All We Imagine as Light Review: फेस्टिवल में जीतने वाली तीन महिलाओं की कहानी क्या छुएगी आपका दिल? पढ़ें रिव्यू
सबके अंदर दबी कुछ इच्छाए होती हैं जिन्हें पूरा करने का सपना लेकर हम अपने-अपने घरों से निकलते हैं। जब बात मायानगरी मुंबई की हो तो कहा जाता है कि ये शहर हर किसी को कुछ न कुछ जरूर सिखाता है। ऐसी ही एक कहानी ऑल वी इमेजिन एज लाइट मूवी में दिखाई गई है जहां तीन महिलाओ का संघर्ष आपको अपना सा लगेगा। क्या है कहानी यहां पढ़ें रिव्यू

प्रियंका सिंह, मुंबई। कान फिल्म फेस्टिवल में इस साल पायल कपाड़िया निर्देशित फिल्म ऑल वी इमेजिन एज लाइट ने ग्रैंड प्रिक्स पुरस्कार जीता तो खूब चर्चाएं हुई। अब इस इंडिपेंडेंट फिल्म को मलयालम और हिंदी (डब) में सिनेमाघरों में रिलीज किया गया है।
क्या है ऑल वी इमेजिन एज लाइट की कहानी?
कहानी तीन महिलाओं की इच्छाओं, आकांक्षाओं, खुद के भीतर रोशनी तलाशने और सपनों के शहर मुंबई में टिके रहने की जद्दोजहद के इर्द-गिर्द घूमती है। केरल से आई दो नर्स, हेड नर्स प्रभा (कनी कुश्रुति) और अनु (दिव्या प्रभा) एक साथ किराए के घर में रहती हैं। प्रभा के पति ने जर्मनी जाने के बाद उसका हालचाल तक नहीं पूछा।
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अनु और उसका ब्वॉयफ्रेंड सिआज (हृदु हारून) साथ रोमांटिक लम्हें बिताने के लिए भीड़ से भरे शहर में जगह तलाशते हैं। अस्पताल में चाय बनाने वाली पार्वती (छाया कदम) घर के कागजात न होने से परेशान है। बिल्डर उसे उसके घर से निकालकर वहां बिल्डिंग बनाना चाहता है। प्रभा कई बार अनु का किराया भी दे देती है।
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पार्वती का घर बचाने के लिए वह वकील के पास भी जाती है। जब पार्वती अपना घर नहीं बचा पाती है, तो प्रभा और अनु मिलकर पार्वती के गांव भी जाती हैं, ताकि वहां उसे बसने में मदद कर सकें।
तीन महिलाओं के संघर्ष की कहानी को खूबसूरती से पिरोया
फिल्म में गणेशोत्सव के दौरान बैकग्राउंड में एक महिला मराठी में कहती है कि मुंबई को लोग सपनों का शहर कहते है, लेकिन यह तो मायानगरी है। पायल ने इस शहर की इस नब्ज को पकड़कर उसे अपने तीनों पात्रों की कहानियों में पिरोया है। वाकई ये मायानगरी है, जिसने अनू को उसके प्यार से मिलवाया, तो वहीं सालों से मुंबई में रह रही पार्वती की पहचान एक कागज तक सिमट गई, जिसके न होने की वजह से उसे शहर ही छोड़ना पड़ जाता है।
प्रभा की कश्मकश, जो शादीशुदा होकर भी इस जीवन का कोई सुख नहीं ले रही है, एक डॉक्टर जो उसके प्यार में है, उसके भी करीब नहीं जा पा रही। फिल्म की शुरुआत में एक लंबे शॉट में बैकग्राउंड में अलग-अलग भाषाओं में बात करते हुए लोग बताते हैं कि कैसे वह मुंबई तक पहुंच गए या कैसे इस शहर ने उन्हें अपनाया। यह मुंबई की ऊर्जा को दर्शाता है।
फिल्मों के शॉट आपको करवाएंगे रियलिटी का एहसास
सिनेमेटोग्राफर रणबीर दास ने रेल्वे स्टेशन और सड़कों के कुछ हिलते, कुछ रुकते हुए शॉट इस तरह से लिए हैं, जो महसूस कराते हैं कि आप उसे अपनी आंखों से देख रहे हैं। फिल्म की कहानी मुंबई की तरह तेजी से नहीं भागती है। अनजान शहर में तीन महिलाओं का अंदरुनी लड़ाई से लड़ते हुए भी एकदूसरे का ख्याल रखने वाले सीन पायल ने कम संवादों में खूबसूरती से दर्शाएं हैं।
फिल्म में कई खामियां भी हैं, जैसे प्रभा का जर्मनी में रहने वाला पति कैसे उसे अंत में एक गांव में मिल जाता है? अनू का ब्वॉयफ्रेंड अगर अलग धर्म का न भी होता, तो उससे कहानी में क्या फर्क पड़ता? खैर, पायल ने अपने इंटरव्यू में कहा था कि इंडिपेंडेंट फिल्म को एक आम फिल्म की तरह देखना चाहिए। हालांकि सिनेमाघरों में लार्जर दैन लाइफ वाली फिल्में देखने वाले दर्शकों के लिए ऐसा सोच पाना कठिन होगा। दूसरी दिक्कत है फिल्म में पात्रों का कई सीन में मलयालम में बात करना, अंग्रेजी सबटाइटल से नजर हटी, तो फिल्म समझ नहीं आएगी।
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क्या अपनी कहानी से दर्शकों का दिल छू सकीं अभिनेत्रियां?
अभिनय की बात करें, तो कनी कुश्रुति, प्रभा ही लगती हैं। पति का भेजा हुआ राइस कूकर जब वह पकड़कर रोती हैं, तो उस पत्नी के दर्द को महसूस करा पाती हैं, जो नई शादी में पति की गैरमौजूदगी में कोई पत्नी महसूस करती होगी। छाया कदम अपने चिर-परिचित अंदाज में हैं। दिव्या प्रभा सेकेंड लीड में अनु के रोल में ताजगी लाती हैं। हृदु हारून का पात्र आधा-अधुरा सा लगता है।
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