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    Delhi Election 2025: पानी, प्रदूषण, जनसंख्या, यमुना... सारे मुद्दे चुनाव से गायब, दिल्ली के भविष्य की किसको पड़ी?

    By Manu Tyagi Edited By: Geetarjun
    Updated: Sat, 11 Jan 2025 01:38 PM (IST)

    दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 की घोषणा हो चुकी है। लेकिन क्या दिल्ली वाले अपने भविष्य के बारे में सोच पाएंगे? दिल्ली के साथ न्याय कौन करेगा उसके मुद्दों की बात कौन करेगा? उसकी तकलीफों को कौन समझेगा? दिल्ली के सामने प्रदूषण पानी की समस्या यमुना की सफाई बुनियादी ढांचे का विकास जैसे कई मुद्दे हैं। दिल्ली की जनता इन मुद्दों पर बात करने वाले नेताओं का इंतजार कर रही है।

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    दिल्ली विधानसभा चुनाव से मुख्य मुद्दे गायब।

    मनु त्यागी, नई दिल्ली। Delhi Vidhan Sabha Chunav 2025: दिल्ली विधानसभा चुनाव के मतदान तिथि की घोषणा की जा चुकी है। पांच फरवरी को दिल्ली के मतदाता नई सरकार के गठन हेतु वोट डालेंगे। लेकिन, क्या दिल्ली वाले अपने भविष्य के बारे में सोच पाएंगे? आखिर दिल्ली के साथ न्याय कौन करेगा, उसके मुद्दों की बात कौन करेगा? उसकी तकलीफों को कौन समझेगा? यदि दिल्ली गंभीरता से सोचे तो ये सवाल बेचैनी बढ़ाने वाले हैं।

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    बशर्ते दिल्ली उस दृष्टिकोण से सोचे, क्या दिल्ली देश की राजधानी है और जहां प्रति व्यक्ति आय तुलनात्मक रूप से अधिक है, उसके लिए ‘रेवड़ियों वाली दिल्ली’ या चुनावी घोषणाओं वाली दिल्ली जैसा तमगा कैसा महसूस कराता है। देखा जाए तो दिल्ली के लोगों की परिशानियों की चिंता किसी को नहीं है।

    दिल्ली के दिल का हाल कौन सुनेगा?

    पीने के पानी से लेकर सड़कों की दशा बहुत ही खराब है। वायु गुणवत्ता लगभग पूरे साल खराब श्रेणी में रहती है। विधानसभा चुनाव के दौर में यह उम्मीद की जानी चाहिए कि कोई तो देश के दिल को बचाने की बात करेगा। वैश्विक पटल पर दिल्ली के माथे पर लगे प्रदूषण के दाग को मिटाने का संकल्प लेगा।

    रेवड़ी, चुनावी घोषणा, रिझाना, मनाना इससे आगे कोई खालिस दिल्ली की बात करेगा। कहें तो, दिल्ली इंतजार कर रही है कि कोई उसके ‘दिल का हाल सुने दिल वाला’ मिलेगा। अब राजनीति तो अपनी कूटनीति से ही चलेगी।

    चरमराता बुनियादी ढांचा

    बगैर सोचे-समझे लालसाओं की परवरिश में बेहिसाब या कहें कि बेतरतीब रूप में बढ़ रही दिल्ली में जहां 90 लाख की ही आबादी होनी चाहिए, वहां अब आंकड़ा तीन करोड़ से ऊपर पहुंच चुका है। दिल्ली वाली पहचान ‘वोट बैंक’ भी डेढ़ करोड़ मतों से मजबूत हो रहा है। उसके मुद्दों की बात भी तो होनी चाहिए। प्रदूषण जिसे अब तक भी केवल तीन माह में ‘ग्रेप लगाओ-ग्रेप हटाओ’ की खानापूरी से देखा जाता है, उसके लिए कोई राजनीतिक दल तो 12 माह दिल्ली की वैश्विक पटल पर बन रही ‘खराब छवि’ सुधारने के लिए घोषणा करे।

    दिल्ली की आर्थिकी तक इससे कराहती है। साल भर इस पर आरोप-प्रत्यारोप चलता है, परंतु जब चुनाव आते हैं तो सब इस पर मौन होते हैं। दिल्ली में केवल नई दिल्ली वाले हिस्से में सबकुछ ठीकठाक दिखता है, जिसे लुटियंस जोन के नाम से भी जाना जाता है। शेष दिल्ली में आप जहां कहीं भी जाइए, वहां आपको शहरी ढांचा, सड़क, सब किसी ऊबड़-खाबड़ जैसी तस्वीर वाला ही नजर आएगा।

    किसी को नहीं यमुना की चिंता

    अब बात पानी की। मुफ्त पानी, 24 घंटे पानी दिल्ली को सुहा रहा है, लेकिन दिल्ली की उन तस्वीरों का क्या, जिनसे अंततराष्ट्रीय पटल पर भी छवि धूमिल होती है कि यह भारत की राजधानी दिल्ली है, जहां पानी के लिए कतार लगती है और सैकड़ों कच्ची कालोनियों में टैंकरों से पानी आपूर्ति होती है यानी वहां पानी की पाइपलाइन तक नहीं है।

    गर्मी में सूखा और बारिश में जलभराव

    भला हम मुफ्त किसे दे रहे हैं? यह सवाल तो मतदाता के कीमती वोट का ही बनता है। गर्मी में सूखा और बरसात आते ही सड़कों पर पानी भर जाता है, जिसे सहेजने के लिए कोई प्राकृतिक संयंत्र नहीं है। देश की राजधानी के लिए माथे पर कलंक तो इस बात का भी है कि उसमें एक बड़ी नदी दम तोड़ने की अवस्था में पहुंच चुकी है। सब उसमें मौसमी डुबकी की तो बात करते हैं, लेकिन कोई उसे उसके पुराने रूप में लाने के बारे में कुछ ठोस करता हुआ प्रतीत नहीं होता है।

    दिल्ली का शिक्षा ‘मॉडल’ भी अब युवा वाली बात करने वाला होना चाहिए, कोई तो युवा मतदाता के लिए रोजगार के अच्छे रोडमैप एजेंडे में लेकर चुनावी मैदान में आए, दिल्ली प्रतीक्षा में है।

    जनकल्याण बनाम हानिकारक ‘रेवड़ी’

    मुद्दों से इतर चुनावी प्रलोभनों और रेवड़ी घोषणाओं का पिटारा खुला ही हुआ है। अब तक रेवड़ी प्रलोभन का पलड़ा ही भारी है। इसीलिए राजनीतिक दल एक-दूसरे की घोषणाओं का वजन तौलकर अपनी योजना में कुछ वजन बढ़ाकर जनता के बीच ‘कुछ अलग’, कुछ हटकर करने वाले लुभावने एटीट्यूड के साथ जनता के बीच जा रहे हैं। जनता अंदर ही अंदर गुदगुदा रही है, क्योंकि जागृ़ति के अभाव में वह अपने दोनों ही हाथों में लड्डू देख रही है। महिला हैं तो, बुजुर्ग हैं तो, सभी के लिए कुछ न कुछ ‘ऑफर्स’ हैं।

    मतदाताओं को दिया जा रहा प्रलोभन

    मतदाताओं की सूची में जिसका जितना अधिक वर्ग है, उसके लिए दलों ने उतना ही बड़ा प्रलोभन दिया है। इसके लिए राजनीतिक दल कितने बड़े हितैषी बने रहे हैं कि ये प्रलोभन और रेवड़ी नहीं जनकल्याण योजनाएं हैं। लेकिन जनकल्याण के इतिहास और वास्तविकता को कैसे बदला जा सकता है। जब समाज सुधार और सभी न्यूनतम आय वर्ग वालों के लिए जनहित वाली योजनाएं होती थीं।

    अब आप टैक्स भी अदा करते हैं और दिल्ली की सरकारी बसों में ‘मुफ्त’ सफर भी करते हैं तो भला इससे कौन सा जनकल्याण होगा। इस समय राजनीतिक दलों ने दिल्ली में 2100 से लेकर 2500 रुपये प्रतिमाह महिलाओं को देने की जो भी प्रलोभनी घोषणा की है, यह उनके लिए तो ठीक लगती है, जो महिलाएं वास्तव में घर चलाने के लिए जूझती हैं, परंतु क्या उससे इतर सशक्तीकरण की दहलीज पर खुदको संबल के साथ खड़ा करने वाली या कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होने वाली महिला वर्ग सोचे कि क्या प्रतिमाह इस तरह दी जाने वाली राशि उनके ‘सशक्तीकरण के स्वाभिमान’ को चोट नहीं पहुंचाती।

    यहां जनहित, जनकल्याण की परिभाषा को राजनीतिक दलों द्वारा अपने अनुसार तोड़ मरोड़ कर उससे वोट बंटोरने का प्रचलन देश की आर्थिकी के लिए तो नुकसानदाई होगा ही, वर्ष 2047 के स्वर्णिम भारत के सपने को भी ये प्रवृत्ति ठेस पहुंचाएगी।

    कांग्रेस ने बढ़ाई दिल्‍ली की बेचैनी

    अरविंद केजरीवाल जब दिल्ली की राजनीति में उतरे थे तो एक भ्रष्टाचार मुक्त दिल्ली बनाने का संकल्प लेकर आए थे। परंतु दूसरे विधानसभा का कार्यकाल शुरू होते ही उनकी पार्टी के कई नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे और कई नेताओं को जेल भी जाना पड़ा। जेल से लौटने पर जनता के बीच विश्वास जगाने के लिए ‘कट्टर ईमानदार’ वाले ‘बैनर’ के साथ उन्हें उतरना पड़ा।

    दिल्ली में सत्ता मतलब...

    दिल्ली की ‘कुर्सी’ भले कम ‘पावर’ वाली है, राज्यों सा अधिकार नहीं रखती है, लेकिन राजधानी के नाते देश में एक बड़ा संदेश देती है। यहां की सत्ता हासिल करना और उस पर बने रहना, अपने आप में मुख्य राजनीतिक दलों के लिए हमेशा साख का विषय रहा है। लेकिन, भ्रष्टाचार मुक्त करने के जुमले से जन्मी आम आदमी पार्टी अब तक का कार्यकाल पूरा करने के बाद, उसके लिए इस बार की जीत ‘राष्ट्रीय प्रतिष्ठा’ का सवाल है।

    एक कहावत है न उसके लिए उसे साम, दाम, दंड, भेद जो भी लगाना पड़ा तो वो करेगी। सत्ता में काबिज सरकार की स्थिति को देखेंगे तो भाजपा ने इसे ‘भ्रष्टाचार वाली सरकार’ से पुरजोर ‘डेंट’ देने की कोशिश की है। नगर निगम के चुनाव को याद कीजिए, भाजपा यहां भी आप सरकार के भ्रष्टाचारों को ही कभी आबकारी नीति तो कभी मोहल्ला क्नीनिक जैसे आरोपों को उजागर कर रही थी।

    भाजपा भ्रष्टाचार के मुद्दे से डिगी नहीं

    भाजपा अपने पथ से डिगी नहीं है, अब विधानसभा चुनाव में भ्रष्टाचारी सरकार के विरुद्ध शीशमहल से शराब तक सब मुद्दों को लेकर जनता के बीच जा रही है। मुफ्त की घोषणाओं से दिल्ली को नुकसान उन ‘रेवड़ियों’ के सच को सामने रख रही है। यह बात अलग है कि भाजपा स्वयं भी इस घेरे में है कि वह दिल्ली वालों के दिल में किसे बैठाएगी, कोई चेहरा तो बताए। और कहीं न कहीं यह भी सच है कि इस समय भाजपा के पास तीन दशक पहले खोई सत्ता वापस लेने को उस समयकाल जैसा मजबूत अनुभवी चेहरा भी नहीं है।

    दिल्ली में नहीं कोई स्थानीय नेता

    भाजपा 27 साल के सूखे को खत्म तो करना चाहती है, लेकिन यह तो पार्टी को विचार करना ही होगा कि इस बार भी चुनावी मैदान में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चेहरे पर ही दिल्ली के चुनावी मैदान में है। एक दौर था जब दिल्ली में मदनलाल खुराना जैसे स्थानीय नेता थे। अब आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति में भाजपा केंद्र से मिले मार्गदर्शन पर तो आगे बढ़ती है, देश की राजधानी के नाते उसका दायित्व भी बनता है, फिर भी दिल्ली की जड़ों तक और दिलों तक तो प्रदेश भाजपा को खुद भी जगह बनानी होगी।

    कांग्रेस नहीं कर पा रही वापसी

    अब बात करते हैं इस चुनाव में सबसे अहम किरदार की तरह दिख रही कांग्रेस पार्टी की। जिसकी शीला दीक्षित के समय में एक गहरी छाप रही। उस दौर को दिल्ली आज भी याद करती है। एक बार यह पार्टी सत्ता से गई तो आपसी महत्वाकांक्षी खींचतानों में पार्टी स्वयं को एक दशक में भी नहीं उठा पाई। बड़े-बड़े राजनीतिक विशेषज्ञ मानते हैं कि कांग्रेस बीते दो चुनावों में लड़ी ही नहीं, सिर्फ एक ‘नई पार्टी’ जैसी भूमिका में उपस्थिति सी ही दर्ज कराती रही।

    कांग्रेस का जनाधार भी इसका गवाह है जो कि पिछले विधानसभा चुनाव में महज चार प्रतिशत पर ही सिकुड़ गया था। इस बार आम आदमी पार्टी, कांग्रेस को इस तरह ‘हलके’ में नहीं ले सकते। इस बार कांग्रेस अपने बूते ही लड़ाई में भी दिख रही है।

    आप के पास कांग्रेस का जनाधार

    इससे सबसे अधिक बेचैनी बढ़ती है आम आदमी पार्टी की। क्योंकि दिल्ली का हर राजनीतिक विश्लेषक यही कहता मिलता है कि आम आदमी पार्टी के पास सबसे मजबूत कांग्रेस का ही जनाधार है। मध्य वर्ग तक का मतदाता इस दल का ‘पूर्व मतदाता’ कहा जा सकता है। अब कांग्रेस इसी वर्ग में स्वयं को मजबूत कर रही है। चुनावी मौसमों में होने वाले दलों के गठबंधनों की गांठ भी खुल चुकी है।

    लोकसभा चुनाव में भी बेमन से ही दोनों दल दिल्ली में साथ थे, अब तो खुलकर पस्त करने के इरादे से हैं। बहरहाल दिल्ली विधानसभा चुनाव में किस दल को बहुमत प्राप्त होगा, यह तो जीत के जनादेश के एक माह बाद यानी आठ फरवरी को ही स्पष्ट होगा।

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