प्यार से बढ़कर कोई धर्म नहीं : संजय लीला भंसाली
किस्सागोई के महारथी संजय लीला भंसाली ने एक और मैग्नम ओपस 'बाजीराव मस्तानी' दी है। फिल्म में मराठा पेशवा की बेइंतहा मुहब्बत और उनकी वीरता की लकदक महागाथा है। फिल्म को लोगों की खूब वाहवाही मिल रही है।
अजय ब्रह्मात्मज, मुंबई। किस्सागोई के महारथी संजय लीला भंसाली ने एक और मैग्नम ओपस 'बाजीराव मस्तानी' दी है। फिल्म में मराठा पेशवा की बेइंतहा मुहब्बत और उनकी वीरता की लकदक महागाथा है। फिल्म को लोगों की खूब वाहवाही मिल रही है।
संजय लीला भंसाली बताते हैं, 'बाजीराव और मस्तानी दो महान किरदार हैं। उनकी प्रेम कहानी इसलिए भी लोगों को मालूम पडऩी चाहिए थी, क्योंकि तीन सौ साल पहले उन दोनों ने धर्म के सही मायने लोगों को बताए थे। केसरिया और हरे रंग के सम्मिश्रण से उन्होंने समाज व देश-दुनिया को यह संदेश दिया कि मुहब्बत, शांति और भाईचारे से बढ़कर कोई और धर्म नहीं।
पढ़ें फिल्म का रिव्यू- बाजीराव-मस्तानी (4 स्टार)
दोनों ने जाति और धर्म से ऊपर उठकर मुहब्बत व अमन-चैन का पैगाम लोगों को दिया। मैं इस फिल्म से यही कहना चाहता हूं। आज के माहौल में यह पैगाम खासा प्रासंगिक है।'
साथ ही, मस्तानी ऐसी शख्सियत थी, जो नमाज अता करती थी। वह आरती पूजन भी करती थी। फिर यह बाजीराव की वीरता का नतीजा था, जिसके चलते मुगल साम्राज्य की चूलें हिल गईं थीं। वह महान योद्धा था, मगर रिश्तों के आगे उसकी तलवार की धार कुंद रह गई। मुझे उसका द्वंद्व बड़ा इंट्रीगींग लगा। मतलब यह कि एक अपराजेय इंसान को भी पराजय का मुंह देखना पड़ सकता है। उसे भी खासा संघर्ष करना पड़ा। वह भी अपने परिवार के समक्ष।
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बहरहाल तब के जमाने में भी कुछ अलग करने वालों को रोकने वाले बहुत थे। आज की तारीख में भी यही हाल है। मिसाल के तौर पर शोले के प्रारंभिक रिव्यू देख लीजिए। या फिर मुगल-ए-आजम पर ट्रेड पंडितों की प्रतिक्रिया देख लें। सबने शुरू में उक्त फिल्मों को खारिज किया था, मगर आज वे कल्ट व हिंदी फिल्मों की आन, बान व शान हैं। लब्बोलुआब यह कि हर जमाने में हर जगह लीक से हटकर काम करने वालों को रोकने के तरीके ढूंढे ही जाते हैं। लोगों को सिर्फ वाद देखना-सुनना पसंद है, विवाद नहीं।
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फिर यह कहानी जाहिर करने के पीछे मराठा प्रेम भी एक वजह है। मुझे इस कल्चर से बेपनाह मुहब्बत है। मुझे यहां के खाने के जितना प्यार है, उतना दुनिया भर के कहीं और के व्यंजन से कतई नहीं है। यहां का गीत-संगीत मुझे बहुत पसंद है। लता दीदी तो खैर जादुई है हीं। यहां का लिटरेचरल रोचक है। फिल्म में मराठा प्राइड की कहानी है। बाजीराव की लड़ाई इस्लाम से नहीं थी। वह मुगल सल्तनत से लड़ता रहा। वह भी मुगल सल्तनत के चरम काल में। उस दौर में केसरिया व भगवा रंग को समूचे हिंदुस्तान में लहराना बड़े गर्व की बात थी। उसके पास शक्ति सीमित थी,पर बुद्धि असीमित। ऐसे में यह कहानी तो कही ही जानी थी।
यह फिल्म 12 साल का सपना है। शायद अचेतन मन में गहरी उतरी हुई ख्वाहिश। मेरी हर फिल्म के बाद लोग पूछते रहे कि बाजीराव मस्तानी कब आएगी। यानी इस किरदार के साथ लोगों का कनेक्ट बड़ा गहरा था। यह 12 सालों में गया ही नहीं। उनके नाम में ही पॉवर है। खुद मेरा मन इसे बनाने को लेकर खासा गंभीर था। लिहाजा, मैं भी ठान चुका था कि मैं भी छोडूंगा नहीं। मैं फिल्म बनाकर रहूंगा।
हां, मैं यह ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि पिछले 12 सालों में देश व समाज में आए परिवर्तनों और खुद में हुए क्रमिक विकास से इसकी कहानी पर कितना असर पड़ा। इसकी मूल स्क्रिप्ट वही है, जो 12 साल पहले थी। बस फिल्म को और ज्यादा कसा। पहले बनती तो यह साढ़े तीन घंटे की फिल्म होती। अब उसे कांट-छांट और तराश कर 158 मिनट की बनाई।
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आज की तारीख में बनने से इसे तकनीकी फायदा मिला है। वीएफएक्स और सीजी इफेक्ट से यह निखर कर और बड़ी बन गई। मैं भी वक्त के साथ इवॉल्व हुआ हूं। उसका असर भी इस फिल्म पर दिखा है। हमने फिल्म की गति खासी तीव्र रखी। नतीजतन, आज की ऑडिएंस उसके साथ तालमेल बिठा सकती है। उन्हें फिल्म कहीं से लेंदी नहीं लगेगी। सांवरिया के टाइम पर कसी हुई पटकथा नहीं थी।
मुझे इस फिल्म पर फख्र है। बाजीराव की कहानी कहना चाहती है कि एक समाज व व्यक्ति का ब्रॉड माइंडेड होना बहुत जरूरी है। साथ ही प्यार के प्रति एक अलग व वृहद नजरिया भी प्रदान करती है। वह यह कि प्यार का मतलब सदा साथ रहना ही नही है। उसका मतलब जाने देना भी है, जो काशीबाई करती है।
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आज की तारीख में ऐसे कई पति-पत्नी युगल हैं, जो कड़वाहटों के बावजूद जबरन एक-दूसरे को जकड़े रखते हैं। काशीबाई ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने बाजीराव को ससम्मान मस्तानी के पास जाने दिया। इस शर्त के साथ कि बाजीराव वापस उनकी जिंदगी में नहीं आएंगे। इस तरह उन्होंने अपना गुरूर भी कायम रखने की कोशिश की। ऐसा लचीला रवैया आमतौर पर देखने को नहीं मिलता।