'प्रेम रोग' से 'पैडमैन' तक, जब बॉलीवुड फ़िल्मों में उठाए गये ज़रूरी मुद्दे, अब 'बधाई हो'!
शादी की उम्र के बच्चों को ख़ुद यह बात बड़ी अजीब लगती है कि उनके माता-पिता यह क़दम कैसे उठा सकते हैं। बधाई हो ऐसी ही सोच पर मज़ाकिया अंदाज़ में आघात करती है।
मुंबई। बॉलीवुड फ़िल्में सिर्फ़ मनोरंजन नहीं करतीं, बल्कि कई बार कहानियां समाज को आईना दिखाने का काम भी करती हैं। अलग-अलग दौर में ऐसी कहानियां और मुद्दे पर्दे पर आते रहे हैं, जिनको लेकर समाज में एक नकारात्मक सोच या पूर्वाग्रह रहता है। फ़िल्मों के ज़रिए ऐसी सोच पर प्रहार किया जाता रहा है।
अमित रवींद्रनाथ शर्मा की 'बधाई हो' ऐसी ही फ़िल्म है, जो एक बेहद सामाजिक मुद्दे को एड्रेस करती है। जवान बच्चों के माता-पिता अगर संतानोत्पत्ति करते हैं, तो इसे हमारे समाज में सही नहीं समझा जाता। तरह-तरह की बातें की जाती हैं, मज़ाक उड़ाया जाता है। शादी की उम्र के बच्चों को ख़ुद यह बात बड़ी अजीब लगती है कि उनके माता-पिता यह क़दम कैसे उठा सकते हैं। बधाई हो ऐसी ही सोच पर मज़ाकिया अंदाज़ में आघात करती है।इस फ़िल्म के नायक आयुष्मान खुराना हैं, जबकि उनके साथ सान्या मल्होत्रा हैं, जिन्होंने आमिर ख़ान की फ़िल्म 'दंगल' से डेब्यू किया था और विशाल भारद्वाज की फ़िल्म 'पटाख़ा' में लीड रोल में नज़र आयीं। 'बधाई हो' में आयुष्मान के माता-पिता के रोल में नीना गुप्ता और गजराज राव हैं। फ़िल्म 18 अक्टूबर को रिलीज़ हो रही है।
आयुष्मान खुराना की यह तीसरी फ़िल्म है, जिसे सामाजिक रूप से प्रासंगिक और आवश्यक कहा जाएगा। इससे पहले 2017 में आयी आरएस प्रसन्ना निर्देशित फ़िल्म 'शुभ मंगल सावधान' में मेल इंफ़र्टिलिटी यानि पुरुषों में नपुंसकता के विषय पर रौशनी डाली गयी थी। मेल इंफ़र्टिलिटी को समाज में अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता और बीमारी से ज़्यादा इसे कमज़ोरी के तौर पर देखा और समझा जाता है। इसी मुद्दे पर 'शुभ मंगल सावधान' बात करती है। आयुष्मान खुराना के साथ भूमि पेडनेकर लीड रोल में थीं।
शूजित सरकार की डायरेक्टोरियल फ़िल्म 'विक्की डोनर' में स्पर्म डोनेशन जैसे अहम इशू के बारे में बात की गयी थी, जिसकी चर्चा करना आम ज़िंदगी में लगभग वर्जित समझा जाता है। हिंदी सिनेमा में इस सब्जेक्ट को इससे पहले कभी नहीं उठाया गया। यामी गौतम ने फ़िल्म में आयुष्मान की पत्नी का रोल निभाया था। इन फ़िल्मों के अलावा हाल ही में ऐसी तमाम फ़िल्में आयी हैं, जिन्होंने किसी ना किसी महत्वपूर्ण सामाजिक विषय को छुआ है।
इसी साल आयी अक्षय कुमार की हिट फ़िल्म 'पैडमैन' ने मासिक धर्म के दौरान स्त्रियों में स्वच्छता के ज़रूरी मुद्दे को हाइलाइट किया। यह ऐसा विषय है, जिस पर आज भी सामान्य घरों में चर्चा नहीं होती। माहवारी के दौरान महिलाओं पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगा दिये जाते हैं। धार्मिक अंधविश्वासों की वजह से भी इस मुद्दे को छुआछूत जैसा मान लिया जाता है। पैडमैन ने इस पर खुलकर बातचीत की और सैनिटरी पैड्स के इस्तेमाल के बारे में जागरूकता फैलाने की कोशिश की। अक्षय ने इस फ़िल्म में अरुणाचलम मुरुगनंतम पर आधारित किरदार निभाया था, जिन्होंने अपनी पत्नी को मासिक धर्म के दौरान पीड़ा में देखकर सस्ती क़ीमत के पैड्स बनाने की मशीन का आविष्कार किया था। राधिका आप्टे ने फ़िल्म में अक्षय की पत्नी का रोल निभाया।
2017 में ही आयी अक्षय कुमार की फ़िल्म 'टॉयलेट- एक प्रेम कथा' घरों में शौचालयों की अनिवार्यता और स्वच्छता का संदेश देती है। छोटे क़स्बों और गांवों में आर्थिक रूप से सक्षम होने के बावजूद धार्मिक कारणों के चलते तमाम बुजुर्ग घरों में शौचालय निर्माण के ख़िलाफ़ रहते हैं और खुले में शौच को प्राथमिकता देते है, जिसकी वजह से सबसे अधिक दिक्कत महिलाओं को होती है। कई बार उन्हें शर्मसार करने वाली परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। टॉयलेट एक प्रेम कथा एक पति की कहानी है, जो अपनी पत्नी से प्रेम की ख़ातिर अपने पिता की दकियानूसी सोच से लड़ जाता है और घर में शौचालय बनवाकर ही मानता है। इसी क्रम में उसकी यह ज़िद सामाजिक आंदोलन का रूप ले लेती है।
एक्टर श्रेयस तलपड़े ने 'पोस्टर बॉयज़' से डायरेक्टोरियल करियर शुरू किया। इस फ़िल्म में सनी देओल और बॉबी देओल लीड रोल्स में नज़र आए। फ़िल्म की कहानी नसबंदी को लेकर समाज में फैली भ्रांतियों पर आधारित है। अश्विनी अय्यर तिवारी की डायरेक्टोरियल डेब्यू फ़िल्म 'निल बटे सन्नाटा' ने प्रौढ़ शिक्षा के मुद्दे को एड्रेस किया था। फ़िल्म में स्वरा भास्कर ने हाउस मेड का रोल निभाया था, जो एक बच्चे की मां होती है और इसकी एजुकेशन के लिए वो ख़ुद भी स्कूल में दाख़िला लेती है। अलंकृता श्रीवास्तव की फ़िल्म 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्क़ा' उम्रदराज़ महिलाओं के यौन जीवन को लेकर समाज में फैले पूर्वाग्रहों को दर्शाती है। फ़िल्म में रत्ना पाठक के किरदार के ज़रिए इस इशू को हाइलाइट किया गया।
गौरी शिंदे की फ़िल्म 'इंग्लिश विंग्लिश' में गृहिणियों को रसोई घर तक सीमित कर देने वाली पुरुषवादी सोच पर कमेंट किया गया था। श्रीदेवी ने इस फ़िल्म में लीड रोल निभाया। कंगना रनौत की बेहतरीन अदाकारी वाली फ़िल्म 'क्वीन' शादी टूटने के सोशल स्टिग्मा को हाइलाइट करती है। विकास बहल की इस फ़िल्म में कंगना के किरदार के ज़रिए समझाने की कोशिश की गयी कि शादी टूटना लड़की के लिए कोई कलंक नहीं है।
प्रीति ज़िंटा ने अपने करियर की शुरुआत में 'क्या कहना' जैसी बोल्ड फ़िल्म में काम किया था। ये फ़िल्म शादी से पहले प्रेग्नेंसी को लेकर सोशल टैबू पर बात करती है। फ़िल्म में सैफ़ अली ख़ान ने मेल लीड रोल निभाया था। कुंदन शाह ने फ़िल्म को डायरेक्ट किया था। रेवती डायरेक्टेड फ़िल्म 'फिर मिलेंगे' में एड्स को लेकर सामाजिक सोच पर चोट की गयी। फ़िल्म में शिल्पा शेट्टी ने लीड रोल निभाया था, जबकि सलमान ख़ान ने गेस्ट एपीयरेंस किया और अभिषेक बच्चन ने अहम किरदार निभाया।
ओनीर की फ़िल्म 'माय ब्रदर निखिल' में भी एचआईवी संक्रमण की वजह से होने वाली सामाजिक दिक्कतों को उठाया गया। फ़िल्म में संजय सूरी और जूही चावला लीड रोल्स में थे। आरके फ़िल्म्स और ऋषि कपूर के करियर की बेहतरीन फ़िल्मों में से एक 'प्रेम रोग' में विधवाओं को लेकर समाज और परिवार के पूर्वाग्रहों को दिखाया गया था। फ़िल्म में पदमिनी कोल्हापुरे ने फ़ीमेल लीड रोल निभाया था। फ़िल्म का डायरेक्शन राज कपूर ने किया था।