंह यानी दाऊजी के किरदार में अन्नू कपूर ने एक बार फिर रंग जमाया है। उनका विरोधियों को प्रेम से धमकाने का अंदाज किरदार को उभारकर लाता है। भाषा और लहजे के लिहाज से अन्नू किरदार में रमे नजर आते हैं।
गन्नू की पत्नी निर्मला के किरदार में श्रिया पिलगांवकर ठीक लगी हैं। सहयोगी कलाकारों में सुनील पलवल (सत्तो), श्रीकांत वर्मा (बलवंत), सौरभ नय्यर (मद्दी), आदित्य सिन्हा (कन्नू), किरण खोजे (जानकी) ने अपने किरदारों के साथ न्याय किया है।