Move to Jagran APP

हिंदी दिवस: हिंदी का यह लायक बेटा कभी निराश होकर फ़िल्म इंडस्ट्री छोड़ लौट गया था

उसके बाद उन्होंने ‘सिनेमा और साहित्य’ पर तीखे लहजे में एक आलोचनात्मक निबंध लिखी। जिसमें उन्होंने कहा कि फ़िल्म इंडस्ट्री सिर्फ मुनाफे के लिए काम करती है।

By Hirendra JEdited By: Published: Tue, 31 Jul 2018 03:57 PM (IST)Updated: Fri, 14 Sep 2018 10:42 AM (IST)
हिंदी दिवस: हिंदी का यह लायक बेटा कभी निराश होकर फ़िल्म इंडस्ट्री छोड़ लौट गया था
हिंदी दिवस: हिंदी का यह लायक बेटा कभी निराश होकर फ़िल्म इंडस्ट्री छोड़ लौट गया था

मुंबई। आज हिंदी दिवस है। हिंदी दिवस प्रत्येक वर्ष 14 सितंबर को मनाया जाता है। 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिंदी ही भारत की राजभाषा होगी। बहरहाल, हिंदी दिवस के अवसर पर आज हम आपको हिंदी के सबसे बड़े लेखक प्रेमचंद के बारे में कुछ ख़ास बातें बता रहे हैं! 

loksabha election banner

हाल ही में 31 अगस्त को प्रेमचंद की 139 वीं जयंती मनाई गयी। प्रेमचंद का जिक्र जब आता है तो उनके अनेकानेक कालजयी उपन्यासों का ज़िक्र होता है। यह उचित भी है। लेकिन, क्या आप जानते हैं कि प्रेमचंद ने कभी फ़िल्मों में भी अपना कैरियर बनाने की कोशिश की थी। हालांकि, वो इस दिशा में सफल नहीं हो पाए।

यह भी पढ़ें: साहित्य और सिनेमा दोनों में ही रहा राही मासूम रज़ा का विशिष्ट योगदान

आपको यह जानकर हैरानी हो सकती है कि प्रेमचंद जिन्हें कलम का जादूगर भी कहा जाता है फ़िल्मों में इसलिए कामयाब नहीं हो सके क्योंकि वो कमाल का लिखते थे। जैसे अगर उनकी डेब्यू फ़िल्म ‘मिल मजदूर’ (1934) की बात करें तो यह फ़िल्म कामगार मजदूरों की समस्याओं पर आधारित थी। इस फ़िल्म ने मजदूरों के दर्द को ऐसी आवाज़ दी कि सरकारी सेंसर बोर्ड घबरा गया और उसने इस फ़िल्म को प्रतिबंधित कर दिया। इस फ़िल्म में वो केमियो भी करने वाले थे।

कभी शिक्षक के रूप में 18 रुपये प्रति माह की नौकरी करने वाले प्रेमचंद को तब फ़िल्म स्टूडियो अजंता सिनेटोन ने 8000 रुपये की बड़ी सैलरी पर काम पर रखा था। साल 1930 से 1940 का दौर ऐसा था कि तब देश भर से लेखक और साहित्यकार मायानगरी मुंबई में ज़मीन तलाश रहे थे। प्रेमचंद ने ‘मिल मजदूर’ में वर्किंग क्लास की समस्याओं को बड़ी ही मजबूती से उठाया था। तत्कालीन ब्रिटिश सरकार भला इस फ़िल्म को कैसे रिलीज़ होने देती तो इस फ़िल्म पर तब प्रतिबंध लगा दिया गया। किसी तरह यह फ़िल्म लाहौर, दिल्ली और लखनऊ के सिनेमा हॉल में रिलीज़ हुई और इस फ़िल्म का मजदूरों पर ऐसा असर हुआ कि हर तरफ विरोध के स्वर गूंजने लगे। फिर आनन फानन में इस फ़िल्म को थियेटर से हटा लिया गया। अंततः प्रेमचंद समझ गए कि फ़िल्म इंडस्ट्री में उनकी बात कोई नहीं सुनेगा। बहुत निराश मन से वो वापस बनारस लौट गए।

प्रेमचंद ने तब अपने एक दोस्त को चिट्ठी लिखी थी जिसमें वो लिखते हैं- ‘‘सिनेमा से किसी भी तरह की बदलाव की उम्मीद रखना बेइमानी है। यहां लोग असंगठित हैं और इन्हें अच्छे-बुरे की पहचान नहीं है। मैंने एक कोशिश की लेकिन, मुझे लगता है कि अब इस दुनिया (फ़िल्मी) को छोड़ना ही बेहतर है।’’ उसके बाद 1935 में वो बनारस लौट गए। उसके बाद उन्होंने ‘सिनेमा और साहित्य’ पर तीखे लहजे में एक आलोचनात्मक निबंध लिखा। जिसमें उन्होंने कहा कि फ़िल्म इंडस्ट्री सिर्फ मुनाफे कमाने के लिए काम करती है। दुर्भाग्य से आज ‘मिल मजदूर’ की एक भी कॉपी कहीं नहीं बची है। इसमें कोई संदेह नहीं कि आज अगर वो फ़िल्म होती तो जो पीढ़ी आज किताबों से दूर है वो प्रेमचंद को एक अलग रूप में जान पाती।

यह भी पढ़ें: दिलीप कुमार की तबियत अब पहले से बेहतर, हरफनमौला रहा है यह 'ट्रेजडी किंग', पढें विस्तार से

गौरतलब है कि सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फ़िल्में बनाईं। 1977 में ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और 1981 में ‘सद्गति’। प्रेमचंद के निधन के दो साल बाद सुब्रमण्यम ने 1938 में ‘सेवासदन’ उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें सुब्बालक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। 1977 में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ पर आधारित ‘ओका ऊरी कथा’ नाम से एक तेलुगु फ़िल्म बनाई, जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगु फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। 1963 में ‘गोदान’ और 1966 में ‘गबन’ उपन्यास पर लोकप्रिय फ़िल्में बनीं। 1980 में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक ‘निर्मला’ भी बहुत लोकप्रिय हुआ था।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.