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जन्मदिन पर विशेष: 'महाभारत' के 'समय' से परे गंगा-जमुनी तहजीब वाले राही मासूम रज़ा

जावेद बताते हैं कि राही साहब अजीब तरीके से लिखते थे। हम और आप उसका तसव्वुर नहीं कर सकते हैं। बैंड स्टैंड पर उनका कमरा हुआ करता था।

By Manoj VashisthEdited By: Published: Sat, 01 Sep 2018 03:19 PM (IST)Updated: Sat, 01 Sep 2018 03:21 PM (IST)
जन्मदिन पर विशेष: 'महाभारत' के 'समय' से परे गंगा-जमुनी तहजीब वाले राही मासूम रज़ा
जन्मदिन पर विशेष: 'महाभारत' के 'समय' से परे गंगा-जमुनी तहजीब वाले राही मासूम रज़ा

अनुप्रिया वर्मा, मुंबई। राही मासूम रजा का जन्म 1 सिंतबर 1927 को उत्तर प्रदेश के गाजीपुर इलाके में हुआ था. प्रारंभिक पढ़ाई वही हुई. बाद में फिल्म लेखन के लिए मुंबई आये. फिल्मों में लिखने के साथ-साथ हिंदी-उर्दू में समान रूप से सृजनात्मक लेखन करते रहे. आधा गांव, टोपी शुक्ला, सीन 75, हिम्मत जौनपुरी, ओस की बूंद, दिल एक सादा कागज समेत दूरदर्शन के धारावाहिक महाभारत की पटकथा और संवाद लेखक के रूप में विख्यात. आज होते तो अपना 91 वां जन्मदिन मना रहे होते.

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हाल ही में स्क्रीनराइटर्स कांफ्रेंस के दौरान जाने माने लेखक जावेद सिद्दिकी जिन्होंने राही मासूम के साथ लंबा समय बिताया है. उनसे जुड़े कुछ दिलचस्प किस्से साझा किये. जावेद ने बताया कि राही साहब बहुत बड़ी शख्सियत थे. लेकिन हमारी ये बदनसीबी है कि हममे से ज्यादातर लोग वो उस शख्सियत और उतने बड़े कैनवास का सिर्फ एक हिस्सा ही देख पाते हैं और वो है महाभारत. जबकि राही साहब इतने छोटे नहीं थे, वह मल्टीफेशिलेटेड कैरेक्टर थे.

शायर वैसे कि नज़्म-ग़ज़ल दोनों पर पकड़

जावेद कहते हैं कि अगर आप उनके करीब जाकर समझने की कोशिश करें तो आपको अनुमान लगेगा कि उनका फैलाव कितना ज्यादा और कितनी दूर तक गया है. उनकी सबसे बड़ी पहचान जो थी, वो थी कि वह बहुत अच्छे शायर थे. ये शायरी उस जमाने में कर रहे थे. जब उनके दोस्तों में ही कई नाम हुआ करते थे. मजाज हुआ करते थे, सरदार जाफरी थे, जानिसार थे. कैफी थे. लेकिन उस जमाने में वह अपना सिक्का जमाये बैठे थे. अलीगढ़ में जब वह पढ़ाते थे. उस जमाने में ही उनकी शोहरत दूर-दूर तक फैलने लगी थी. कुछ शायर ऐसे होते हैं, जो कि गजल अच्छी कहते हैं, कुछ नज्म अच्छी कहते हैं. लेकिन राही साहब नज्म और गजल दोनों के ही ऊपर बराबर की तरतशत रखते थे.जावेद कहते हैं कि क्या आप यकीन करेंगे कि उस शख्स ने 1857 की पूरी दास्तां नज्म लिखी है, जिसमें हजारों शेर हैं. एक दो चार नहीं हैं. वो पढ़ने से ताल्लुक रखते हैं. वह हमेशा कहा करते थे कि मेरी चाहत है कि मैं इसका वह हिस्सा भी लिखूं जो कि 1947 पर आधारित हो. लेकिन उनको वक्त नहीं मिल सका और वो उसको पूरा नहीं कर सके. उनका एक शायर है ऐ सबा तू तो उधर से भी गुजरती होगी उस गली में मेरे पैरों के निशान कैसे हैं ये जो नोसेटलैजिया है, इससे खूबसूरत मिसाल हमारी उर्दू शायरी में नहीं मिलती है. उन्होंने गाने भी लिखे हैं. आप में से शायद ही कोई होगा, जगजीत का गाया वह गीत नहीं सुना होगा, कि हम तो हैं परदेस में देश में निकला होगा चांद... कमाल का गाना था. कमाल चला था. ये उनकी शायरी थी.

जब गालियों के कारण आधा गांव को नहीं मिला साहित्य अकादमी पुरस्कार

जावेद कहते हैं कि वह बहुत अच्छे अदीब थे. नोवेल उन्होंने आठ या 9 नोबेल लिखा है. उनका मशहूर नोबेल था आधा गांव, जो कि साहित्य अकादमी के लिए भी मनोनित किया गया था. लेकिन बदनसीबी से उनको यह अवार्ड नहीं मिल पाया था. चूंकि उस जमाने में जो लोग साहित्य अकादमी में थे. उनका कहना था कि इसमें गालियां बहुत है. लेकिन उसमें गालियां इसलिए थीं, कि उस गांव के लोग आपस में गालियों से बात करते थे. मुझे यकीन है कि आज के जमाने में शायद यह भेजा जाता तो उनको मिल जाता. लेकिन आज तो फिल्मों में गालियां होती हैं. हैरत की बात है कि साहित्य अकादमी के सेलेक् शन बोर्ड के लोगों ने सोचा कि अगर उपन्यास को अवार्ड मिल गया तो लोगों का अकलाक बदल जायेगा. लेकिन हम जो लोगों के अकालक बनाते हैं, उन्हें जरा भी एहसास नहीं होता कि जब फिल्मों में गालियां होती हैं तो वो बच्चे हमारे सामने लौटेंगे तो क्या होगा. क्योंकि हम सिर्फ एंटरटेनर नहीं हैं. बहरहाल, उनके उपन्यास में सीन 75, दिल एक सादा कागज काफी लोकप्रिय रहे.

हिंदू-मुस्लिम के बीच मोहब्बत वाली रचनाएं

जो कुछ उन्होंने लिखा है, उसमें मिट्टी की खुशबू है. उनका जो छोटा सा गांव था, गंगोली, उसकी जो मिली-जुली तहजीब थी. जो गंगा-जमुनी तहजीब थी, जिसमें हिंदू -मुस्लिम के बीच कोई झगड़ा नहीं था. उस तहजीब को उन्होंने हर जगह पेश करने की कोशिश की है. उनका मशहूर नोबेल है टोपी शुक्ला है, जिसमें हिंदू-मुस्लिम रिलेशन और उसका पॉलिटिकल नजरिया क्या है, उसे प्रस्तुत किया है. ये सब पढ़ने की चीजें हैं.

टीवी लेखन

राही मासूम रजा ने काफी सीरियल लिखे, फिल्में लिखी. लेकिन उन्हें माना गया और लोगों के घर तक पहुंचे और वह सीरियल था महाभारत. हालांकि उन्होंने काफी सीरियल लिखे. नीम का पेड़ उनका ही शो था. लेकिन पहचान बन गया महाभारत. महाभारत लिखने के लिए जब बीआर चोपड़ा से बात हुई कि कौन लिखेगा, और बी आर चोपड़ा जो कि बहुत जहीन आदमी थे. उन्होंने कहा कि राही साहब लिखेंगे, क्योंकि राही साहब सिर्फ उर्दू के माहिर नहीं थे. वह कई जुबानों के माहिर थे. उनके अंगरेजी पर बहुत अच्छी कमांड थी. वह फारसी जानते थे. और थोड़ी बहुत संस्कृत समझ लेते थे. लेकिन लोगों को बहुत ऐतराज हुआ कि एक मुसलमान महाभारत लिखेगा, ऐसा कैसे. राही ने कहा कि जो मैं लिखूंगा, उसको एक बार सुन लीजिए, अगर आपको लगता है कि एक मुसलमान इंसाफ नहीं कर पा रहा है तो फिर मैं कलम रख दूंगा. लेकिन उस वक्त एक सवाल पैदा हुआ कि हमारी जो मिथोलॉजी है कि वेद व्यास बोलते जाते थे और श्री गणेश लिखते जाते थे. तो अब यहां स्क्रीन पर कैसे दिखाया जायेगा. तो फिर किसको ऋषिमुनि को बिठाया जाये और वो कहानी सुनाये. ये भी अजीब लगेगा. लेकिन राही साहब ने कहा कि दुनिया का सबसे बड़ा कहानीकार समय है. वक्त ये कहानी सुनायेगा. इसलिए जब महाराभारत जब शुरू होता है तो मैं समय हूं की जो आवाज आती है, आपने सुना होगा. जब ये आवाज शुरू होती थी, तो सड़कें खाली हो जाती थीं. लोग जो थे, वो होटलों में बैठ जाते थे. उस वक्त सिर्फ एक शो चला करता था, वो था महाभारत. राही साहब ने जिस तेवर से लिखा है, खूबसूरती से लिखा है, उसके अंदर राइटर का किस तरह से इस्तेमाल किया है. वह देखने के लिए महाभारत दोबारा देखनी चाहिए. मुकेश खन्ना ने अपने इंटरव्यू में एक डायलॉग बोला, उस वक्त के पूरे हालात को, पॉलिटिक्स को, न सिर्फ बयान कर रहा है, बल्कि एक सीख भी दे रहा है कि गांधारी जी कहती हैं पितामाह से कहती हैं कि आप ज्यादा जानते हैं. आप युधिष्ठिर को क्यों नहीं समझाते, पितामाह कहते हैं कि जब छाया शरीर से लंबी हो जाये, तो समझ लेना चाहिए कि सूर्यास्त होने वाला है. इसे कहते हैं कुल्हड़ में दरिया भरना. इतने छोटे से जुमले के अंदर इतनी बड़ी बात पितामाह की जुबान से कहलावा दी. वो बेपनाह लिखने वाले थे.

फिल्मी गीतों की तरह डायलॉग का भी मीटर होती है

जावेद बताते हैं कि मैं तुलसी तेरे आंगन का वो दृश्य जिसमें कोर्ट वाला सीन है. उन्होंने सात पेज का सीन लिखा, तो राही साहब जो थे बड़े प्यार से उन्होंने राज को दिया. और राही साहब ने सीन सुनाया. राज खोसला से पूछा तो उन्होंने अच्छ रिस्पांस नहीं दिया. आप एक काम कर सकते हैं, कि मैं जहां-जहां बोलता हूं, टुकड़ा काट दीजिये. सात पेज का सीन दो पेज का रह गया. राही साहब का कहना था कि जब मैंने दो पेज का सीन पढ़ा तो सीन तो यही कह रहा है. बेकार के अल्फाज थे. फिर उन्होंने मुझसे कहा कि फिल्मी गीतों की तरह डायलॉग का भी मीटर होता है. बढ़ जाये या घट जाये तो बेसूरा हो जाता है. राही साहब की खूबी थी कि उन्होंने ऐसे माहौल में अपनी वैल्यूज को जिंदा रखा.

एक साथ चार चीजें लिखते थे

जावेद बताते हैं कि राही साहब अजीब तरीके से लिखते थे. हम और आप उसका तसव्वुर नहीं कर सकते हैं. बैंड स्टैंड पर उनका कमरा हुआ करता था. दो बेड रूम हॉल का था. हॉल के अंदर सामने, राही साहब का गद्दा, तकिये. आधे लेटे, आधे बैठे, चार छह फाइलें रखते थे. एक साथ चार चीजें लिखते थे, उपंन्यास भी, डायलॉग भी, फिल्म भी, सीरियल भी, दोस्तों को खत भी. अखबारों के आलेख भी. यही नहीं घर में शोर हो रहा है. फिर भी वह लिख रहे हैं. पोता पीठ पर चढ़ कर घोड़ा-घोड़ा खेल रहा है और राही साहब लिख रहे हैं. उन्होंने खुद एक बार बताया था कि कोई प्रोडयूसर थे वो राही साहब को कश्मीर ले गये कि राही साहब ये अच्छी जगह है, आप एकांत में बैठ कर लिखिये. राही साहब 18-20 दिन रहे. वापस आये. खाली कागज लेकर गये थे, खाली कागज वापस आ गये. आपने लिखा क्यों नहीं. प्रोडयूसर ने पूछा तो कहा कि मुझे मेरे घर का शोर चाहिए. वह मेरे लिए म्यूजिक का काम करती है. बहुत मुश्किल इस तरह का कंस्रट्रेशन करना.

शेरवानी पहना करते थे, कहते कि मैं चलूंगा तो मेरी शेरवानी भी चलेगी

जावेद कहते हैं कि अपने तर्ज के इकलौते आदमी थे. वह शेरवानी पहना करते थे. अंगरखा पहना करते थे. शेरवानी भी ऐसी खुली रहती थी. उसके बटन नहीं लगाते थे. उसके अंदर से उ्यका चिकन का कुर्ता झलझल करता दिखाई देता था. उनका पानदान साथ होता था. और राही साहब थोड़ा लंगड़ा कर चलते थे. पोलियो हो गया था. लतीफे खूब अच्छे सुनाया करते थे., खूब ठहाका लगाते थे. जब वह मुंबई आये. तो भारत-भूषण जी ने बुलाया. तो लोगों ने कहा कि ये अलीगढ़ नहीं है न ही लखनऊ है. यहां आपकी शेरवानी नहीं चलेगी, अपना हुलिया तो बदलिये. राही साहब ने कहा मैं चलूंगा, तो मेरी शेरवानी भी चलेगी, मेरा अंगरखा भी चलेगा, कुर्ता भी चलेगा. सच यही है कि आखिर वक्त तक वो भी चले.किसी ने बाद में नहीं कहा . वो उनकी अदा बन गयी थी वह.

पर्सनल आर्गूमेंट नहीं अकादमिक डिस्कशन

जावेद बताते हैं कि जावेद और उनके विचारों को लेकर आपस में खूब मतभेद, बहसतलब होती थी. लेकिन जब भी बहस होता. वो बीच में अचानक कहते कि कुछ खाने को मंगवाईये, भूखे पेट कब तब लड़ेंगे. बांबे सेंट्रल से कीमा नान मंगवा उनके लिये.वो खाते, फिर वह मजे लेकर खाया. फिर खा चुकने के बाद. पान मुंह में रखा और पूछा हां भई तो कहां थे हम., जब खत्म हो जाये. वो उठे और कहने लगे कि मैं आपकी बात से इत्तेफाक नहीं रखता. जावेद कहते हैं कि मुझे यकीन था कि राही साहब मेरी शक्ल नहीं देखेंगे. लेकिन आपको ताज्जुब होगा कि आठ दिनों के बाद मिले तो कहने लगे कि वो कहानी पढ़ी क्या. मैं उनकी शक्ल देखने लगा कि एक हफ्ते पहले मुझसे लड़ कर गये हैं. लेकिन उस दिन मुझे एहसास हुआ कि बड़ा आदमी वही होता है,जो कि एकादमिक डिस्कशन को पर्सनल आर्गूमेंट नहीं बनाता है. उसके बाद बहुत सी मुलाकातें हुईं.


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