संवेदनशील मुद्दे को सार्थक तरीके से दिखाती है शॉर्ट फिल्म 'माइंड मेरा माइंड'
फिल्मों की सार्थकता तभी सफल होती है जब वो अपने संदेश को एक व्यापक तरीके से लोगों तक पहुंचा सकें। आम आदमी के बीच के अनछुए मुद्दे को दर्शती है। ये फिल्म है माइंड मेरा माइंड। इस फिल्म में गे कम्युनिटी के मुद्दे को प्रभावशाली तरीके से दिखाया गया है।

नई दिल्ली, जेएनएन। फिल्मों की सार्थकता तभी सफल होती है जब वह अपने संदेश को एक व्यापक तरीके से लोगों तक पहुंचा सकें। आम आदमी के बीच के अनछुए मुद्दे को प्रतिबंबित करती ऐसी ही एक फिल्म है माइंड मेरा माइंड। इस फिल्म में गे कम्युनिटी के मुद्दे को प्रभावशाली तरीके से दिखाया गया है। फिल्म में कई ऐसे पहलुओं को भी उठाया गया है जिन्हें हम गाहे-बगाहे नजरंदाज कर जाते हैं।
इस फिल्म में लीड एक्टर का किरदार राघव शर्मा ने निभाया है जबकि हर्षिणी मिश्रा ने एंग्जाइटी आंटी का रोल किया है। करन सोनिक ने इनसोमनिया से पीड़ित शख्स की भूमिका अदा की है। फिल्म में गौतम अरोड़ा डिप्रेशन वाले शख्स का रोल निभा रहे हैं। फिल्म में भैया और प्यू बनर्जी लीड एक्टर के थेरेपिस्ट है। हर्ष अग्रवाल ने इस फिल्म को निर्देशित किया है। इस फिल्म में एक संवेदनशील मुद्दे को खूबसूरती से प्रस्तुत किया गया है। फिल्म में गे कम्युनिटी की मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी दिक्कतों को करीने से दिखाया गया है।
शौर्य शाह ने इस फिल्म से अपना डेब्यू किया है। फिल्म हमारे जीवन में किसी अच्छे शख्स या बात का प्रभाव कितना होता है इसे भी बखूबी दर्शाती है। हर्ष अग्रवाल की फिल्में दर्शकों को उनके मजबूत संदेश के लिए जानी जाती हैं। उनकी पिछली फिल्म वैद्य यह सब कहती है। नीरज चुरी द्वारा निर्मित, एक स्थापित और प्रसिद्ध निर्माता, जिन्होंने शैडो और सिसक जैसी विभिन्न समीक्षकों और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित फिल्मों में काम किया है।
इस फिल्म की खास बात ये है कि बहुत कम समय के अंदर इतने सारे अलग अलग पहलुओं को सामने लाती है। ये भी बताती है कि मानसिक परेशानियों से गुजरने वाला इंसान जरूरी नहीं कि बीमार लगे। हालांकि और समय होता तो शायद ये फिल्म सभी किरदारों को और समय दे पाती और वो बेहतर तरीके से संवर के सामने आते। अकेलेपन जैसे किरदार जो कि मानसिक परेशानियों को बढ़ावा दे सकते हैं उन्हें फिल्म में कम समय मिला है।
ये फिल्म कई मिथकों को तोड़ती है। साथ ही कई प्रभावशाली संदेश भी लोगों को देती है। मानसिक स्वास्थ्य से निपटने और उससे डील करने के बारे में यह फिल्म विस्तार से बताती है। हर्ष अग्रवाल ने जिस तरीके से इस फिल्म को सोचा, लिखा और निर्देशन किया है, वह वाकई तारीफ के काबिल है। उन्होंने इस तरीके के जटिल मुद्दे को बहुत बारीकी और तकनीक के साथ निभाया है।
एक दूसरा सवाल ये भी उठता है कि क्या गे समुदाय से जुड़े लोगों को इसी विषय पर कहानी लिखनी चाहिए। हर्ष अग्रवाल की ये दूसरी फिल्म है। उनकी पिछली फिल्म भी इसी विषय पर थी। क्या गे समुदाय के लोग बाकी समाज का हिस्सा नहीं हैं और अगर हैं तो क्या उनकी जिम्मेदारी नहीं कि समाज की बाकी जुड़ी परेशानियों पर प्रभावशाली संदेशों के साथ फिल्म बनाएं।
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