बड़े पर्दे पर छा रहे हैं छोटे शहर, जानें कैसे बदला बीते कुछ सालों में सिनेमा का रूप
एक वक्त में मुंबई की रग-रग में बसा बालीवुड अब धीरे-धीरे मध्य प्रदेश उत्तर प्रदेश बिहार झारखंड और पंजाब सरीखे प्रदेशों में अपने लिए नई जमीन तलाश रहा है। अब वह नई ताजी अनकही कहानियां पाने के लिए रुख कर रहा है...
ईश्वर शर्मा। एक वक्त में मुंबई की रग-रग में बसा बालीवुड अब धीरे-धीरे मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पंजाब सरीखे प्रदेशों में अपने लिए नई जमीन तलाश रहा है। अब वह नई, ताजी अनकही कहानियां पाने के लिए रुख कर रहा है देश की हिंदी पट्टी के गांवों, कस्बों और मझोले शहरों की ओर...
अगर गहरी निगाह से बीते कुछ वर्षों में आई फिल्मों का ट्रेंड देखें तो पाएंगे कि स्विट्जरलैंड की बर्फीली वादियों में बांहें फैलाए खड़ा नायक अब पुराना पड़ चुका। अब नायक भारत के छोटे शहरों की तंग गलियों में दौड़ता, भदेस भाषा बोलता और लखनऊ, भोपाल या वाराणसी जैसे किसी मझोले शहर के किरदार को जीता नजर आता है। इन दिनों बन रही फिल्मों और वेब सीरीज में अब कृत्रिम कहानियों और रटे-रटाए फार्मूलों पर आधारित किस्से कम ही दिखते हैं। इनकी जगह एकदम जमीनी और खांटी सच सुनाने वाली वे कहानियां लेती जा रही हैं, जो गांवों-कस्बों या छोटे शहरों से निकलकर आती हैं। दरअसल, धीरे-धीरे फिल्म इंडस्ट्री पर मुंबई का अहंकारजन्य एकाधिकार टूट रहा है और इसे तोड़ रहे हैं उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे शहरों की सुरम्य लोकेशन और अपेक्षाकृत सस्ते कलाकारों वाले प्रदेश।
किमाम की तलाश करता सिनेमा
जिस तरह किमाम में एक अलग तरह की खुशबू होती है, जो दुनिया के महंगे से महंगे परफ्यूम में भी नहीं मिल सकती, उसी तरह भारत के छोटे, मझोले शहरों, कस्बों, गांवों में शूट किए जा सकने वाले दृश्यों में भारत, उसके जंगलों, गांव-गलियों, संस्कृति और लोकजीवन की एक गंध होती है, जो मुंबई, स्विट्जरलैंड या वेनिस की चमचमाती सड़कों अथवा कृत्रिम सेट में नहीं मिल सकती। यही वजह है कि बालीवुड के निर्माता, निर्देशक मुंबई के जमे-जमाए सेट्स वाला कंफर्ट जोन छोड़, हकीकत की कठोर जमीन पर फिल्में बनाने के लिए प्रदेश-दर-प्रदेश नए ठिकाने तलाश रहे हैं। फिल्मी दुनिया से बीते 30 साल से जुड़े केशव राय बताते हैं, ‘आप एक ही जगह को कितनी बार, कितने एंगल और कितनी कहानियों में दिखाएंगे? उन्हीं सेट्स पर नया करने की कोशिश करना काफी खर्चीला हो जाता है। इसलिए बालीवुड नई लोकेशन और नए चेहरों के जरिए कहानी कहने के लिए भारत के गांव-कूचों की ओर निकल पड़ा है।’ केशव राय की इस बात की पुष्टि धूल उड़ाती गलियों में शूट किए जा रहे वे दृश्य करते हैं, जो इन दिनों वेब सीरीज और फिल्मों में दिखाई देते हैं।
बौने साबित हो रहे नकली सेट
बालीवुड के कई निर्माता, निर्देशक, किस्सागो और कहानीसाजों को अपनी कहानियों के लिए ऐसी लोकेशन की भूख है, जिनमें संकरी गलियां, कस्बाई छौंक और रियलिस्टिक लगते दृश्य शूट हो सकें, जो दर्शकों को अपने से ही लगें और जिनके कारण फिल्म या वेब सीरीज में चौंका देने और भा जाने वाला नयापन व देसीपन भी मिले। बीते कुछ वर्षों में मध्य प्रदेश के इंदौर, भोपाल, महेश्वर, उत्तर प्रदेश के लखनऊ, वाराणसी, प्रयागराज और छत्तीसगढ़, झारखंड के जंगली इलाकों में फिल्मों और वेब सीरीज की शूटिंग बड़े पैमाने पर हो रही है। फिल्म निर्माता को इसका लाभ यह मिलता है कि महंगे सेट खड़े किए बिना भी अच्छे सीन शूट हो जाते हैं, जबकि अलग ढंग से कहानी कहने की कवायद में जुटे निर्देशक को नए, ताजगी भरे और अनूठे दृश्य सहज ही मिल जाते हैं। ऐसे दृश्य जो बालीवुड के मुंबइयां सेट्स की तमाम खासियतों को बौना साबित कर देते हैं।
बढ़ रहा दक्षिण का दबदबा
बालीवुड को दूसरी कड़ी चुनौती दक्षिण भारत की फिल्मों से मिल रही है। वर्तमान में बालीवुड का एक हिस्सा दक्षिण भारत की हिट फिल्मों की रीमेक या डब की गई फिल्में बनाने वाली इंडस्ट्री के रूप में भी ढलता जा रहा है। यह नए आइडिया के अभाव, जमीनी कहानियों की तलाश में कमी और भारत के मूल लोकजीवन से कट जाने का परिणाम है। दक्षिण भारतीय फिल्मों में कहानी की नवीनता, किस्सागोई में रवानगी, कहानी कहने की शैली, किरदारों का समर्पण, भारतीय वाद्य यंत्रों के जरिए रचा गया अनूठा संगीत आदि सब कुछ बालीवुड से कहीं अनूठा और श्रेष्ठ है। दक्षिण भारतीय सिनेमा का नायक अपने गांव, शहर, धर्म और देश के प्रति सम्मान और आदर से भरा हुआ नजर आता है। इस कारण भारत का लोकजीवन, भारत से प्रेम करने वाला दर्शक उन कहानियों से सहज ही जुड़ जाता है। ‘बाहुबली’ सीरीज की विराट सफलता के पीछे यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य था कि उस फिल्म ने भारत के गौरवबोध को जगाया। बालीवुड जहां 300 करोड़ रुपए क्लब की लकीर पीटता आया था, वहीं ‘बाहुबली’ ने ओवरआल 2000 करोड़ रुपए कमाए।
तो न होता वह प्रभाव
आप कल्पना कीजिए कि चंदेरी के भुतहा हवेलीनुमा महलों में हुई ‘स्त्री’ की शूटिंग मुंबई में होती तो क्या वैसा ही जादू जगा पाती? और क्या यूपी-बिहार की पृष्ठभूमि में शूट की गई अजय देवगन अभिनीत ‘रेड’ में जो दृश्य प्रभाव पैदा हुआ, वैसा मुंबई में पैदा होना संभव था? अपनी फिल्म ‘राजनीति’ की शूटिंग के लिए नई लोकेशन की तलाश में भोपाल पहुंचे प्रसिद्ध डायरेक्टर प्रकाश झा ने कहा था, ‘भोपाल जैसे मझोले शहरों की हवा में कुछ अलग सी देशज सुगंध है, जो फिल्म शूट करते वक्त उसके दृश्यों में चली आती है। फिर वह सोंधी सुगंध देश के एक बड़े दर्शक वर्ग को अपनी सी लगती है, क्योंकि वह ऐसी ही गलियों और परिवेश में रहता है, जो उसे उस फिल्म में दिखाई देते हैं। इस तरह वह फिल्म से खुद को जुड़ा महसूस करता है और उस फिल्म को देखने के लिए टिकट खरीदकर बाक्स आफिस पर अपना प्रेम लुटा देता है।’
आसान है चलना इन रास्तों पर
हाल ही में दादा साहब फाल्के फिल्म फेस्टिवल में श्रेष्ठ निर्देशक (डेब्यू) का अवार्ड जीतने वाली लघु फिल्म ‘लोमड़: द फाक्स’ के अभिनेता हेमवंत तिवारी कहते हैं, ‘भारत अब अपनी तरह की कहानी चाहता है। इसलिए बालीवुड को वासेपुर, बनारस, अलीगढ़, बालाघाट, चंदेरी, लखनऊ, प्रयागराज, धनबाद और महेश्वर, इंदौर जैसे कस्बों, छोटे शहरों की ओर लौटना पड़ रहा है।’ इन शहरों में निर्देशकों को सुरम्य और अनछुई-अनदेखी लोकेशन के अलावा हीरो-हीरोइन के साथ डांस करने के लिए अपेक्षाकृत कम महंगे साइड एक्टर्स, दृश्यों में दिखाने के लिए भोली भीड़, फिल्म क्रू को ठहराने के लिए कम खर्चीले होटल आदि सहज उपलब्ध हो जाते हैं। इससे फिल्म के कुल बजट में बड़ी राहत मिलती है। यहां लोग भी प्रोफेशनल कम और मन से जुड़ जाने वाले अधिक होते हैं। सोने पर सुहागा तो यह है कि इतने कम खर्च के बावजूद दृश्य में जो प्रभाव पैदा होता है, वह मुंबई के बने-बनाए सेट्स से कहीं बेहतर होता है।
इन फिल्मों को भाए छोटे शहर
बीते कुछ वर्षों में उत्तर प्रदेश में ‘तनु वेड्स मनु’, ‘शादी में जरूर आना’, ‘दावत-ए-इश्क’, ‘जाली एलएलबी-2’, ‘रांझणा’, ‘प्रेम रतन धन पायो’, ‘अलीगढ़’, ‘डेढ़ इश्किया’ और ‘रेड’ जैसी फिल्मों की शूटिंग हुई है। इसी तरह मध्य प्रदेश में ‘शेरनी’, ‘धाकड़’, ‘टायलेट: एक प्रेम कथा’, ‘स्त्री’, ‘पीपली लाइव’ सहित कई फिल्मों की शूटिंग हुई है। इन दिनों आयुष्मान खुराना की ‘डाक्टर जी’ भी मध्य प्रदेश में शूट हो रही है। ‘चाणक्य’ धारावाहिक के निर्देशक और अभिनेता डा. चंद्रप्रकाश द्विवेदी कहते हैं, ‘बीते कुछ वर्षों में भारत के सोचने-समझने की दिशा तेजी से बदली है। अब देशवासी अपने देश, शहरों-कस्बों के प्रति गर्व से भरे रहते हैं। यही बदलाव फिल्मों को देखने के इच्छुक दर्शकों की रुचि में भी दिख रहा है। इसीलिए भारत की मिट्टी में सनी कहानी कहती फिल्में , वेब सीरीज सफल हो रही हैं।