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    Movie Review: ‘सिंगल्स’ की दास्तान है, 'करीब करीब सिंगल', जानें मिले कितने स्टार्स

    By Hirendra JEdited By:
    Updated: Fri, 10 Nov 2017 04:10 PM (IST)

    यह किसी टिपिकल हिंदी फिल्म की तरह नहीं है। आप बड़ी सी मुस्कान साथ सिनेमाघर से बाहर निकलते हैं।

    Movie Review: ‘सिंगल्स’ की दास्तान है, 'करीब करीब सिंगल', जानें मिले कितने स्टार्स

     -स्मिता श्रीवास्तव

    मुख्य कलाकार: इरफान ख़ान, पार्वती, निधि जोशी

    निर्देशक: तनुजा चंद्रा

    हमारे समाज में तलाकशुदा, विधवा या अविवाहित लडक़ी के भावनाओं की कीमत नहीं होती। मर्दों की उन पर गिद्ध नजर रहती हैं। उनके ईदगिर्द मंडराते हैं। हालांकि यहां पर वैसा मामला नहीं है। निर्देशक तनुजा चंद्रा ने ‘करीब करीब सिंगल’ में सिंगल स्टेटस वाले लोगों की नब्ज पकड़ी है।

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    उन्‍होंने समकालीन सिंगल महिलाओं का परिवेश गढ़ा है। वे नौकरीपेशा, आधुनिक और स्वतंत्र है। उसकी चाहत हमसफर की है। मगर झिझकती हैं। उनके दोस्त अपनी स्‍वार्थसिद्धि करते हैं। उन्हें सिंगल होने का अहसास कराने से नहीं चूकते हैं। वह उनके स्वार्थ से वाकिफ होती है। फिर भी शिकायत नहीं करती। अपनी इच्छाओं को दबा देती है। दूसरों की खुशी में अपनी खुशी खोजती है। पुरानी यादों को जहन में समाए रहती हैं। उनके सहारे ही जिंदगी काटने की कोशिश करती हैं।

    नायिका जया शशिधरन ऐसी तमाम सिंगल लडक़ी का प्रतिनिधित्व करती है। उसके बहाने तनुजा ने अकेलेपन में घिरी लड़कियों के मर्म को छुआ है। इंश्‍यारेंस कंपनी में कार्यरत जया विधवा है। दस साल पहले उसके पति का निधन हो चुका है। वह मुंबई में रहती है। वह दोस्तों के काम राजी-खुशी कर देती है। दोस्त की बेटियां उसे स्टेपनी आंटी बुलाती हैं। अकेलेपन की घुटन में जी रही है। रात में नींद की गोलियां लिए बिना उसे नींद नहीं आती है।

    एक दोस्त नया जीवनसाथी खोजने को उकसाती रहती है। उसका भाई विदेश में पढ़ाई कर रहा है। आखिरकार जया डेटिंग साइट का सहारा लेती है। वहां उसे योगी मिलता है। वह उदार व्यक्तित्व का इंसान है। दोनों की मेल-मुलाकात होती है। बातों का सिलसिला बढ़ता है। योगी तीन बार प्यार में नाकाम रहा है। हालांकि उन्हें भूल नहीं पाया है। उसे यकीन है कि अभी भी वे भी उसे नहीं भूली होंगी।

    जया उसे उसकी खुशफहमी बताती है। योगी को यह स्वीकार्य नहीं। वह तीनों से मुलाकात की बात करता है। जया से साथ चलने को कहता है। जया पसोपेश में होती है। आखिरकार साथ चलने की स्वीकृति दे देती हैं। दोनों देहरादून, दिल्ली और गंगटोक की यात्रा पर निकल पड़ते हैं। वहां कई रोचक, दिलचस्प और रोमांचक मोड़ आते हैं। फिल्मों में आम तौर पर युवा प्रेम कहानियां आती रही हैं।

    हालांकि अब इक्का दुक्का 35 पार लोगों की प्रेम कहानी पर्दे पर आने लगी है। कामना चंद्रा की कहानी और तनुजा चंद्रा की निर्देशकीय कल्पना ने इस साधारण सी प्रेम कहानी को दर्शनीय बना दिया है। इससे पहले ‘संघर्ष’ और ‘दुश्मन’ में भी नायिका को नए अंदाज में पेश किया है। बहरहाल, ‘करीब करीब सिंगल’ सरल और सहज किस्‍सागोई है। तनुजा ने बेहद खूबसूरती से सभी चरित्रों को दृश्यों में मनमानी करने देती हैं।

    हर दृश्य में चरित्रों के बीच अद्भुत सामंजस्य दिखता है। फिल्म में देहादून, दिल्ली, अलवर और गंगटोक का सफर ताजगी देता है। वहां की हसीन वादियों को कैमरे में खूबसूरती से कैप्चर किया है। फिल्म के आर्ट डायरेक्ट और और कॉस्ट्यूंम डिजायनर ने कहानी के अनुरूप परिवेश और वेशभूषा पर ध्यान दिया है। फिल्म का बैकग्राउंड संगीत उसके साथ संगत बैठाता है। चरित्र की मनोदशा को बोल में पिराने की कोशिश हुई है।

    अर्से बाद फिल्ममेकिंग में लौटी तनुजा खूबसूरत रोमांटिक ड्रामा गढ़ा है। उन्हें इरफान और पार्वती का पूरा सहयोग मिला है। दोनों शानदार एक्टर है, इसलिए पटकथा की सीमाओं के शिकार नहीं होते। वे निजी प्रयास से दृश्यों को अर्थपूर्ण और प्रभावशाली बना देते हैं। दोनों की जुगलबंदी फिल्म को ऊंचे स्तर पर ले जाती है। यह फिल्म इरफान की अदाकारी,कॉमिक टाइमिंग और संवाद अदायगी से मन मोहती है। आम सी पंक्तियों में वे अपने अंदाज से हास्य और व्यंग्य पैदा करते हैं। कहीं-कहीं झकझोरते भी हैं। योगी के बिंदास अदांज, किलिंग एटीट्यूड, देसीपन और जिंदादिली को उन्‍होंने सही तरीके से पकड़ा है। उनकी मौजूदगी चमत्कार पैदा करती है। वहीं पार्वती ने अकेली महिला की दुविधा को बखूबी आत्मसात किया है।

    पर्दे पर दिख रहा उनका अकेलापन हर उस सिंगल शख्स की बानगी बन जाती है, जो तन्हाई से जूझ रहा है। यह उनकी पहली हिंदी फिल्म है। जया के लिए वह आवश्यक सादगी और ऊर्जा लाई हैं। बीच-बीच में उनकी मलयाली भाषा का प्रयोग अखरता नहीं है। उसकी भावनाएं उस भाषा से अनभिज्ञ दर्शकों तक बखूबी पहुंचती है। सहयोगी कलाकारों की भूमिका में आई नेहा धूपिया और बाकी कलाकार जंचते हैं।

    फिल्म में इंटरनेट के नफा-नुकसान का भी जिक्र है। योगी जैसी शरीफ, उदार लोग आशा की उम्‍मीद जगाते हैं। इससे जाने अनजाने में डेटिंग साइट का चित्रण आदर्शवादी हो गया है जबकि हकीकत में ऐसा होता नहीं है। लेखक ने योगी के किरदार को थोड़ा रहस्यमय रखा है। उसके किरदार की पड़ताल में जाने से लेखक ने परहेज किया है। हालांकि योगी के मिजाज को देखते हुए उसके अतीत में झांकने की उत्सुकता बढ़ती है। मगर वह जिज्ञासा अधूरी रह जाती है।

    खैर फिल्म का अंत में दोनों का स्टेट्स करीब करीब युगल होते दिखाया है। यह किसी टिपिकल हिंदी फिल्म की तरह नहीं है। आप बड़ी सी मुस्कान साथ सिनेमाघर से बाहर निकलते हैं।

    जागरण डॉट कॉम रेटिंग: 5 में से 3.5 (साढ़े तीन) स्टार

    अवधि: 2 घंटे 5 मिनट

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