MP Assembly election 2023: कहानी उस राजा की, जो राजमाता के कहने पर CM की कुर्सी पर बैठे, फिर 13वें दिन दे दिया इस्तीफा
MP Assembly election 2023 सीएम की कुर्सी और वो कहानी ... में आज हम लाए हैं कहानी मध्यप्रदेश के उस मुख्यमंत्री की जो राजा से सीएम बने। सिर्फ 13 दिन ही कुर्सी पर रहे। जब सीएम की कुर्सी गई तो विधायक पद से भी इस्तीफा दे दिया और ताउम्र के लिए सियासत से दूरी बना ली। इंदिरा ने फोन कर चुनाव लड़ने के लिए कहा लेकिन उन्होंने मना कर दिया।
ऑनलाइन डेस्क, नई दिल्ली। सीएम की कुर्सी और वो कहानी ... में आज हम लाए हैं कहानी मध्यप्रदेश के उस मुख्यमंत्री की, जो राजा से सीएम बने। हालांकि,वे मात्र 13 दिन ही कुर्सी पर रहे। ऐसा क्या हुआ कि उन्होंने लगभग दो सप्ताह में ही पद छोड़ दिया और आजीवन सियासत से तौबा कर ली।
पढ़िए, मध्यप्रदेश के इकलौते आदिवासी मुख्यमंत्री नरेशचंद्र सिंह का किस्सा...
यह बात है मार्च, 1969 की। होली के बाद भांग की खुमारी उतर रही थी और राज्य की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार डगमगाने लगी थी। 12 मार्च को तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद नारायण सिंह को इस्तीफा देना पड़ा । 13 मार्च को नरेशचंद्र सिंह ने राज्य की कमान संभाली और सूबे के पहले और इकलौते आदिवासी मुख्यमंत्री बन गए। लेकिन 13वें दिन ही हालात ऐसे बने कि उन्हें भी इस्तीफा देना पड़ा।
नरेशचंद्र सिंह इस्तीफा देने से पहले द्वारिका प्रसाद मिश्रा से मिले थे और सभी की नजर इस मुलाकात पर थी। जब डीपी मिश्र से इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा 'राजा जी यह कहने आए थे, आशिक का जनाजा है, जरा धूम से निकले...'
राजा ने प्रजा को किया आजाद
नरेशचंद्र सिंह का जन्म 21 नवंबर, 1908 को सारंगढ़ रियासत के रियासतदार जवाहीर सिंह के घर हुआ था। आजादी से डेढ़ साल पहले पिता जवाहीर सिंह का निधन हो गया तो नरेशचंद्र सिंह राजा बन गए। साल 1947 को जब देशवासियों को आजादी मिल गई तो राजा नरेशचंद्र सिंह ने भी अपनी प्रजा को आजाद कर दिया।
सारंगढ़ का विलय भारतीय संघ में हो गया और वो खुद कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए। साल 1952 में राज्य में चुनाव हुए तो उन्होंने भी किस्मत आजमाई और सारंगढ़ विधानसभा सीट से चुनावी मैदान में उतरे। जनता ने उन्हें जिताया और विधानसभा पहुंचा दिया। हालांकि, उस समय मध्यप्रदेश राज्य नहीं बना था और जो सूबा था उसे मध्य प्रांत कहा जाता था।
संविद सरकार गिरने तक रहे मंत्री
रविशंकर शुक्ल सूबे के पहले मुख्यमंत्री बने। नरेश को शुक्ल कैबिनेट में जगह मिली और उन्हें बिजली तथा पीडब्ल्यूडी विभाग का मंत्री बनाया गया। साल 1954 में आदिवासियों के उत्थान के लिए अलग से विभाग बनना शुरू हुआ। नरेश को 1955 में आदिवासी कल्याण मंत्री बनाया गया।
कुछ ही दिनों में संविद सरकार गिर गई और सीएम गोविंद नारायण सिंह ने इस्तीफा दे दिया। राजमाता विजयाराजे सिंधिया किसी ऐसे शख्स को मुख्यमंत्री बनाना चाहती थीं, जो सर्वमान्य हो।
ऐसे में राजा नरेशचंद्र सिंह का नाम सामने आया। वह प्रदेश में बतौर मंत्री काम कर चुके थे और प्रशासनिक अनुभव भी था। बस फिर क्या था राजमाता की तलाश नरेशचंद्र के रूप में पूरी हुई।
सियासत से संन्यास
13 मार्च, 1969 को नरेश चंद्र ने सीएम पद की शपथ ली। लेकिन कुछ रोज बाद ही गोविंद नारायण सिंह अपने समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस में लौट गए। इसी के साथ नरेश सरकार अल्पमत में आ गई। इस कारण, 25 मार्च यानी 13वें दिन नरेशचंद्र सिंह को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा।
इस पूरी घटना से नरेश ने खुद को ठगा सा महसूस किया। सीधे स्वभाव के राजा को अहसास हुआ कि वह राजनीतिक दांव-पेच नहीं समझ पाए और उनका इस्तेमाल हुआ है। इससे नाराज होकर उन्होंने विधानसभा की सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया और सारंगढ़ लौट गए।
नरेशचंद्र सिंह राजनीति से अलविदा कहकर समाज सेवा में वक्त बिताने लगे। करीब 11 साल बाद उनके सामने एक धर्मसंकट आ गया। दरअसल, साल 1980 में इंदिरा गांधी ने फोन कर नरेशचंद्र को रायगढ़ से लोकसभा चुनाव लड़ने को कहा, लेकिन उन्होंने साफ मना कर दिया। हालांकि उन्होंने इंदिरा गांधी की बात का मान रखते हुए अपनी बेटी का पुष्पा को चुनाव लड़वाया।
राजा ने लिया संन्यास तो पत्नी ने जीता चुनाव
राजा नरेशचंद्र सिंह ने सीएम की कुर्सी के साथ ही सियासत को अलविदा कह दिया, लेकिन उनका परिवार राजनीति में बना रहा। 1969 में नरेश के इस्तीफा देने के बाद पुसौर विधानसभा सीट खाली हुई। जब यहां उप चुनाव हुए तो उनकी पत्नी ललिता देवी निर्विरोध चुनकर विधानसभा पहुंची।
नरेशचंद्र सिंह की चार बेटियां और एक बेटा हैं। जिनमें से तीन बेटियां और बेटा राजनीति में सक्रिय रहे।
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(सोर्स:जागरण नेटवर्क की पुरानी खबरें और मध्यप्रदेश विधानसभा)
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