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दरअसल: नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी की ‘मंटो’...

कान फिल्म फेस्टिवल में ‘मंटो’ की मुनासिब तारीफ हुई है। देखें यह फिल्म कब तक आम भारतीय दर्शकों तक पहुँचती है? नंदिता दास और नवाजुद्दीन सिद्दीक़ी की इस पेशकश का इंतज़ार है।

By Manoj VashisthEdited By: Published: Fri, 18 May 2018 06:18 PM (IST)Updated: Fri, 18 May 2018 06:18 PM (IST)
दरअसल: नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी की ‘मंटो’...
दरअसल: नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी की ‘मंटो’...

- अजय ब्रह्मात्मज

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भारत से कुछ फ़िल्मकार, पत्रकार और समीक्षक मित्र कान फिल्म फेस्टिवल गए हैं। उनकी राय, टिपण्णी और समीक्षा पर यकीन करें तो नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी की ‘मंटो’ इस साल की बहुप्रतीक्षित फिल्म होगी। यह फिल्म कान फिल्म फेस्टिवल के ‘उन सर्टेन रिगार्ड’ खंड के लिए चुनी गयी है। इस फिल्म की निर्देशक नंदिता दास हैं। कान फिल्म फेस्टिवल की क्रिएटिव पवित्रता और वस्तुनिष्ठता बची हुई है। दुनिया भर के बेहतरीन फ़िल्में यहाँ देखने को मिल जाती हैं। यह पता चल जाता है कि इस साल का इंटरनेशनल सिनेमा सीन कैसा रहेगा? वहां दिखाई जा चुकी फ़िल्में कुछ महीनों के बाद घूमती हुई देश के विभिन्न शहरों में आयोजित फिल्म फेस्टिवल में पहुंचेंगी। 

मैं ‘मंटो’ को नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी की फिल्म कह रहा हूँ। उन्होंने ही फिल्म में शीर्षक भूमिका निभाई है। कह सकते हैं कि किरदारों पर भी कलाकारों के नाम लिखे होते हैं। 2005 से सआदत हसन मंटो के जीवन पर फिल्म बनाने की कोशिशें जारी हैं। अनेक निर्देशकों ने सोचा। कुछ कलाकारों ने तैयारी की। बात आयी-गयी और फ़िल्में नहीं बन सकीं। इस बार नंदिता दास अपने प्रयास में सफल रहीं।

कुछ सालों पहले उन्होंने जब ‘मंटो’ के बारे में सोचा और तैयारियां शुरू कीं तो उनके दिमाग में मुख्य भूमिका के लिए कोई और था। फंड के अभाव में फिल्म खिंचती गयी और नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी आ गए। एक तरह से यह अच्छा ही हुआ, क्योंकि मंटो के तेवर को नवाज़ पकड़ सकते थे। कहना नहीं चाहिए, लेकिन नवाज़ ने भी तिरस्कार और नाराज़गी के साल मुंबई में गुजारे हैं। लोगों ने उन्‍हें गलत समझा है। लंबे समय तक लोग समझ नहीं पा रहे थे और गरीब भूमिकाओं में नवाज़ को रेज़गारी की तरह खर्च कर रहे थे।

‘मंटो’ नंदिता दास की भी फिल्म है। यह उनकी प्रिय ज़मीन है। उन्होंने 2002 में हुए गुजरात के दंगो पर ‘फ़िराक़’(2009 ) बनायी थी। नौ सालों के बाद वह लौटी हैं। इस बार देश विभाजन का समय है। हालात 2002 से भी बदतर हैं। इस बार उनके पास इन हालात से जूझता ग़मज़दा नायक मंटो है। पिछले कुछ सालों में मंटो देश के सबसे अधिक चर्चित और पठित लेखक रहे हैं। उन्हें परफॉर्मेंस की अनेक विधाओं में अभिव्यक्ति मिली। उनकी कहानियों का पाठन, मंचन और फिल्मांकन भी हुआ।

हम उनकी रचनाओं से वाकिफ होते रहे। फिर भी इस क्रम में मंटो अपरिचित ही रहे। हम उस लेखक के मानस और माहौल के बारे में ज़्यादा नहीं जान सके। उन्होंने अपनी कब्र पर लिखने के लिए इबादत लिखी थी,’यहां सआदत हसन मंटो लेटा हुआ है और उसके साथ कहानी लेखन की कला और रहस्य भी दफन हो रहे हैं। टनो मिट्टी के नीचे दबा वह सोच रहा है कि क्या वह खुदा से बड़ा कहानी लेखक नहीं है।

नंदिता दास ने अपनी फिल्‍म में मंटो के मिजाज को उकेरने की कोशिश की है। उन्होंने अपनी फिल्म में उनकी कहानियों का सहारा लिया है। नंदिता के लिए शिल्प की बड़ी चुनौती रही होगी। उन्हें बायोपिक के पॉपुलर फॉर्मेट में मंटो की कहानी नहीं कहनी थी। मंटो का साथ देने के लिए उन्होंने केवल उनकी बीवी साफिया (रसिका दुग्गल) और दोस्त श्याम चड्ढा (ताहिर राज भसीन ) को रखा है। 

इन तीनों के साथ वह उस दौर में उतरती हैं, जब मंटो भारत से पाकिस्तान जाते हैं। वहां पहुँचने के बाद मंटो ने लिखा था,’मेरे लिए ये तय करना नामुमकिन हो गया है, कि दोनों मुल्कों में अब मेरा मुल्क कौन-सा है। बड़ी बेरहमी के साथ हर रोज जो खून बहाया जा रहा है, उसके लिए कौन जिम्मेदार है? अब आजाद हो गए हैं लेकिन क्या गुलामी का वजूद खत्म हो गया है? जब हम गुलाम थे तो आजादी के सपने देख सकते थे, लेकिन अब हम आजाद हो गए हैं तब हमारे सपने किसके लिए होंगे?’

यह सवाल आज भी कायम है। दोनों मुल्कों के लेखकों के सपने छीन गए हैं। हम सभी मंटो की दुविधा जीने को अभिशप्त हैं। कान फिल्म फेस्टिवल में ‘मंटो’ की मुनासिब तारीफ हुई है। देखें यह फिल्म कब तक आम भारतीय दर्शकों तक पहुँचती है? नंदिता दास और नवाजुद्दीन सिद्दीक़ी की इस पेशकश का इंतज़ार है।


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