Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    तनाव के दुष्परिणाम

    By Edited By:
    Updated: Tue, 16 Jun 2015 04:59 AM (IST)

    तनाव या किसी किस्म की असफलता के कारण आत्महत्या की छिटपुट खबरें तो अक्सर आती रहती हैं किंतु मामूली घर

    तनाव या किसी किस्म की असफलता के कारण आत्महत्या की छिटपुट खबरें तो अक्सर आती रहती हैं किंतु मामूली घरेलू विवाद के कारण पश्चिम सिंहभूम के गोइलकेरा में तीन बच्चों संग एक महिला, चतरा के कान्हाचट्टी में एक नन्हे बेटे के साथ एक महिला और पश्चिम सिंहभूम के ही चाईबासा में एक स्कूली छात्रा द्वारा एक ही दिन की गई आत्महत्या गंभीर संकेत दे रही है। निश्चय ही ऐसी सभी घटनाएं बहुत सोच-समझकर उठाए गए कदम का परिणाम नहीं होतीं। तीनों ही घटनाएं सामान्य परिवार की हैं, जबकि संभ्रांत परिवारों में भी कभी-कभार यह सब देखने को मिलता है। सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों में आ रहे तेजी से बदलाव तथा आधुनिकता के बढ़ते प्रभाव का यह दुष्परिणाम है। समाज की कौन कहे, अब तो लोग अपने परिवार तक की भी बहुत फिक्र नहीं कर रहे। वैयक्तिक सोच पर अभिकेंद्रित होते जाने के कारण लोगों में तनाव बढ़ रहा है, जो आत्महत्या की ओर प्रवृत्त करने की मानसिकता पैदा करता है। यह समाज और परिवार के अगुवा और मनोविज्ञानियों के लिए बड़ी चुनौती है।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    खान-पान और रहन-सहन के साथ-साथ योग-व्यायाम का समुचित तारतम्य टूट जाने के कारण घर-परिवार से लेकर दफ्तर या अन्य तरह के कार्य स्थल तक लोग तनाव का शिकार बनते हैं। इस स्थिति में लंबा समय बीतने पर कुछ लोग अवसादग्रस्त हो जाते हैं, जबकि कुछ लोग ¨हसा की ओर प्रवृत्त होते हैं। ऐसे व्यक्ति या तो दूसरे को नुकसान पहुंचाते हैं या फिर खुद को ही। यह प्रवृत्ति पूरे समाज के लिए घातक है क्योंकि कोई भी व्यक्ति एक इकाई होते हुए भी समाज का अंग होता है। पर्व-त्योहारों के अलावा सामान्य अवसरों पर भी एक-दूसरे से मिलना-जुलना और मन की बातों का आदान-प्रदान सभी को संयम और आत्मविश्वास दिलाता था। समाज में आ रहे बिखराव तथा एकल परिवारों के बढ़ते चलन के कारण यह प्रवृत्ति भी घटती जा रही है। आत्महत्या भी एक किस्म की ¨हसक मानसिकता ही है। साधारण खान-पान और योग-व्यायाम से इस पर बहुत हद तक नियंत्रण पाया जा सकता है। भारतीय संस्कृति में ¨हसा की वर्जनाओं पर गौर करना होगा। इन्हीं स्थितियों को देखते हुए अपनी संस्कृति में आत्महत्या को भी पाप की श्रेणी में रखा गया था। इस लिहाज से स्कूली पाठ्यक्रमों में अपेक्षित परिवर्तन आवश्यक है। हत्या और आत्महत्या में बारीक अंतर भी नहीं है।

    [स्थानीय संपादकीय: झारखंड]