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Dilip Kumar News: देविका रानी से एक मुलाकात ने बदल दी दिलीप कुमार की जिंदगी, एक्टर बनने से पहले करते थे ये काम

दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा ‘द सब्सटेंस एंड द शैडो’ में इस घटना को अलग तरीके से लिखा है और भ्रम को साफ किया। दिलीप कुमार एक दिन चर्च गेट पर खड़े थे तो उनको मनोविज्ञानी डॉ मसानी दिखे। दिलीप कुमार ने उनको अपने कॉलेज में सुना था।

By Priti KushwahaEdited By: Published: Wed, 07 Jul 2021 10:58 AM (IST)Updated: Wed, 07 Jul 2021 03:43 PM (IST)
Dilip Kumar News: देविका रानी से एक मुलाकात ने बदल दी दिलीप कुमार की जिंदगी, एक्टर बनने से पहले करते थे ये काम
Photo Credit - dilip kumar Midday Photo Screenshot

अनंत विजय, नई दिल्ली। अब से कुछ देर पहले हिंदी सिनेमा के सबसे बड़े नायकों में से एक दिलीप कुमार का निधन हो गया। उनके निधन की खबर सुनते ही 1940 के बाद के दौर के कुछ दिलचस्प प्रसंग की याद ताजा हो गई। दिलीप कुमार के फिल्मों में आने का प्रसंग। दरअसल हुआ ये था कि अपने पति हिमांशु राय के निधन के बाद देविका रानी बांबे टॉकीज को अपने साथियों अमिय चक्रवर्ती और एस मुखर्जी के साथ मिलकर चला रही थीं। थोड़े दिनों तक सब ठीक चला फिर चक्रवर्ती और मुखर्जी में टकराव शुरू हो गया। देविका रानी ने अमिय चक्रवर्ती का साथ दिया और मुखर्जी बांबे टॉकीज छोड़कर चले गए। उसी समय फिल्म ‘किस्मत’ को लेकर अशोक कुमार और अमिय चक्रवर्ती में झगड़ा हो गया और अशोक कुमार ने भी बांबे टॉकीज छोड़ दिया था। उस वक्त अशोक कुमार बेहद लोकप्रिय अभिनेता थे और उनका बांबे टॉकीज छोड़ना देविका रानी के लिए बड़ा झटका था। वो दौर था जब ज्यादातर अभिनेता किसी स्टूडियो में मासिक वेतन पर काम किया करते थे। अशोक कुमार को भी उस समय हजार रुपए प्रतिमाह मिला करते थे। खैर... ये अवांतर प्रसंग है। जब अशोक कुमार बांबे टॉकीज छोड़कर चले गए तब से देविका रानी किसी नए हीरो की तलाश में थीं। जहां भी जाती थीं वहां वो इस संभवना को तलाशती रहती थीं।

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अपनी नई फिल्म की लोकेशन देखने के लिए वो नैनीताल गई हुई थीं। इस बात की बहुत चर्चा होती है कि वहीं उन्होंने एक युवा फल कारोबरी को देखा जो अपने पिता के फलों के बिजनेस के सिलसिले में आया हुआ था। तब देविका रानी ने उनको कहा था कि मुंबई आओ तो मिलना। लेकिन दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा, ‘द सब्सटेंस एंड द शैडो’ में इस घटना को अलग तरीके से लिखा है और भ्रम को साफ किया। दिलीप कुमार एक दिन चर्च गेट पर खड़े थे तो उनको मनोविज्ञानी डॉ मसानी दिखे। दिलीप कुमार ने उनको अपने कॉलेज में सुना था। वो स्टेशन पर उनके पास पहुंचे और अपना परिचय दिया। डॉ मसानी यूसुफ खान से गर्मजोशी से मिले, क्योंकि वो उनके पिता से परिचित थे। उन दिनों दिलीप कुमार काम की तलाश में थे। डॉ मसानी ने उनसे कहा कि वो बांबे टॉकीज की मालकिन से मिलने जा रहे हैं और यूसुफ खान को भी साथ लेकर चले गए। यूसुफ खान जब डॉ मसानी के साथ बांबे टॉकीज के स्टूडियो में पहुंचे तबतक उन्होंने कोई फिल्म भी नहीं देखी थी सिवाय एक डॉक्युमेंट्री के। डॉ मसानी के साथ जब यूसुफ खान देविका रानी के कमरे में दाखिल हुए तो देविका ने उनसे कहा, कुर्सी खींचिए और बैठ जाइए। खान साहब ने लिखा है कि देविका रानी उनको इस तरह से देख रही थीं, जैसे स्कैन कर रही हों। इस बीच डॉ मसानी ने यूसुफ खान का परिचय करवाया और उनको साथ लाने का उद्देश्य बताया।

देविका रानी और यूसुफ खान की इस मुलाकात के कई वर्जन उपलब्ध हैं। अपनी आत्मकथा के अलावा दिलीप कुमार ने अपने जीवनकाल में प्रकाशित अपनी जीवनी के लिए उसके लेखक बनी रूबेन को भी इस मुलाकात का विवरण दिया था। जब देविका रानी को पता चला कि यूसुफ खान काम की तलाश में हैं तो उन्होंने उनसे पूछा कि क्या आप उर्दू जानते हैं। उनके इतना पूछते ही डॉ मसानी ने यूसुफ खान के पेशावर कनेक्शन के बारे में विस्तार से देविका रानी को बताया। उर्दू के बाद सीधे वो सिगरेट पर पहुंच गईं और पूछा कि क्या आप सिगरेट पीते हैं तो संकोच के साथ यूसुफ खान ने कहा- नहीं। अगला प्रश्न था कि क्या कभी अभिनय किया है इसका उत्तर भी आया नहीं। फिर वो प्रश्न आया जिसने यूसुफ खान की जिंदगी की राह बदल दी। देविका रानी ने पूछा कि क्या आप अभिनय करना चाहते हैं। जवाब आया हां। इतना सुनते ही देविका रानी ने अपने कमरे में बैठे अपने सहयोगी अमिय की ओर देखते हुए यूसुफ खान के सामने 1250 प्रतिमाह के वेतन पर काम करने का प्रस्ताव दे दिया। उस वक्त ये बड़ी रकम थी। यूसुफ खान को समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे रिएक्ट करें। वहां से हां करके निकल आए। रास्ते में उनके और डॉ मसानी के बीच ज्यादा बातचीत नहीं हुई। वो घर पहुंच गए पर कशमकश जारी रही। वो इस बात पर यकीन ही नहीं कर पा रहे थे कि उनको 1250 प्रतिमाह वेतन मिलेगा। उस वक्त राज कपूर को सिर्फ 170 रु महीने मिला करते थे। इसी उधेड़बुन में वो फिर से डॉ मसानी के घर पहुंचे और उनसे कहा कि 1250 रु सालाना बहुत कम है और इतने कम पैसों में काम करना मुश्किल होगा। डॉ मसानी ने कहा कि 1250 रु तो प्रतिमाह था। खैर यूसुफ खान के कहने पर उन्होंने देविका रानी को फिर से फोन किया और ये बात तय हो गई कि 1250 रु प्रतिमाह का प्रस्ताव है।

अगले दिन जब यूसुफ खान बांबे स्टूडियो पहुंचे तो देविका रानी से मिले। देविका रानी ने उनसे कहा कि यूसुफ खान नाम नहीं चलेगा, इसको बदलना चाहिए। इस बात की जानकारी नहीं मिलती है कि देविका रानी ने नाम बदलने की क्यों सोची, लेकिन अनुमान है कि उस वक्त हिंदू-मुसलमान के बीच बढते तनाव को देखते हुए देविका रानी ने ऐसा सोचा होगा। उन्होंने यूसुफ खान के सामने तीन नाम रखे- जहांगीर, वासुदेव और दिलीप कुमार। बनी रुबेन ने लिखा है कि यूसुफ खान ने उनको बताया कि जब ये तीन विकल्प उनके सामने आए तो उन्होंने दिलीप कुमार को चुना, जबकि उऩको दूसरा नाम पसंद था। दूसरे जीवनीकारों का मानना है कि यूसुफ खान को जहांगीर नाम पसंद आया था, लेकिन देविका रानी के किसी सलाहकार ने दिलीप कुमार के नाम पर जोर डाला और यूसुफ खान दिलीप कुमार बन गए। देविका रानी को भी दिलीप कुमार नाम पसंद आया, क्योंकि ये अशोक कुमार से मिलता-जुलता था। उसके बाद की कहानी तो इतिहास है। जब बांबे टॉकीज की फिल्म ‘ज्वार भाटा’ दिलीप कुमार को मिली तो उनकी उम्र उन्नीस साल पांच महीने थे। आज 98 साल की उम्र में उनके निधन के बाद उनसे जुड़े कई प्रसंग याद आते हैं, कई फिल्मों में उनका शानदार अभिनय भी कि।


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