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    काली प्रसाद से लेकर पप्पू यादव तक, बिहार की सियासत में 1957 से जारी है दबंगों का दबदबा

    Updated: Sat, 13 Sep 2025 03:52 PM (IST)

    बिहार की राजनीति में अपराध का एक लंबा इतिहास रहा है जिसकी शुरुआत 1957 में हुई थी। दबंगों ने पहले चुनावों में बूथ कब्जाना शुरू किया और बाद में खुद चुनाव लड़ने लगे। 1980 और 1990 के दशक में कई दबंग नेता उभरे जिन्हें राजनीतिक दलों का समर्थन मिला। इनमें से कुछ जैसे शहाबुद्दीन और पप्पू यादव सांसद भी बने।

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    बिहार की सियासत में दबंगों का दबदबा

    दीनानाथ साहनी, पटना। बिहार में राजनीतिक का अपराधीकरण का अपना इतिहास है। माना जाता है कि 1957 में बिहार के चुनाव में दबंगई की शुरुआत हो गई। कालांतर में यही दबंगई बूथ कब्जा से लेकर मतपेटी की लूट में तब्दील हो गई।

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    पहले उम्मीदवार अपनी जीत पक्की कराने के लिए दबंगों से बूथ लूटवाते थे और बदले में उन्हें राजनीतिक संरक्षण देते थे। फिर यह दांव उलटा पड़ गया।

    दबंगों ने सोचा कि जब बूथ कब्जा और मतपेटी लूटकर दूसरों को चुनाव जीता सकते हैं तो क्यों न स्वयं ही चुनाव लड़ें। इसी सिद्धांत पर दबंगों ने चुनाव में किस्मत आजमाना शुरू कर दिया। उनमें से कुछ जीते भी और उससे दबंगों काे राजनीतिक में फलने-फूलने का अवसर मिल गया।

    अस्सी के दशक में दबंई की डर्टी पिक्चर की शुरुआत

    1980 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में कई दबंग चुनाव जीतने में कामयाब हो गए। यूं कहें कि विधानसभा में पहली बार दबंई की डर्टी पिक्चर की शुरुआत हुई।

    राजनीतिक दलों ने भी दबंगों की जीत सुनिश्चित मानकर टिकट देना शुरू कर दिया। रोचक यह कि गोपालगंज सीट से दबंग काली प्रसाद पाण्डेय निर्दलीय जीत गए।

    तब उनकी छवि बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में चर्चित बाहुबली के रूप में थी। इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात हुए 1984 के लोकसभा चुनाव में जेल में रहते हुए काली प्रसाद पाण्डेय ने गोपालगंज लोकसभा क्षेत्र से निर्दलीय जीत कर संसद तक का सफर तय किया।

    तब उनकी जीत खूब सुर्खिया बटोरी थी। बताया जाता है कि 1987 में प्रदर्शित फिल्म-प्रतिघात के खलनायक काली प्रसाद का चरित्र सांसद काली प्रसाद पाण्डेय से ही प्रेरित था।

    1980 के चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर उमाशंकर सिंह (महाराजगंज), प्रभुनाथ सिंह (तरैया), रघुनाथ झा (शिवहर), जनता पार्टी से मो. तसलीमुद्दीन (अररिया), विनोद सिंह (भवनाथपुर) तथा सूर्यदेव सिंह (झरिया), निर्दलीय बीरेंद्र सिंह मोहबिया (जंदाहा) तथा राम नरेश सिंह (नालंदा) जैसे दर्जन भर दबंग जीते।

    1985 के विधानसभा चुनाव में दबंगों की धमक और बढ़ गई। इस बार प्रभुनाथ सिंह मसरख से निर्दलीय जीते। जनता पार्टी के टिकट पर रघुनाथ झा (शिवहर), मो.तसलीमुद्दीन (जौकीहाट), सूर्यदेव सिंह (झरिया) और निर्दलीय आदित्य सिंह (हिसुआ) समेत अनेक दबंग जीते।

    इसी तरह बिहार की राजनीति में दबंगों की इंट्री बुलंदी पाती रही। ये वो खास समय था, जब दबंग जेल से चुनाव जीत रहे थे और कानूनी शिकंजा कसने पर अपने नाते-रिश्तेदारों को राजनीति में आगे करने में भी पीछे नहीं थे।

    1990 के बाद दबंगों की बहार

    नब्बे का दशक और उसके बाद बिहार की राजनीति में दबंगों का जबर्दस्त उदय हुआ। ऐसे दबंगों को राजनीतिक पार्टियां भी अपने-अपने तरीके से ठौर देने लगी क्योंकि ये पार्टियों के लिए चुनाव में जीत की गारंटी बनते गए।

    1990 के विधानसभा चुनाव में मो. शहाबुद्दीन (जीरादेई सीट), और पप्पू यादव (सिंहहेश्वर) बतौर निर्दलीय चुनाव जीते। मो. शहाबुद्दीन सिवान लोकसभा क्षेत्र से कई बार जीते और संसद में प्रतिनिधित्व किया।

    इसी तरह पप्पू यादव पूर्णिया लोकसभा क्षेत्र से कई बाद निर्दलीय जीते और अभी भी सांसद हैं। आनंद मोहन सिंह (महिषी) से विधायक के रूप में जीते और बाद के वर्षों में शिवहर से सांसद भी रहे।

    वहीं, जनता दल के टिकट पर प्रभुनाथ सिंह (मसरख), उमा शंकर सिंह महाराजगंज), रघुनाथ झा (शिवहर), सूर्यदेव सिंह (झरिया), कांग्रेस के टिकट पर आदित्य सिंह (हिसुआ) चुनाव जीते। यह सिलसिला बदस्तुर जारी रहा।

    तभी बृज बिहारी प्रसाद, सूरजभान सिंह, दिलीप सिंह, सुरेन्द्र यादव, रामा सिंह, अनंत सिंह, सुनील पाण्डेय, राजन तिवारी, मुन्ना शुक्ला, हुलास पाण्डेय, धूमल सिंह, बोगो सिंह और रणवीर यादव चुनाव जीतने में कामयाब रहे।