छत्तीसगढ़ में क्षेत्रीय पार्टियों की खस्ता हालत, सिर्फ 19% वोटों पर सिमटीं
छत्तीसगढ़ की राजनीति में क्षेत्रीय पार्टियों की स्थिति 15 वर्षों बाद भी मजबूत नहीं हो पाई है।
रायपुर (हिमांशु शर्मा)। छत्तीसगढ़ की राजनीति में क्षेत्रीय पार्टियों की स्थिति 15 वर्षों बाद भी मजबूत नहीं हो पाई है। राज्य गठन के बाद भाजपा और कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टियों के अलावा पहले आम चुनाव से ही कुछ क्षेत्रीय दल सक्रिय रहे, लेकिन इनका प्रभाव बेहद कम रहा। इसके बाद दो बार चुनाव और हुए, जिनमें बहुजन समाज पार्टी के अलावा किसी भी दूसरे क्षेत्रीय दल को कोई बड़ी सफलता नहीं मिली। पिछले चुनावों के नतीजों को अगर देखें तो यह बात सामने आती है कि राज्य के कुल वोट में से सिर्फ 19 फीसद पर ही क्षेत्रीय दल सिमट कर रह गए। इस साल पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की पार्टी छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस अस्तित्व में आई है। इसके साथ ही बसपा और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी सहित आप और सपा राज्य में तीसरे मोर्चे के रूप में काम कर रहे हैं। वर्तमान स्थिति में इनका कोई मजबूत जनाधार नजर नहीं आ रहा, लेकिन फिर भी यह पार्टियां काफी हद तक चुनावी नतीजों को प्रभावित कर सकती हैं।
तीसरे मोर्चे के रूप में नई पार्टी
राज्य में चुनाव के दौरान सीधा मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही रहा है। इस बार के चुनाव में भी क्षेत्रीय दलों की कोई बड़ी भूमिका नजर नहीं आ रही है। भाजपा के खिलाफ एंटी इंकम्बेंसी है। 15 साल से पार्टी शासन में है और चौथी पारी को लेकर एक संशय की स्थिति नजर आ रही है। कांग्रेस अंतरकलह का शिकार है। बसपा का जनाधार तीन चुनावों के दौरान कम हुआ है। ऐसे में अजीत जोगी की पार्टी तीसरे मोर्चे के रूप में उभरी है। वर्तमान में जोगी परिवार से तीन विधायक हैं। हालांकि अजीत जोगी की पत्नी रेणु जोगी कांग्रेस से विधायक हैं, लेकिन इस बार कांग्रेस से उन्हें टिकट मिलने की संभावना कम नजर आ रही है। ऐसे में हो सकता है कि वे जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ के टिकट से चुनाव लड़ें। राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि जोगी की पार्टी इस साल चुनाव को कुछ हद तक प्रभावित कर सकती है। इसका ज्यादा असर कांग्रेस के वोट बैंक पर ही पड़ेगा।
नई पार्टी में नजर आ रही फूट
जोगी की पार्टी इस साल अस्तित्व में आई है। शुरूआत में कयास लगाए जा रहे थे कि यह नई पार्टी भाजपा और कांग्रेस दोनों प्रमुख पार्टियों के वोट बैंक पर सेंध लगा सकती है, लेकिन जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते दिख रहे हैं पार्टी में आंतरिक कलह भी नजर आ रही है। टिकट बंटवारे के विवाद के बाद संगठन के कई बड़े पदाधिकारी पार्टी छोड़ चुके हैं और पार्टी में अभी भी फूट जारी है।
लगातार गिर रहा क्षेत्रीय पार्टियों को जनाधार
राज्य में भाजपा और कांगे्रस इन दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों को छोड़कर बाकी सभी पार्टियों का वोटिंग प्रतिशत लगातार गिर रहा है। यही वजह है कि राज्य में 18 वर्ष की सियासत में कोई भी राजनीतिक दल तीसरी ताकत बनकर नहीं उभर पाया है। राज्य में हर बार पांच राष्ट्रीय, करीब आधा दर्जन क्षेत्रीय पार्टियों के साथ ही दर्जनभर से अधिक गैरमान्यता प्राप्त पार्टियां भाग्य आजमाती हैं। इस बार पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जकांछ) व दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी प्रदेश में भाग्य आजमाएगी।
तालमेल की कोशिशें भी नाकाम
इस बार बसपा कांग्रेस के साथ गठबंधन की कोशिश कर रही थी, लेकिन अब गठबंधन के आसार नजर नहीं आते देख पार्टी ने राज्य की सभी 90 विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने की घोषणा कर दी है। इससे पहले बसपा और कांग्रेस के बीच सीटों के बंटवारे को लेकर चर्चा चल रही थी। इस चर्चा के कोई भी सार्थक परिणाम नहीं निकले। बसपा का वोट शेयर भी हर चुनाव के साथ राज्य में कम होता रहा है। साल 2003 में हुए चुनाव में बसपा के हाथ 2 सीटें लगी थीं। इसके बाद साल 2008 में भी बसपा दो सीटें जीतने में सफल रही, लेकिन साल 2013 में बसपा दो की जगह 1 सीट पर ही सिमट गई।
गोंगपा और सपा का गठबंधन
इस बार चुनाव के लिए गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और समाजवादी पार्टी ने गठबंधन किया है। गोंगपा ने राज्य गठन से पहले साल 1998 में हुए चुनाव में एक सीट हासिल की थी। पार्टी के वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष हीरा सिंह मरकाम चुनाव जीतकर विधायक बने थे, लेकिन राज्य गठन के बाद हुए तीन चुनावों में गांेगपा के हाथों कोई सफलता नहीं लगी। अब इस बार समाजवादी पार्टी के साथ गोंगपा ने गठबंधन किया है, लेकिन इसका कोई विशेष जनाधार यहां नजर नहीं आ रहा है। चुनाव प्रचार के दौरान कई सीटों पर त्रिकोणीय व बहुकोणीय मुकाबला नजर आता है, लेकिन ज्यादातर सीटों पर भाजपा और कांग्रेस के बीच ही सीधी टक्कर होती है। बाकी पार्टियों के अधिकांश प्रत्याशी अपनी जमानत भी नहीं बचा पाते हैं।
निर्दलीय पा जाते पार्टियों से ज्यादा वोट
राजनीतिक दलों से ज्यादा वोट निर्दलीय पा जाते हैं। 2003 में सात फीसद वोट निर्दलीयों के खाते में गए। 2008 में बढ़कर करीब साढ़े आठ फीसद, लेकिन 2013 में यह आंकड़ा गिर कर पांच फीसद रह गया। प्रत्याशियों की संख्या के लिहाज से देखा जाए तो इनके वोट प्रतिशत में भी कमी आई है।
प्रदेश की राजनीति करने वाले भी असफल
छत्तीसगढ़ व स्थानीय के नाम पर राजनीति करने वाली पार्टियां भी अब तक के चुनावों में कोई खास असर नहीं डाल पाई हैं। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी (गोगंपा), छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा (छमुमो) और छत्तीसगढ़ समाज पार्टी (छसपा) के कई प्रत्याशी चुनाव लड़ते हैं, लेकिन इनमें ज्यादातर की जमानत भी नहीं बच पाती है।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।