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    स्वावलंबन की मिसाल बने दशरथ मांझी के जज्बे को सिनेमा और पुस्तकों में प्रमुखता से उकेरा गया

    By Sanjay PokhriyalEdited By:
    Updated: Thu, 02 Jun 2022 04:50 PM (IST)

    Mountain Man Dashrath Manjhi माउंटनमैन को सलाम करता सिनेमा स्वावलंबन की मिसाल बने दशरथ मांझी के जज्बे को सिनेमा और पुस्तकों में प्रमुखता से उकेरा गया है। आजादी के अमृत महोत्सव पर माउंटनमैन पर केंद्रित पर आलेख पेश है ..

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    सुनील कुमार सिन्हा की 'पर्वत पुरुष दशरथ मांझी' आदि चर्चित हैं।

    स्मिता श्रीवास्तव। लोग अक्सर अपनी इरादों को व्यक्त करने के लिए पहाड़ों पर चढ़ जाने या उसे तोडऩे का दावा करते हैं। बिहार के दशरथ मांझी ने वास्तव में पहाड़ को काटकर रास्ता बना दिया था। यह असाधारण काम स्वावलंबन की मिसाल बना। दशरथ मांझी के इन मजबूत इरादों को सिनेमा और किताबों में उतारा गया है। केतन मेहता ने उन पर फिल्म 'मांझी: द माउंटेनमैन' का निर्माण किया तो कई किताबों में असंभव को संभव बना लेने वाले मांझी के साहसिक कार्य की गाथा को प्रस्तुत किया गया।

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    बिहार के गया जिले में सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े गांव गहलौर गांव में जन्मे दशरथ मांझी ने सच्चे प्रेम के लिए अपने मजबूत इरादों की बदौलत पहाड़ का सीना चीर दिया था। खाना ले जाते समय उनकी पत्नी फाल्गुनी पहाड़ के दर्रे में गिर गई थी। अस्पताल पहाड़ के दूसरी ओर था, जो करीब 55 किमी की दूरी पर था। दूरी अधिक होने, संसाधन न होने की वजह से उन्हें उपचार नहीं मिल पाया था। इस वजह से फाल्गुनी का निधन हो गया था। पत्नी का निधन उनके लिए किसी सदमे से कम नहीं था। उन्होंने अकले दम पर पहाड़ के बीचीबीच एक हथौड़ा और छेनी लेकर रास्ता बनाने का संकल्प ले डाला था।

    साल 1960 से 1982 के बीच मांझी के दिमाग में बस एक ही बात थी कि पत्नी की मौत का पहाड़ से बदला लेना है। अपने जुनून के चलते उन्होंने 360 फीट लंबा और 30 फीट चौड़ा रास्ता बनाया। यह उनके 22 वर्षों के जुनून और अथक परिश्रम का नतीजा रहा अतरी और वजीरगंज ब्लाक का फासला 55 किलोमीटर से घटकर 15 किलोमीटर रह गया। इस असाधारण काम के बाद उन्हें 'माउंटनमैन' के नाम से जाना गया। आज इस सड़क को दशरथ मांझी के नाम से जाना जाता है। यह सिर्फ चट्टान तोडऩे भर की कहानी नहीं हैं, सामाजिक और आर्थिक रूप से लाचार व्यक्ति किस तरह से सिस्टम से लड़ता है, उसकी दास्तान है। दशरथ मांझी ने अपनी समस्याओं और असुविधाओं के लिए दूसरे को कोसने की बजाय ऐसा रास्ता अख्तियार किया जो दुनिया के लिए मिसाल बन गया। दशरथ मांझी के इस असाधरण जुनून, जज्बे और संघर्ष पर 2011 में फिल्म प्रभाग द्वारा कुमुद रंजन के निर्देशन में डाक्यूमेंट्री फिल्म 'द मैन हू मूव्ड द माउंटेन' का निर्माण किया गया था।

    इसमें मांझी का साक्षात्कार भी है। वर्ष 2015 में प्रख्यात फिल्ममेकर केतन मेहता ने दशरथ मांझी के जीवन पर फिल्म 'मांझी: द माउंटेनमैन' का निर्माण किया था। फिल्म में नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने मांझी, जबकि राधिका आप्टे ने फाल्गुनी देवी की भूमिका जीवंत की थी। इस फिल्म को बनाने को लेकर केतन मेहता ने कहा था कि दशरथ की कहानी सुनने के बाद लगा था कि यह ऐसी प्रेरणात्मक कहानी है कि सब तक पहुंचनी चाहिए। वहीं नवाज का कहना था कि यह उनके करियर का चुनौतीपूर्ण किरदार था। शूटिंग शुरू होने से पहले वह गांव गए थे। वहां पर लोगों से उनके बारे में बात की थी। यू ट्यूब पर उनके वीडियो देखे थे। उसमें उनका बात करने का अंदाज और चाल ढाल देखी थी। 40 दिन में फिल्म की शूटिंग की थी।

    नवाज ने फिल्म प्रमोशन के दौरान कहा था कि 22 साल तक कोई शख्स इतनी मेहनत और जुनून के साथ काम कर सकता है तो क्या वो जुनून हम डेढ़ महीने तक नहीं ला सकते। यह जुनून तो चाहिए किसी भी चीज के लिए। फिल्म के डायलाग भी काफी लोकप्रिय हुए थे। इनमें एक सीन में मांझी कहते हैं कि बहुत अकड़ है तोहरा में देख कैसे उखाड़ते हैं अकड़। जब तक तोड़ेंगे नहीं तब तक छोड़ेंगे नहीं। बहुत ही लंबा दंगल चलेगा। तैयार है... यह महज डायलाग नहीं था। इसमें उनके उस आत्मविश्वास की झलक मिलती है जिसने पर्वत को भी झुका दिया।

    वर्ष 2011 में रिलीज जयतीर्थ निर्देशित कन्नड़ फिल्म 'ओलवे मंदार' भी मांझी की जिंदगानी से प्रेरित थी। वहीं 2014 में अभिनेता आमिर खान के सामाजिक मुद्दों पर आधारित चर्चित टीवी शो 'सत्यमेव जयते' में भी दशरथ मांझी के प्रेरणात्मक सफर को दर्शाया गया था। उन पर कई किताबें लिखी जा चुकी हैं, जिसमें नैंसी चूरनीन की 'मांझी मुवस ए माउंटेन', सुनील कुमार सिन्हा की 'पर्वत पुरुष दशरथ मांझी' आदि चर्चित हैं।