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जब संगीतकार से भिड़ गए थे निर्देशक वी, शांताराम, 65 साल पुरानी फिल्म से जुड़ा है रोचक किस्सा

दिग्गज निर्देशक रहे वी. शांताराम (V Shantaram) ने 65 साल पहले एक ऐसी फिल्म बनाई थी जिसने अपनी कहानी और संगीत से हिंदी सिनेमा की परिभाषा को बदलकर रख दिया था। लेकिन इस मूवी के सेट पर शांताराम एक म्यूजिक डायरेक्टर से भिड़ गए थे। इसके पीछे की वजह क्या थी और वो कौन सी फिल्म थी आइए इस लेख में जानते हैं।

By Ashish Rajendra Edited By: Ashish Rajendra Updated: Sun, 15 Sep 2024 05:30 AM (IST)
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नवरंग मूवी डायरेक्टर वी शांताराम (Photo Credit-X)

 संजीत नार्वेकर, मुंबई डेस्क। वी. शांताराम की वह फिल्म जिसकी कहानी से लेकर गीतों तक में मौजूद रहे ढेरों रंग। मगर वह क्या वजह थी कि ‘नवरंग’ के सेट पर मच गया दो दिग्गजों के बीच घमासान। ‘नवरंग’ आने वाले 18 सितंबर को प्रदर्शन के 65 वर्ष पूरे करने जा रही है। इस पर एक खास आलेख आपके लिए प्रस्तुत है।

कैसे आया नवरंग का आइडिया

श्वेत-श्याम रंगत वाले घर के दरवाजे खुलते हैं। धवल वस्त्र पहने वी. शांताराम घर से निकलते हैं और सीधा कैमरे में देखते हुए कहते हैं, ‘दो साल पहले ‘दो आंखें बारह हाथ’ का क्लाइमैक्स शूट करते हुए मेरी आंखों की रोशनी लगभग चली गई थी। उस अंधकार में भी मुझे कुछ रंग नजर आते थे और इस तरह मेरे दिमाग में ऐसे कवि की कहानी आई, जो कल्पनाओं के बलबूते वह देख सकता है, जिसे पूरी दुनिया नहीं देख सकती।

आज जब मेरी दृष्टि पुन: लौट आई है, मैं रंगों का वही परिदृश्य आपके सामने प्रस्तुत करना चाहता हूं, जो मेरी उस अंधेरी दुनिया के साथी थे।’ ऐसा कहते ही सामने रखे नौ कलश ढलकने लगते हैं और फिल्म का शीर्षक ‘नवरंग’ (1959) सामने आता है।

क्या था फिल्म की कहानी

ब्रिटिश राज के अंतिम वर्षों में सेट यह कहानी कवि दिवाकर उर्फ नवरंग (महिपाल) की थी। कल्पनाओं की दुनिया में गुम रहने वाला दिवाकर अपनी पत्नी जमुना (संध्या) को एक गायिका और नर्तकी के रूप में देखता है और यह कल्पना उसकी प्रेरणा मोहिनी का रूप ले लेती है।

दिवाकर की प्रतिभा से मंत्रमुग्ध होकर राजा उसे राजकवि नियुक्त करते हैं। एक दिन मोहिनी के प्रति दिवाकर के काल्पनिक प्रेम को वास्तविक समझकर जमुना अपने पति को छोड़कर कहीं चली जाती है। अंत में गलतफहमी दूर होती है और पति-पत्नी में सुलह हो जाती है। फिल्म की यह सामान्य सी पटकथा 12 गीतों में गूंथी गई थी। सभी हिट रहे। विशेष तौर पर ‘आधा है चंद्रमा, रात आधी’, ‘अरे जा रे हट नटखट’, ‘कारी कारी कारी अंधियारी थी रात’ और ‘श्यामल श्यामल बरन’।

वहीं क्लाइमैक्स का गीत ‘तू छुपी है कहां, मैं तड़पता यहां’ प्रेम में डूबे कवि और उसकी बिछड़ी हुई प्रेयसी की स्थिति की सटीक विवेचना करता है। ‘जमुना तू ही तो है मेरी मोहिनी’ की हृदयविदारक विनती को कौन भूल सकता है, जिसने पति-पत्नी की गलतफहमियों को दूरकर उन्हें एक कर दिया।

अद्भुत था फिल्म का संगीत

सी. रामचंद्र, जिन्होंने पहले राजकमल की ‘परछाई’ (1952) और ‘सुबह का तारा’ (1954) के लिए संगीत दिया था, को कंपनी के वेतन भोगी संगीत निर्देशक वसंत देसाई के स्थान पर बुला लिया गया था, वजह थी रचनात्मकता का टकराव। देसाई से शांताराम के अलग होने की बात गीत ‘आधा है चंद्रमा’ के संगीत रिहर्सल के दौरान हुई।

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गीत के बोल लिखने वाले पंडित भरत व्यास ने अपनी धुन के साथ गीत प्रस्तुत किया, जो शांताराम को बेहद पसंद आया और उन्होंने प्रतिक्रिया के लिए वसंत देसाई की ओर रुख किया। शांताराम ने आत्मकथा ‘शांताराम’ में इस पल के बारे में लिखा है: मैंने कहा कि ‘भरतजी ने बहुत ही मधुर धुन के साथ बहुत ही अच्छी रचना लिखी है। देसाई जी,आप इस बारे में क्या सोचते हैं?’ वसंत देसाई ने जवाब दिया, ‘मेरे पास इस गाने के लिए 64 धुनें हैं।’

तब मैंने कहा,

‘देखिए मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि आपके पास इस गाने के लिए 64 या 100 धुनें हो सकती हैं, लेकिन जब हमें किसी कलाकार से कोई बढ़िया रचना मिलती है, तो हमें खुले दिल से उसकी सराहना करनी चाहिए। अगर हम सिर्फ अपना महत्व बढ़ाने के लिए दूसरों की रचनाओं को कमतर आंकते रहेंगे, तो हम अच्छे और बुरे में अंतर नहीं कर पाएंगे।’ वैसे दोनों के बीच तनातनी बहुत पहले ही ‘दो आंखें बारह हाथ’ के संगीत रिहर्सल के दौरान शुरू हो गई थी।

आपस में टकरा गए दो दिग्गज

शांताराम लिखते हैं: ‘हम पंडित भरत व्यास द्वारा लिखे गए ‘ऐ मालिक तेरे बंदे हम’ के लिए कई धुनें आजमा रहे थे। पंडित जी ने अपनी कुछ धुनें सुझाईं, जिन्हें वसंत देसाई ने अस्वीकार कर दिया। मैंने अंतिम फैसला सुनाते हुए कहा कि पंडित जी की धुन को स्वीकार किया जाना चाहिए। स्वाभाविक रूप से, वसंत देसाई इस फैसले से खुश नहीं थे।’

यह असहज स्थिति दोबारा उत्पन्न न हो, इस आशंका से देसाई ने कुछ दिनों बाद शांताराम को संदेश भेजा, ‘मेरे पास अन्य निर्माताओं से कुछ प्रस्ताव हैं। कृपया मुझे उन असाइनमेंट को स्वीकार करने की अनुमति दें। अन्यथा, मुझे मुक्त कर दें।’ शांताराम ने तुरंत जवाब दिया, ‘आप स्वतंत्र हैं।’ बाद में देसाई ने राजकमल में ‘लड़की सह्याद्री की’ के लिए संक्षिप्त वापसी की, जिसका प्रदर्शन इतना निराशाजनक था कि दुखी शांताराम ने मूल निगेटिव और प्रिंट को जलाकर राख कर दिया था!

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नाम में छुपा था प्यार

अगर ‘नवरंग’ के गीत और संगीत यादगार थे, तो फिल्म में डांस सीक्वेंस भी बेमिसाल रहे। फिल्म में इसका श्रेय ‘श्याम’ को दिया गया। आत्मकथा में वी. शांताराम ने इस रहस्य को उजागर किया कि यह कोई और नहीं बल्कि संध्या थीं, जिन्होंने फिल्म के लिए कोरियोग्राफी की थी। जब शांताराम ने पूछा कि संध्या को यह उपनाम कहां से सूझा तो उन्होंने बस इतना कहा, ‘यह मेरे पसंदीदा व्यक्ति के नाम का पहला व आखिरी अक्षर है।’ वी. शांताराम को इस बात को समझने में कुछ समय लगा कि असल में यह उनके लिए ही कहा गया था।