Deva Movie Review: बदलावों के बावजूद बेजान है मुंबई पुलिस की रीमेक, क्लाइमैक्स कर देगा भेजा फ्राई, पढ़ें रिव्यू
कबीर सिंह तेरी बातों में उलझा जिया अलग-अलग जॉर्नर की फिल्में करने के बाद शाहिद कपूर (Shahid Kapoor ) एक्शन फिल्म देवा के साथ बिग स्क्रीन पर आए। इस फिल्म में उन्होंने पुलिस इंस्पेक्टर का किरदार निभाया है। इस फिल्म की कहानी आपको पूरी तरह से पृथ्वीराज सुकुमारन की मलयालम फिल्म की याद दिला देगा। क्या है इस फिल्म की कहानी और कैसा है क्लाइमैक्स यहां पर पढ़ें रिव्यू

स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। साल 2019 में आई शाहिद कपूर अभिनीत फिल्म कबीर सिंह तेलुगु फिल्म अर्जुन रेड्डी की रीमेक थी। फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल रही। इसके तीन साल बाद उनकी फिल्म जर्सी भी तेलुगु फिल्म की रीमेक थी लेकिन फिल्म असफल रही। उनकी फिल्म के देवा के प्रचार में निर्माता निर्देशक इस बात से बचते आए कि यह साल 2013 में आई रोशन एंड्रयूज निर्देशित और पृथ्वीराज सुकुमारन, जयसूर्या और रहमान अभिनीत मलयालम फिल्म 'मुंबई पुलिस' की रीमेक है, जिसका निर्देशन रोशन एंड्रयूज ने किया है।
हालांकि, मूल फिल्म देख चुके लोग आसानी से समझ सकेंगे कि निर्देशक रोशन एंड्रयूज ने कहानी की मूल आत्मा वही रखी है। मूल कहानी बॉबी संजय ने लिखी थी। इस बार भी कहानी के क्रेडिट में उनका नाम है। लेखन में इस बार उनके साथ अब्बास दलाल और हुसैन दलाल, अरशद हुसैन और सुमित अरोड़ा भी जुड़ गए हैं। उन्होंने केरल की पृष्ठभूमि से कहानी को निकालकर मुंबई की दुनिया में रोपा है। इसलिए थोड़ा नाच गाना और राजनीतिक पहलू को जोड़कर नया करने की कोशिश की गई जो फीकी साबित हुई। फिल्म का क्लाइमेक्स जरूर मूल फिल्म से अलग किया गया ताकि इसे रीमेक कहने से बचा जा सके।
क्या है शाहिद कपूर की फिल्म 'देवा' की स्टोरी?
कहानी के आरंभ में एसीपी देव (शाहिद कपूर) का एक्सीडेंट होता है। अस्पताल में आने पर पता चलता है कि याददाश्त चली गई है। उसका जिगरी दोस्त डीसीपी फरहान (प्रवेश राणा) उसे अतीत की याद दिलाता है। वहां से देव के आक्रामक, गुस्सैल, अपने नियमों पर चलने वाले, वर्दी का निरादर करने वालों को सबक सिखाने वाले स्वभाव से हम परिचित होते हैं।
फरहान की दोस्ती के तार देव के साथ एसीपी रोहन डिसिल्वा (पावेल गुलाटी) से भी जुड़े होते हैं। पुलिस गैंगस्टर प्रभात जाधव (मनीष वाधवा) की खोज में होती है, लेकिन जब भी रेड मारती है वह फरार हो जाता है। देव का दिल उसके साथ काम करने वाले कांस्टेबल की पत्रकार बेटी दीया (पूजा हेगड़े) पर आता है। प्रभात के मारे जाने पर देव उसका श्रेय रोहन को दे देता है जिसकी उसकी घर में कोई इज्जत नहीं होती है।
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रोहन को महाराष्ट्र स्थापना दिवस के मौके पर स्टेज पर मार दीया जाता है। देव उसके हत्यारे की खोज में लगा होता है वह उस तक पहुंच भी जाता है, लेकिन दुघर्टना के बाद उसकी याददाश्त जा चुकी है। उसका स्वभाव बदलता है, लेकिन प्रतिभा नहीं। फरहान उसे दोबारा से रोहन के हत्यारे को खोजने की जिम्मेदारी सौंपता है। अब बेहद शांत हो चुका देव मामले की तफ्तीश में जुटता है।
अमिताभ बच्चन की इस फिल्म की याद दिला देगी
बतौर निर्देशक रोशन एंड्रयूज की यह पहली हिंदी फिल्म है। इंटरवल से पहले कहानी धीमी गति से आगे बढ़ती है। उसमें देव के अतीत की परतें खुलती है। एक दृश्य में डॉक्टर कहती है कि एक्सीडेंट से पहले तुम देव ए थे। एक्सीडेंट के बाद देव बी हो गए है। याददाश्त खोने के बाद देवा की दुविधा को लेखकों ने सरसरी तौर पर पेश किया गया है। उसे बेहतर तरीके से पेश किया जा सकता था।
इसे ऐसे कर लो दोस्ती, अपराध, दोषसिद्धि और मुक्ति जैसे भारी विषयों के बावजूद देवा की प्रस्तुति बेजान है। प्रभात जाधव को पकड़ने और मारने के प्रसंग में कोई कौतूहल या रोमांच नहीं है। उसका रुतबा धारावी की गलियों में पुलिस के प्रवेश करने के साथ बताने का प्रयास है। यह अमिताभ बच्चन अभिनीत अग्निपथ की याद दिलाता है। देव और दीया की प्रेम कहानी भी बेमतलब की है।
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कैसा है फिल्म का क्लाइमैक्स?
दीया का पात्र मूल फिल्म में नहीं था। अगर इसमें भी नहीं होता तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता। पत्रकार होने के बावजूद उनका पात्र कहानी में कोई खास योगदान नहीं दे पाता हैं। उसके पिता विस्फोट में घायल होने के बाद चल फिर नहीं सकते लेकिन मजाल है कि दीया को कोई अफसोस हो। देव का अपनी शादीशुदा पड़ोसन के साथ संबंध और उसका राज बताने का प्रसंग बहुत सतही है। फिल्म का क्लाइमैक्स सपाट तरीके से सामने आता है। वहां पर देव की मन:स्थिति या दुष्परिणामों को लेकर कोई आत्ममंथन न दिखना अखरता है। भावनात्मक दृश्यों में कोई भी भाव न जागना भी फिल्म की सबसे बड़ी कमी है।
शाहिद कपूर पहले भी हैदर, उड़ता पंजाब, कबीर सिंह जैसी फिल्मों में आक्रामक, थोड़ा सनकी, मनमौजी, बेबाक मिजाज में नजर आ चुके हैं। देव की भूमिका में उन्हें देखकर आप चौंकते नहीं है। यद्यपि आक्रामक से शांत देव बनने की प्रक्रिया में वह सहज नजर आते हैं। पूजा हेगड़े के हिस्से में कुछ खास नहीं आया है। संयमित पुलिसकर्मी की भूमिका में प्रवेश राणा सटीक कास्टिंग हैं।
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वहीं पावेल गुलाटी मासूम लगे हैं। देव के साथ तकरार के उनके दृश्य में रार कमजोर हो गई है। सहायक भूमिका में नजर आई कुब्रा सैत भी सामान्य हैं। एडिटर ए श्रीकर प्रसाद के पास चुस्त एडीटिंग से फिल्म की अवधि को कम करने की पूरी गुंजाइश थी। विशाल मिश्रा का संगीत औसत है। सिनेमेटोग्राफर अमित राय मुंबई को अपने लेंस से बखूबी दिखाते हैं। देव की पटकथा में कसाव होने पर यह बेहतरीन फिल्म बन सकती थी।
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