Bihar Election: प्रशांत किशोर और तेजप्रताप के लिए मुश्किल! बिहार का वोटिंग पैटर्न दे सकता है गच्चा
बिहार विधानसभा चुनावों में तीसरे मोर्चे का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। 2005 के बाद किसी भी तीसरे मोर्चे को 10% से अधिक वोट नहीं मिले हैं। 2020 में जीडीएसएफ को छह सीटें मिलीं जबकि लोजपा ने एक सीट जीती। कांग्रेस और वामदल भी पहले तीसरे मोर्चे में रह चुके हैं लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली।

कुमार रजत, पटना। इतिहास गवाह है कि बिहार विधानसभा चुनाव में वोटरों को अमूमन आमने-सामने की सीधी लड़ाई ही पसंद आती है। हर बार किसी न किसी रूप में तीसरा मोर्चा बनता जरूर है, मगर वह वोटरों का भरोसा नहीं जीत पाता।
वर्ष 2005 के बाद हुए सभी विधानसभा चुनावों में एक बार भी थर्ड फ्रंट की सीटें या वोट प्रतिशत दहाई अंक तक नहीं पहुंच पाए। इस बार भी प्रशांत किशोर का दल जनुसराज वोटरों को एनडीए और महागठबंधन के बीच तीसरे मोर्चे का विकल्प देने में जुटा है। देखना होगा इस बार ऊंट किस करवट बैठता है।
वर्ष 2020 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव की बात करें तो एनडीए और महागठबंधन के बीच कांटे का मुकाबला रहा। दोनों ही दलों को लगभग साढ़े 37 प्रतिशत के करीब वोट शेयर मिला।
इस चुनाव में कोई आधिकारिक रूप से तीसरा फ्रंट तो नहीं था मगर चुनाव से ठीक पहले उपेंद्र कुशवाहा के तत्कालीन दल रालोसपा, ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी जनता दल और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी समेत छह दलों ने मिलकर ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेकुलर फ्रंट (जीडीएसएफ) बनाया था।
इस गठबंधन को छह सीटें मिली जिनमें एआइएमआइएम को छह जबकि बसपा को एक सीट पर जीत मिली। इनका वोट प्रतिशत करीब 4.5 रहा। इसके अलावा लोजपा भी पिछले चुनाव में एक फैक्टर रहा।
उसने भाजपा की उम्मीदवारी वाली सीटों को छोड़कर शेष 134 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे मगर इसमें महज एक सीट पर ही लोजपा को जीत मिल सकी।
2015 में वामदलों तो 2010 में कांग्रेस ने बनाया तीसरा कोण
पिछले तीन-चार विधानसभा चुनाव देखें तो गठबंधनों के दल और दिल बदलते रहे हैं। वर्तमान में भले ही कांग्रेस और वामदल राजद के साथ मिलकर महागठबंधन को मजबूत कर रहे मगर 2015 और 2010 में बारी-बारी से यह दोनों दल तीसरे मोर्चे की भूमिका में रह चुके हैं।
2015 के विधानसभा चुनाव में राजद, जदयू और कांग्रेस ने मिलकर महागठबंधन बनाया था। तीन बड़े दलों के होने के कारण वामदलों के लिए सीटों की गुंजाइश नहीं बची।
नतीजा, वामदलों ने लेफ्ट फ्रंट से सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़कर तीसरा विकल्प वोटरों को दिया। इसमें सिर्फ भाकपा माले ही तीन सीटें जीत पाईं। पूरे लेफ्ट फ्रंट को महज 3.7 प्रतिशत वोट हिस्सेदारी मिली।
इसी तरह 2010 में हुए विधानसभा चुनाव एनडीए में जदयू-भाजपा तो साथ थे मगर में राजद और लोजपा ने नया गठबंधन बनाकर चुनाव में किस्मत आजमाई।
कांग्रेस ने इस गठबंधन से अलग सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़कर जनता को तीसरा विकल्प देने की कोशिश की मगर संतोषजनक परिणाम नहीं आया। सभी सीटों पर लड़कर भी कांग्रेस को महज चार सीटें और 8.4 प्रतिशत वोट शेयर मिला।
इस चुनाव में एनडीए को 206 सीटों के साथ प्रचंड बहुमत मिला था। राजद-लोजपा गठबंधन को महज 25 सीटें मिली थीं जिनमें राजद को 22 और लोजपा को तीन सीटें मिली थीं। वाम दलों ने भी यह चुनाव अलग लड़ा था और उन्हें महज एक सीट से संतोष करना पड़ा था।
2005 में लोजपा-भाकपा ने दिया तीसरा विकल्प
2005 में विधानसभा के दो चुनाव हुए। फरवरी के चुनाव में लोजपा के पास 29 सीटों के साथ सत्ता की चाबी थी मगर चाबी धरी की धरी रह गई। किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने के कारण छह माह बाद अक्टूबर में दोबारा चुनाव हुए।
इस चुनाव में एनडीए (भाजपा-जदयू) और यूपीए (राजद,कांग्रेस, राकांपा और माकपा के सामने रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा ने भाकपा के साथ गठबंधन कर तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिश की।
इस चुनाव ने ही बिहार में एनडीए और नीतीश शासनकाल की शुरुआत की। इस चुनाव में एनडीए को 36 प्रतिशत (143 सीटें) , यूपीए को 31 प्रतिशत (65 सीटें) जबकि लोजपा-भाकपा को 13.3 प्रतिशत (13 सीटें) वोट शेयर मिला।
पिछले तीन चुनावों में तीसरे फ्रंट का हाल
वर्ष | जीती सीटें | वोट प्रतिशत |
---|---|---|
2020 | 6 | 4.5% |
2015 | 3 | 3.7% |
2010 | 4 | 8.4% |
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