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    Interview: सोशल मीडिया ट्रोल्स पर फोकस करेंगे तो वो आपको नीचे खींचकर ले आएंगे- फरहान अख़्तर

    By Manoj VashisthEdited By:
    Updated: Thu, 29 Jul 2021 05:06 PM (IST)

    Farhan Akhtar Interview रिलीज़ से पहले फ़िल्म पर लव जिहाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाते हुए सोशल मीडिया में बायकॉट के कैंपेन भी चले। फ़रहान ने इन सब मुद्दों पर जागरण डॉटकॉम से खुलकर बात की। उनसे एक्सक्लूसिव बातचीत के अंश।

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    Farhan Akhtar in Toofaan. Photo- Film PR

    मनोज वशिष्ठ, नई दिल्ली। अमेज़न प्राइम वीडियो पर फ़रहान अख़्तर की फ़िल्म तूफ़ान रिलीज़ हुई। इस फ़िल्म में फ़रहान ने एक बॉक्सर का किरदार निभाया। फ़िल्म में उनके किरदार और मेहनत की ख़ूब तारीफ़ हुई। रिलीज़ से पहले फ़िल्म पर लव जिहाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाते हुए सोशल मीडिया में बायकॉट के कैंपेन भी चले। फ़रहान ने इन सब मुद्दों पर जागरण डॉटकॉम से खुलकर बात की। उनसे एक्सक्लूसिव बातचीत के अंश। 

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    तूफ़ान के लिए आपको इतनी बधाइयां मिल रही हैं। जवाब देते-देते अंगुलियां दर्द कर रही होंगी...

    (हंसते हुए) जब प्यार भरे मैसेज आते हैं और ख़ुशी के मैसेज आते हैं तो अंगुलियों में दर्द कभी नहीं होता। 

    क्रेडिट रोल्स के मुताबिक कॉन्सेप्ट आपका है। डोंगरी में रहने वाले अज्जू किरदार को गढ़ने के पीछे आपकी क्या सोच थी?

    बहुत सारी चीज़ें दिमाग में एक साथ चल रही थीं। कहानी तो बॉक्सिंग की है। अगर हम खेल का इतिहास देखें और ज़िंदगी में भी देखें तो जो बॉक्सर्स हैं, वो कभी भी अमीर या बड़े घरानों से नहीं आते। वो सड़क से ऊपर उठकर आते हैं। ज़िंदगी ने उन्हें जो दिया है, उससे उठने की कोशिश में वो बॉक्सर बनते हैं या ज़िंदगी में ऐसे काम करते हैं। यह एक कॉमन थ्रेड है सारे बॉक्सर्स की जर्नी में। हम चाहते थे कि मुंबई का एक कैरेक्टर हो, जिसे हम सड़क से उठाकर नेशनल लेवल का बॉक्सर बनते हुए दिखाएं। इसके अलावा कहानी में और भी बातें हैं। जैसे वो एक मुसलमान है। लड़की हिंदू है। उसको लेकर भी इशू होते रहते हैं। उस वजह से हमें लगा कि यह जो कैरेक्टर है अज़ीज़ अली या अज्जू का, वो मुंबई नागपाड़ा से हो। डोंगरी से हो तो वो विश्वसनीय लगेगा।

    पर्दे पर बॉक्सर बनने के लिए आपकी मेहनत साफ़ नज़र आती है। कितना वक़्त लगा इसकी तैयारियों में?

    जिस दिन से शूटिंग शुरू हुई और जब फ़िल्म की शूटिंग ख़त्म हुई, 18 महीने लगे। मेरी ज़िंदगी का डेढ़ साल इस फ़िल्म और इस ज़िंदगी को समर्पित था। मुझे लगा, इस किरदार को ईमानदारी के साथ निभाने की कोशिश करनी चाहिए, ताकि लोगों को लगे कि यह असलियत में वही इंसान है। वो फिट हो या फैट हो... जो भी आप कहें, परफॉर्मेंस के लिए ज़रूरी था। दर्शकों को लगे कि वास्तव में ऐसा हो रहा है।

    किरदार के लिए वज़न घटाना-बढ़ाना, मुश्किल एक्सरसाइज़ और एक कड़ी दिनचर्या का पालन करना निजी तौर पर आपको कितना प्रभावित करता है?

    जब आप कोई ऐसा काम करो, जो दिल से करना चाह रहे हो तो फिर उसके बाद आप यह नहीं सोचते कि वक़्त कितना लगेगा। कितना समय ख़र्च होगा। कितने पैसे ख़र्च होंगे। मुझे पैसे मिलेंगे या नहीं मिलेंगे। आप वो सारी चीज़ें नहीं सोचते हैं। इस तरह की चीज़ों के लिए एक तरह का पागलपन होना ज़रूरी है। मैं चाहता था कि जो ज़िंदगी इस फ़िल्म में अज़ीज़ अली जी रहा है, मुझे भी बिल्कुल उसी तरह से जीना पड़ेगा। वरना बात बनेगी नहीं। उसके लिए जितना भी वक़्त लगे, मेहनत लगे, वही सही होगा।

    अज्जू जैसा किरदार आपने पहली बार निभाया है। उसकी बोलचाल, हाव-भाव के लिए अलग से कुछ तैयारी की?

    हमारे डायलॉग राइटर (विजय मौर्य) हों या हमारे को-एक्टर हुसैन हों, परेश भाई हों, विजय राज़ हों, उनके साथ बैठकर रीडिंग की तो वो फ्लेवर आ जाता है। ऐसा नहीं है कि मैं उन लोगों (डोंगरी में रहने वाले) को जानता नहीं। उसी शहर से हूं। जब ईद या रमज़ान चल रहे हों तो वहां शाम को जाकर खाना खाना अलग ही बात होती है। वहां जाते रहते हैं। तो ऐसे लोगों (अज्जू) को पहचानते हैं। जानते हैं कि किस तरह का इंसान है। किस तरह का अंदाज़ है। हुसैन (हुसैन दलाल- फ़िल्म में फ़रहान के दोस्त मुन्ना) से मुझे बहुत कुछ जानने को मिला, क्योंकि उसने बताया था कि उसकी पैदाइश और परवरिश मझगांव और डोंगरी इलाक़े में ही हुई है। मैं उससे सुनता था कि अगर कोई अपने आप को हीरो मानता है तो किसी तरह से अपने आप को एड्रेस करता है। उन्हें क्या चीज़ें कूल लगती हैं। यह सारी चीज़ें उससे सीखीं और फिर डिक्सशन में बहुत सारी बातें निकलीं, तो वो सब अज्जू भाई में डाला।

    राकेश ओमप्रकाश मेहरा के साथ इससे पहले आपने भाग मिल्खा भाग की। बहुत मेहनत करवाते हैं आपसे...

    (ज़ोर से हंसते हुए) मेहरा साहब से बोलिएगा। अगली बार एक प्यारी सी छोटी सी लव स्टोरी बनाएं। अगर स्पोर्ट्स फ़िल्म बनाएं तो स्नूकर या चेस के बारे में बना लें, जिससे मुझे कम फिजिकल मेहनत करनी पड़े।

    रिलीज़ से पहले फ़िल्म के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया में कैंपेन चला। फ़िल्म की रिलीज़ से पहले बायकॉट की बातें करना चलन बनता जा रहा है। बतौर फ़िल्ममेकर इस पर क्या कहना चाहेंगे?

    कोई फ़िल्ममेकर या कोई एक्टर नहीं चाहता कि ऐसा ट्रेंड हो। एक इंसान भी ऐसा सोचे तो क्यों सोचे, लेकिन सोशल मीडिया एक ऐसी चीज़ बन गयी है, जिसे आप कंट्रोल तो नहीं कर सकते। लोगों को जो कहना है। किसी तरह का कैंपेन चलाना चाहते हैं, उसे कोई रोक नहीं सकता। आपको यह ध्यान रखना है कि आपने जिन लोगों के लिए फ़िल्म बनायी है। उन तक आपकी फ़िल्म का मैसेज पहुंचना ज़रूरी है। यह भटकाव तो होते रहेंगे। अगर उन पर ज़्यादा फोकस करेंगे तो वो लोग नेगेटिविटी से आपको नीचे खींचकर लेकर आएंगे। हमने पूरी मेहनत और दिल से इस फ़िल्म को तैयार किया है। हमारा फोकस वही रहना चाहिए कि हम उसी फ़िल्म के बारे में बात करें। हमारा ध्यान ना भटके। मगर, सच तो यह है कि कोई बिना फ़िल्म देखे, फ़िल्म के बारे में या आपके काम के बारे में कहता है कि इसे मत देखो तो अफ़सोस तो होता है। आख़िर हम लोग भी इंसान ही तो हैं।

    पैनडेमिक के दौरान फ़िल्म की रिलीज़ आपने टाल दी थी। सभी ने काफ़ी मुश्किल वक़्त देखा। उस दौर को लेकर क्या कहेंगे?

    जब हमने देखा कि स्थिति इतनी बिगड़ गयी है। लोगों को दवाइयों और आक्सीजन की ज़रूरत थी। हॉस्पिटल बेड की ज़रूरत थी। एम्बुलेंस की ज़रूरत थी। इस बीच में यह आकर कहना कि मेरी फ़िल्म देख लो। बहुत असंवेदनशील बात होती। हमने अपनी फ़िल्म पोस्टपोन की। हमें लगा यही सही बात होगी। अगर हम अपने सोशल मीडिया के ज़रिए मदद पहुंचा सकते हैं तो बेशक करना चाहिए हमें। रितेश (सिधवानी) और मेरी पूरी टीम को हिदायत थी। लोगों ने मुझे पर्सनल भी मैसेज भेजे। इंदौर से, लखनऊ से। अलग-अलग शहरों से। जहां तक हो सका, हमने मदद की। बहुत दुख होता था, जब नहीं हो पाता था। हर चीज़ के लिए इतनी भीड़ थी। क्या कर सकते थे उसके अलावा। बहुत दुख होता था देखकर, पढ़कर क्या हो रहा है। बहुत दुखद वक़्त था।

    10 अगस्त को आपको इंडस्ट्री में 20 साल पूरे हो रहे हैं। निर्देशन से शुरू करके आप एक्टर और सिंगर भी बन चुके हैं। इस जर्नी को लेकर अब क्या सोचते हैं?

    जो जज़्बा था शुरू में फ़िल्म बनाने का। कोशिश तो वही की है कि वही जोश बरकरार रहे हर फ़िल्म के साथ। मैं ख़ुद को लकी मानता हूं। उन लोगों का धन्यवाद करता हूं, जिन लोगों ने इस सफ़र में मेरा साथ दिया। मुझ पर अपने टैलेंट के साथ भरोसा किया। यही उम्मीद करूंगा कि लोग मुझे रचनात्मक अभिव्यक्ति के मौक़े देते रहें। यही मेरी ज़िंदगी है। मैं अपनी फ़िल्मों के ज़रिेए लोगों की ज़िंदगी में ख़ुशी लाऊं।

    आपको सबसे ज़्यादा ख़ुद को किस रूप में देखना पसंद है- निर्देशक, निर्माता, गायक या कलाकार?

    जब मैं अपने बैंड के साथ जाकर लाइव कॉन्सर्ट करता हूं, तब सबसे अधिक ख़ुशी मिलती है। लाइव फरफॉर्म करने की फीलिंग अलग ही होती है। जब एक्टर थिएटर मैं काम करता है, तो उसका जो अनुभव होगा, दर्शकों की प्रतिक्रियाओं का, परफॉर्मेंस का, वैसा महसूस होता है। वो फ़िल्म से बहुत अलग होता है। उसमें एक अलग तरह की ख़ुशी है।

    निर्देशन में आपकी वापसी कब होगी?

    यह तो वक़्त ही बताएगा या कहूं कि पैनडेमिक ही बताएगा। उम्मीद तो बिल्कुल है कि मैं फ़िल्म डायरेक्ट करूंगा और उम्मीद यह भी है कि जल्द आप सब लोगों के साथ एक अच्छी ख़बर शेयर करूंगा। थोड़ा वक़्त लगेगा, लेकिन मैं करूंगा ज़रूर।