पुनीत कार्य
महर्षि दधीचि का नाम आते ही एक ऐसे पुण्यात्मा की तस्वीर उभर आती है जिसने दान में सर्वोच्च प्रतिमान स्थापित किया और अगर किसी क्षेत्र विशेष में ऐसे कई दधीचि हों तो उस धरती को नमन करने का ही जी चाहेगा। सिरसा जिले के कालांवाली और आसपास के कई गांवों के लोगों की दान भावना की जितनी तारीफ की जाए, कम ही है। ऐसे समय में जबकि व्यक्ति की सोच निरंतर संकीर्ण होती जा रही है, दान की प्राचीन परंपरा लुप्त होने की ओर बढ़ रही है, देह दान असंभव सा लगता है। वह भी बिना किसी ढोल-नगाड़े के। कालांवाली, चौटाला, देसूजोधां, रोड़ी आदि गांवों के कई महानुभावों ने यह पुनीत कार्य अपनी आंतरिक प्रेरणा से किया है। इसलिए वे विशेष रूप से बधाई के हकदार हैं। दुर्भाग्य से देह दान को लेकर अब भी प्रचार-प्रसार का सर्वथा अभाव है। हालांकि तमाम धार्मिक और स्वयंसेवी संस्थाएं रक्तदान को बढ़ावा देने में जुटी हैं। नेत्र और दूसरे अंगों के दान को लेकर भी लोगों में जागरूकता बढ़ी है, लेकिन देह दान तो बिरले लोग ही कर रहे हैं। शहरी क्षेत्र में स्थिति अगर थोड़ी बहुत सुधरी भी है तो सिरसा जैसे ग्रामीण इलाकों में ऐसी उच्च भावना कम ही दिखती है।
चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई और शोध कार्यो में मृत शरीर की अहमियत किसी से छिपी नहीं है। बल्कि इसके अभाव की वजह से चिकित्सकीय शोध कार्यो पर बुरा प्रभाव पड़ता है। हिंदुस्तान जैसे देश में यह स्थिति दुर्भाग्य ही कही जाएगी, क्योंकि दान की भावना हमारे संस्कार में है। सनातन धर्म में इसे विशेष महत्व दिया गया है, जिससे साफ है कि हमारे पूर्वज दान की महत्ता को समाज के लिए कितना जरूरी मानते थे। उच्च विरासत के बावजूद लोग शरीर दान की महत्ता को स्वीकार नहीं कर पाए। सरकारी स्तर पर भी इस दिशा में कोई उल्लेखनीय प्रयास नहीं दिखता। सबसे जरूरी है कि लोगों में व्याप्त भ्रांति को दूर किया जाए। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण धार्मिक ही है। मृत्यु के बाद भी शरीर से लोगों का अनुराग गहरे तक बैठा है। वे नहीं चाहते कि पार्थिव शरीर अंग-भंग हो, इसलिए जरूरी है कि लोगों की इस सोच को बदला जाए। उन्हें बताया जाए कि अंग दान समाज के लिए कितना हित कर है। इसके लिए देह दानियों को आगे आना होगा, क्योंकि उनसे उपयुक्त शायद ही कोई हो?
[स्थानीय संपादकीय: हरियाणा]
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