‘बूट पालिश’ से लेकर ‘आइ एम कलाम’ तक, ये फिल्में कहती हैं श्रम की आग में धधकते बचपन की कहानी
विश्व बाल श्रम निषेध दिवस(12 जून) पर विनोद अनुपम कहते हैं कि इस तरह से न तो बाल श्रमिकों के प्रति दर्शकों के मन में संवेदना जग पाती है न बाल श्रम के विरोध का मन बन पाता है।

मुंबई ब्यूरो, जेएनएन। हिन्दी सिनेमा का इतिहास उठाकर देखें, बात जब बालश्रम की होगी तो पाएंगे कि यह उसे अजीब से सम्मान के साथ दिखाने की कोशिश करता आया है। विश्व बाल श्रम निषेध दिवस(12 जून) पर विनोद अनुपम कहते हैं कि इस तरह से न तो बाल श्रमिकों के प्रति दर्शकों के मन में संवेदना जग पाती है, न बाल श्रम के विरोध का मन बन पाता है।
‘दीवार’ जैसी फिल्म में बालश्रम की झलक मिलती
हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री नई तकनीक, शैली, भाषा को सहज स्वीकार कर लेती है, लेकिन हर वर्ष 500 से अधिक फिल्म बनाने वाली इस इंडस्ट्री के 100 वर्ष से अधिक के इतिहास में चुनिंदा ऐसी फिल्में दिखती हैं, जिनमें बालश्रम की विडंबना संवेदना के साथ प्रदर्शित की गई हो। ‘दीवार’ जैसी फिल्म में बालश्रम की झलक मिलती भी है तो एक अजीब से ग्लैमर के साथ, जहां बूट पालिश करने वाला बालक फेंके हुए पैसे उठाने से मना कर देता है और दर्शक तालियां बजाते हैं। अपने श्रम के प्रति किसी बालक के मन में यह सम्मान प्रशंसनीय तो है, लेकिन दर्शक और समाज भी उस श्रम का सम्मान करने को तैयार हो जाए तो नीयत पर सवाल जायज है। अमिताभ बच्चन के एंग्री यंगमैन के दौर में अधिकांश फिल्में नायक के अनाथ होने से शुरू होती थीं। वहां बालश्रम तो दिखता था, लेकिन नायक के आपराधिक दुनिया में प्रवेश की पूर्वपीठिका के रूप में। ‘दयावान’ जैसी फिल्म में बालश्रमिक की आपराधिक सरगना के रूप में परिणति को देखते हुए, न तो संवेदना जग पाती, न उसके विरोध का मन बन पाता।
‘त्रिशूल’ में किया बालश्रम को गौरवान्वित
फिल्म ‘त्रिशूल’ में तो बालश्रम को गौरवान्वित करता एक अलग ही हिंदी सिनेमा दिखता है, जहां मां पांच साल के बच्चे से पत्थर तुड़वाते हुए गाती है ‘मैं तुझे रहम के साये में न पलने दूंगी’। वास्तव में यही हिंदी सिनेमा की सीमा है, जहां गहन संवेदनशील मुद्दे को भी ग्लैमर की छांव चाहिए, जिससे दर्शकों की संवेदना और समझ आहत न हो सके।
बालश्रम को रेखांकित करती पहली हिन्दी फिल्म बनाई ‘बूट पालिश’
हालांकि यह भी सच है कि अपनी सीमा से परे होकर हिंदी सिनेमा ने जब भी बालश्रम के मुद्दे को उकेरने की कोशिश की है, दर्शकों तक एक संवेदनशील सार्थक कृति पहुंची है, जिसने देश ही नहीं दुनियाभर र्में हिन्दी सिनेमा की धमक बनाई। हमेशा कुछ नया करने को आतुर राज कपूर ने 1954 में बालश्रम को रेखांकित करती पहली हिन्दी फिल्म बनाई ‘बूट पालिश’। फिल्म में ऐसी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को रेखांकित किया गया है, जहां भीख और बालश्रम में से एक का चुनाव किया जाना है और बच्चे बालश्रम का चुनाव करते हैं।
बालश्रम की दुनिया को मीरा नायर ने दिखाया ‘सलाम बांबे’ में
आजादी के तुरंत बाद जब चाचा नेहरू के प्रति देश के उत्साह पर सवाल की गुंजाइश भी नहीं थी, सवाल उठाने का जोखिम राज कपूर ही उठा सकते थे। ‘नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है, मुट्ठी में है तकदीर हमारी!’ कहीं न कहीं व्यवस्था के प्रति निराशा की अभिव्यक्ति थी, जहां बच्चों के बेहतर शिक्षा नहीं, श्रम पर संतोष को व्यक्त किया जा रहा था। ‘बूट पालिश’ दुनियाभर में प्रतिष्ठित प्रशंसित होने के बावजूद अपने दौर की अकेली फिल्म बनकर रह गई। इसी तरह की यथार्थ की कठोर जमीन बालश्रम की दुनिया 1988 में एक बार फिर मीरा नायर ने दिखाई ‘सलाम बांबे’ में। मुंबई में बसे स्लम एरिया के बच्चों के जीवन संघर्ष को दिखाने वाली इस फिल्म के लिए मीरा नायर ने अभिनेता भी वास्तविक जीवन से चुने थे। जाहिर है, दर्शकों ने कठिन जीवन को यहां पूरी संवेदना से महसूस किया।
‘आइ एम कलाम’ ने सही तरीके से कही बालश्रम की कहानी
नई सदी के नए दौर में जब हिंदी सिनेमा में नया कहने की सहूलियतें बढ़ीं, बालश्रम जैसे मुद्दे पर ‘नन्हें जैसलमेर’, ‘चिल्लर पार्टी’, ‘स्टेनली का डिब्बा’ जैसी कुछ उल्लेखनीय फिल्में बनीं। इस क्रम में सबसे महत्वपूर्ण फिल्म ‘आइ एम कलाम’ मानी जा सकती है। नील माधव पांडा निर्देशित फिल्म में हमारे पूर्व राष्ट्रपति कलाम साहब को ढाबे में काम करने वाले बच्चे के प्रेरणास्रोत के रूप में दिखाया गया है।
वास्तव में बालश्रम आज मजबूरी हो सकती है, लेकिन उससे निकलने की जिद जरूरी है। इस मायने में ‘आइ एम कलाम’ एक खास फिल्म है। यहां ब्रह्मानंद सिंह की ‘झलकी’ का उल्लेख आवश्यक है, जिसमें कालीन उद्योग में बंधुआ मजदूरी और बाल तस्करी को रेखांकित करने की कोशिश की गई है। उम्मीद कर सकते हैं, जिस तरह सिनेमा की तकनीक सहज और सस्ती हुई है, बालश्रम के प्रति भी सिनेमा की आवाज मुखर होगी।

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