'क्या सच में जंगलराज है...'बिहार को उबरने से रोक रहा OTT? शहर के लेखक ही क्यों नहीं दिखाना चाहते असली कहानी?
हाल ही में अमेजन प्राइम पर प्रदर्शित हुई वेब सीरीज ‘दुपहिया’ बिहार के कल्पित गांव धड़कपुर की कहानी कहती है। इससे पहले भी बिहार की कहानी दर्शाने के लिए कई फिल्मों और वेब सीरीज का सहारा लिया गया है लेकिन क्या ये असल में बिहार को प्रदर्शित करती हैं या फिर ये उसकी कल्पना मात्र है। मेकर्स को इस पर फोकस करने की जरूरत है।

एंटरटेनमेंट डेस्क, नई दिल्ली। बिहार में एक सहज-सरल ईमानदार प्रेमिल समाज की परिकल्पना पहले बड़ा पर्दा नहीं कर पा रहा था, अब ओटीटी भी उसी लकीर पर चल रहा है। बिहार दिवस समारोह (22-24 मार्च) के दौरान सिनेमा के इस पक्षपात पर प्रकाश डालता विनोद अनुपम का एक आलेख आज हम आपके सामने लेकर आए हैं।
ऐसा गांव पहली बार देखा
सहज ग्रामीण कथ्य को लेकर लोकप्रिय हो रही हाल ही में प्रदर्शित हुई वेब सीरीज ‘दुपहिया’ बिहार के कल्पित गांव धड़कपुर की कहानी कहती है। यह ऐसा बिहार है जहां लड़कियों में आत्मनिर्भर बनने की ललक है। वह गांव के लोगों को वैश्विक चुनौती के लिए तैयार कर रही हैं। किंचित शायद बड़े-छोटे किसी भी तरह के पर्दे पर बिहार का कोई ऐसा गांव पहली बार फिल्माया गया होगा, जो अपराध मुक्त होने के 25 वर्ष पूरे कर चुका हो, जहां एफआइआर खबर बनती हो।
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यह ऐसा बिहार है जहां प्रेम है, रिश्तों की खट्टी-मीठी बात है। जहां बेटी की शादी के लिए पूरा गांव खड़ा है। यह अलग बात है कि यहां बिहार होते हुए भी बिहार नहीं दिखता, लेकिन यह भी सच है कि ‘दुपहिया’ से पहले बड़े पर्दे पर बिहार का मतलब ‘मारदेब गोली कपार में, आइए न हमरा बिहार…’ में ही होता आया है।
पूर्वाग्रह से ग्रस्त परिकल्पना
इसमें यह भी आश्चर्य की बात है कि ‘दुपहिया’ के निर्माण से लेकर अभिनय तक में कोई भी महत्वूर्ण नाम बिहार से नहीं है। वहीं एक सत्य यह भी कि है ओटीटी की दशा और दिशा दोनों बदल देने वाली वेब सीरीज ‘पंचायत’ के लेखक से लेकर अधिकांश अभिनेता तक बिहार से हैं। लेकिन कहानी उत्तर प्रदेश में बलिया जिले के ग्राम फुलेरा चली जाती है। यह बिहार का बक्सर होता तो क्या फर्क पड़ता? वास्तव में दृश्य माध्यमों ने कई दशकों से बिहार की जो छवि गढ़ी है, उसमें फुलेरा जैसे अविकसित गांव की तो कल्पना की जा सकती है।
लेकिन ऐसे समाज को परिकल्पित नहीं किया जा सकता,जहां प्रह्लाद चा जैसे निस्स्वार्थ लोग हैं, जो 50 लाख रुपये हथेली पर लिए घूम रहे हैं कि कोई इसे नेक काम में लगा दो। जहां पालतू कबूतर के लिए विधायक से भी लड़ जाने वाला बम बहादुर हो। यहां ऐसे प्रधान के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता, जो अपने अधबने घर की दीवारों पर खुद से पानी सींच रहा हो। हां, भीमा भारती, चंदन महतो या साहेब हारुन शाह अली बेग को दिखाना हो तो बिहार की पृष्ठभूमि परफेक्ट है।
उबरने से रोकता ओटीटी
यदि बिहार के आरा से आप परिचित होंगे, तो धरमन चौक से भी परिचित होंगे। तोप चलाने में पारंगत धरमन बाई हर युद्ध में कुंवर सिंह के साथ रहीं और अंग्रेजों के साथ युद्ध करते हुए ही वीरगति को प्राप्त हुईं, लेकिन ओटीटी के लिए संजय लीला भंसाली जैसे फिल्मकार जब स्वतंत्रता संग्राम में तवायफों के योगदान की कहानियां ढूंढते हैं तो उन्हें सीमापार लाहौर के किस्से सुनाई दे जाते हैं। देश के लिए धरमन बाई का संघर्ष और बलिदान चाहे जितना भी महत्वपूर्ण रहा हो, इन्हें लाहौर की ‘हीरामंडी’ में ही संतोष मिलता है, जहां मल्लिकाजान और बिब्बोजान की नकली कहानियां सजाई जा सकें। शायद उन्हें डर हो कि बिहार पहुंचकर इनकी भव्य कहानियां डी क्लास हो जाएंगी।
तो वहीं बिहार पर केंद्रित सबसे लोकप्रिय सीरीज ‘महारानी’ बिहार की राजनीति के उस कालखंड को चित्रित करती है, जिसे बिहार का सबसे बुरा दौर माना जा सकता है। ओटीटी का कैमरा बिहार को किस तरह से देखता है, यह इससे भी समझ सकते हैं कि तीन सीजन में पसरी इस सीरीज में एक भी ऐसा जनप्रतिनिधि दिखाने की जरूरत नहीं समझी जाती, जिसे देख बिहार की राजनीतिक चेतना के प्रति सम्मान का भाव आए, सब के सब बेईमान अपराधी।
क्या हैं इन वेब सीरीज का फोकस?
इसी तरह ‘रंगबाज-डर की राजनीति’ में एक-एक पात्र, एक-एक घटना को आप पहचान सकते हैं। सीरीज यह समझाने में कहीं कोई कसर नहीं छोड़ती कि वह कहां की कहानी कह रही है। होगा कोई शहर जहां किसी अपराधी की तूती बोलती होगी, जिसने सरेआम तेजाब से नहलाकर दो भाईयों की हत्या कर दी हो, लेकिन यह भी सच है कि बिहार ही नहीं, किसी शहर की पहचान इतनी भर ही तो नहीं होती। मगर ओटीटी का फोकस इसी पर है कि बिहार को जंगलराज के दौर से निकलने ही न दिया जाए। ‘खाकी-द बिहार चैप्टर’ भी उसी दौर की कहानी कहती है। यह सिर्फ अपराधी और पुलिस के टकराव की कहानी होती तो उतनी चिंता नहीं होती,जिस तरह एक अपराधी के लिए पूरी सत्ता, पूरा पुलिस महकमा लगा होता है, यह बिहार को अपनी पहचान से उबरने नहीं देता।
बदलना होगा सोच का चश्मा
आश्चर्य नहीं कि कोई ओटीटी ‘गुल्लक’ लेकर बिहार नहीं आता। ‘दुपहिया’ आती भी है, तो बगैर बिहार आए, बिहार की कथा सुना जाती है। ‘अपहरण’, ‘गंगाजल’ जैसी फिल्मों ने बिहार की जो छवि निर्मित की थी, आज ओटीटी उसे थोड़ी और जीवंतता और विश्वसनीयता के साथ मजबूत कर रहा है। सीवान हो या शेखपुरा, ये सामान्य शहर ही हैं, जहां कामकाजी मेहनतकश लोग भी रहते हैं, लड़कियां कालेज जाती हैं और बच्चे पार्क में खेलने भी जाते हैं, लेकिन अधिकांश वेब सीरीज में जो बिहार दिखाया जाता है, लगता है वहां कोई सामान्य जनजीवन है ही नहीं। बिहार से गए फिल्मकार और लेखक भी इस बदलाव को रेखांकित करने की जरूरत महसूस नहीं कर रहे!
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