इतना हंसों की आंखों से आंसू निकल पड़े...
हंसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े, इतना हंसों की आंखों से आंसू निकल पड़े। सुप्रसिद्ध गीतकार और शायर अख्तर हुसैन रिजवी उर्फ कैफी आजमी भले ही आज इस दुनिया में नहीं हो लेकिन, उनकी शायरी व उनके द्वारा लिखे हुए गीत आज भी लोगों की जुबान पर मौजूद हैं।
नई दिल्ली। हंसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े, इतना हंसों की आंखों से आंसू निकल पड़े। सुप्रसिद्ध गीतकार और शायर अख्तर हुसैन रिजवी उर्फ कैफी आजमी भले ही आज इस दुनिया में नहीं हो लेकिन, उनकी शायरी व उनके द्वारा लिखे हुए गीत आज भी लोगों की जुबान पर मौजूद हैं। कैफी साहब ने अपनी जिंदगी में बहुत संघर्ष किए। लेकिन उनमें सबसे बड़ी खास बात यह थी कि वह बाहर रहते हुए भी अपने गांव मिंजवा से जुड़े रहे और उन्होंने इस गांव के विकास के लिए बहुत कुछ किया जिसे भुलाया नहीं जा सकता है।
तस्वीरों में देखें: याद आए आजमी
कैफी आजमी का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के मिंजवा गांव में 19 जनवरी 1919 को हुआ था। किशोर अवस्था में हीं कैफी आजमी ने मुशायरों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। वहां पर लोग उनकी काफी प्रशंसा करते थे। इस दौरान उनके पिता की सोच यह थी कि कैफी अपनी गजल नहीं बल्कि अपने बड़े भाई की गजलों को सुनाया करते हैं।
कैफी आजमी की प्रारंभिक शिक्षा लखनऊ में हुई थी। पिता हुसैन कैफी आजमी को ऊंची से ऊंची तालीम देना चाहते थे और इसी उद्देश्य से उनका दाखिला लखनऊ के प्रसिद्ध सेमिनरी 'सुल्तान उल मदारिस' में कराया गया। पर कैफी आजमी कभी भी उच्च शिक्षा की ख्वाहिश नहीं रखते थे। सेमिनरी में अपनी शिक्षा यात्रा के दौरान वहां की कुव्यवस्था को देखकर कैफी आजमी ने छात्र संघ का निर्माण किया और अपनी मांग की पूर्ति नहीं होने पर छात्रों से हड़ताल पर जाने की अपील की।
इस बीच, हैदराबाद में एक कार्यक्रम के दौरान कैफी आजमी की मुलाकात शौकत आजमी से हुई और उनकी यह मुलाकात जल्दी ही शादी में बदल गई। आजादी के बाद उनके पिता व भाई पाकिस्तान चले गए लेकिन कैफी आजमी ने हिंदुस्तान में ही रहने का निर्णय लिया।
शादी के बाद बढ़ते खर्चो को देखकर कैफी आजमी ने एक उर्दू अखबार के लिए लिखना शुरू कर दिया जहां से उन्हें 150 रुपये माहवार वेतन मिला करता था। उनकी पहली नज्म 'सरफराज' लखनऊ में छपी। शादी के बाद उनके घर का खर्च बहुत मुश्किल से चल पाता था।
कैफी आजमी अपने कार्यक्रम के लिए प्राय: देश-विदेश जाते रहते थे, लेकिन उनका अपने गांव मिंजवा से जुड़ाव हमेशा से रहा। गांव की विकास के लिए उन्होंने बहुत सारे कार्यक्रम चलवाये। महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उन्होंने चिकन की कढ़ाई-बुनाई का केंद्र खुलवाया। उन्होंने बेहतर शिक्षा के लिए स्कूल से लेकर कालेज तक खुलवाया।
वर्ष 1959 में गुरुदत्त की फिल्म 'कागज के फूल' में उनके रचित गीतों से उन्हें फिर से नई पहचान मिली। कैफी आजमी को अपने गीतों के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, एफ्रो एशियन लेखक पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, उर्दू अकादमी का मिलेनियम अवार्ड, महाराष्ट्र सरकार का ज्ञानेश्वर पुरस्कार, युवा भारतीय पुरस्कार जैसे कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। बहुमुखी प्रतिभा के धनी कैफी आजमी ने फिल्म 'गर्म हवा' की कहानी, संवाद और स्क्रीन प्ले भी लिखे जिनके लिए उन्हें फिल्म फेयर के पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।
फिल्म 'हीर रांझा' के डायलॉग के साथ-साथ कैफी आजमी ने श्याम बेनेगल की फिल्म 'मंथन' की पटकथा भी लिखी। इसके अलावा वर्ष 1995 में प्रदर्शित फिल्म 'नसीम' में उन्होंने अभिनय भी किया। कैफियत झंकार आखिरे शब, अवारा सज्दे जैसी पुस्तकों को अंतरराष्ट्रीय पटल पर लाने वाले कैफी आजमी के नाम का यह महान सूरज 10 मई 2002 को हमेशा के लिए अस्त हो गया।
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