नई दिल्ली, जेएनएन। ओत्से तुंग के देहांत के बाद चीन में जैसा शून्य बनना चाहिए था, नहीं बना। क्योंकि डेंग जियाओपिंग जैसे शातिर राजनेता ने चीन को अपनी मुट्ठी में कर लिया और 1978 से 1992 तक यानी अपना अंत होने- होने तक डेंग ने चीन का सपना ही बदल दिया। माओ ने चीन की आंखों में कई सपने भरे थे जिनमें एक तत्व सदा मौजूद रहता था- सादगीपूर्ण समता! साम्यवाद का समता का आदर्श माओ ने अपनी और चीन की आंखों से ओझल नहीं होने दिया था। डेंग जानता था कि अपने महान नेता के जूते में पांव डालने की उसकी हैसियत नहीं है तो उसने जूता ही बदल लिया। उसने चीन को नया पाठ पढ़ाया-‘अमीर होना शानदार है !’ आप अमीर हो सकें या नहीं, अमीर होने का सपना ही बहुत गुदगुदाता है। डेंग से आज चिनफिंग तक वही गुदगुदी है जो चीन को दौड़ाए चल रही है।

लक्ष्मी न सही, लक्ष्मी का सपना ही सही ! अपने दुष्यंत कुमार ने यही तो गाया था न- खुदा नहीं, न सही, आदमी का ख्वाब सही। कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए ! महात्मा गांधी ने भी लक्ष्मी की ही आराधना की और कहा-‘मैं गरीबी का जानी दुश्मन हूं, क्योंकि गरीबी आदमी का जैसा अपमान करती है वैसा दूसरा कोई नहीं करता है। इसलिए मैं तो अपने समाज में ऐसा और इतना ऐश्वर्य चाहता हूं कि हर आदमी चाहे तो स्वर्ग जाने के लिए सोने की सीढ़ी बना ले। आप खोज जाइए, किसी पूंजीपति दार्शनिक का अमीरी का गुणगान करने वाला ऐसा कोई दूसरा वाक्य!

यह वह महात्मा गांधी हैं जिनसे हम रूबरू ही नहीं हो सके यानी ऐसे गांधी से हमारी पहचान बनने ही नहीं दी गई। गांधी को तो हमने हमेशा गरीब ही बनाए रखा, लेकिन सीधा सच्चा सच यह है कि महात्मा गांधी बहुत बड़े लक्ष्मी पूजक हैं। वे एकाधिक बार कहते मिलेंगे आपको कि मैं बनिया जाति का हूं, इसलिए नुकसान के सौदे नहीं करता हूं। लेकिन गांधी की अमीरी में एक पेंच है। उनका ऊपर का कथन एक बार फिर से पढ़िए, बार-बार पढ़िए और खोजिए कि इसमें ऐसा क्या है कि जो गांधी ही कह सकते थे, दूसरा नहीं? वे स्वर्ग तक जाने वाली सोने की सीढ़ी का सपना तो समाज की आंखों में भरते हैं लेकिन उसमें एक फच्चर डाल देते हैं- हर आदमी !

आज, जबकि सारा देश लक्ष्मी की आराधना में डूबा हुआ है, तब क्या हमें यही नहीं खोजना चाहिए कि हे लक्ष्मी मैया, तुम कहां हो? बैंक के जिस खाते में उनकी अचानक उपस्थिति का सपना हमें दिखाया गया था, वह खाता आज तक खाली क्यों है? ऐसा क्यों है कि मुंबई की पंजाब और महाराष्ट्र कोआपरेटिव बैंक जैसे कई संस्थानों में लोगों के लाखों लाख रुपये खाते में पड़े हों और वे ही लोग विक्षिप्त मन:स्थिति में इधर उधर गुहार लगाते फिर रहे हैं? सारी दुनिया में भयंकर मंदी के चलते कंपनियां बंद हो रही हैं। रोजगार खत्म हो रहे हैं। एक रोजगार के खत्म होने का मतलब होता है दीपावली के एक दीप का बुझना।

आप इस परिस्थिति को समझने की कोशिश कीजिए कि अमेरिका के राष्ट्रपति के आदेश से वहां की सारी वित्तीय व्यवस्था बंद कर दी जाती है। कई दिनों तक लोगों को वेतन के लाले पड़ जाते हैं। समृद्धि के बहुत सारे सब्जबाग दिखाकर जो यूरोपीय संघ बना था, वह आज बिखराव की कगार पर है और ब्रेक्जिट का ऑक्टोपस ग्रेट ब्रिटेन को लपेटता ही जाता है तो क्यों? आखिर क्या है कि दुनिया के अधिकांश देशों में नागरिक घरों में नहीं, सड़कों पर हैं। इजरायल और कनाडा में अल्पमत की सरकारें बन रहीं तो चीन ने एक आदमी को आजन्म राष्ट्रपति घोषित कर लिया है। यह सब लोकतंत्र का अंधेरा है।

लक्ष्मी मैया, ऐसे में आप हो कहां? आपका उलूक भले दिन में नहीं, रात में देखे लेकिन देखे तो। लक्ष्मी मैया बोलती नहीं हैं। हमारा कोई आराध्य देव बोलता नहीं है, लेकिन नजारे पूरे दिखाता है। हम देख पाते हैं कि कल तक के हमारे अरब-खरबपति आज कहीं इंग्लैंड में, कहीं अमेरिका में और कहीं नामालूम से द्वीपसमूह में मुंह चुराकर चोरों की तरह जी रहे हैं। वे देश समाज का अरबों रुपया ले उड़े हैं।

विकास के लिए जंगलों की अमानवीय कटाई हो रही है। नदियां नालों में बदलकर दम तोड़ रही हैं। हवा ताजगी नहीं, बीमारी लेकर दौड़ती है। लेकिन सरकार से समात तक और अदालत तक की चुप्पी नहीं टूटती है। सड़कें, रेलें, मेट्रो, हवाई अड्डे आदि सब बेतहाशा बनाए व बढ़ाए जा रहे हैं, लेकिन उनको इस्तेमाल करने वाला इंसान साबूत बचा ही नहीं है। लक्ष्मी को पूजने वाले लोग ही नहीं रहेंगे तो पूजा कैसे होगी और प्रसाद किसको मिलेगा?

शिक्षा व्यापार बनती जा रही है। जिसमें ज्ञान नहीं डिग्रियां बिक रही हैं। नैतिकता, शुचिता, सदाचार और ईमानदारी बीते वक्त के अर्थहीन शब्द मात्र बचे हैं जिनका अब मंच से भी कोई उच्चारण नहीं करता है। नागरिक अब एक भीड़ मात्र बचा है जिसे कुछ लोग देशद्रोही का तमगा देते जा रहे हैं। ऐसे अंधेरे में हम रौशनी की दिवाली मनाएं कि अंधेरे की। किधर है रौशनी की वह किरण जो हमें लक्ष्मी माता की तरफ ले जाएगी? कहां हैं वे गणपति जिनका दर्शनमात्र ही शुभ का कारण माना जाता है? सब चीन से आयात होकर आ रहे हैं तो अपना देवत्व भूल गए हैं?

अंधेरा बुरा नहीं है यदि वह प्रकाश के संधान का विवेक व साहस जगाता हो। वे कवि गजानन माधव मुक्तिबोध थे न जिन्होंने ‘अंधेरे में’ की एक यात्र पूरी की थी और कविता के सहारे रौशनी की कई संभावनाएं खोज लाए थे। आज हम कहां खोजें? आज हमारा मुक्तिबोध कौन हैं? आज तो कविता भी उनकी ही है जो सत्ता की बीन बजाते हैं। ऐसे ही किसी दौर में भगवान बुद्ध कहते हैं- आत्म दीपो भव। जब बाहर घना अंधेरा हो तब भीतर से रौशनी का संधान करना पड़ता है। भीतर की रौशनी अक्षय होती है, क्योंकि वह खाड़ी से आयातित तेल पर नहीं जलती है। गांधीजी कहते हैं कि अनास्था अंधेरा फैलाती है। इसलिए खुद पर भरोसा रखो। सच बोलो, सच करो और सच जियो। सच का साथ दो, सच के पक्ष में गवाही दो।

लेखक:कुमार प्रशांत

गांधीवादी चिंतक

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