पारदर्शिता अपनाए संघ लोक सेवा आयोग, सिविल सेवा परीक्षा में टेक्नोक्रेट का दबदबा बढ़ने का मूल कारण सीसैट है
सिविल सेवा परीक्षा में टेक्नोक्रेट का दबदबा बढ़ने का मूल कारण स्वयं की उनकी योग्यता से अधिक उस सीसैट प्रश्नपत्र का लागू होना रहा जिसे प्रारंभिक परीक्षा के ही स्तर पर 2011 में शुरू किया गया था। यह प्रश्नपत्र पूरी तरह गणित के विद्यार्थियों के पक्ष में है। साफ है कि मानविकी विषयों के विद्यार्थी इस आरंभिक स्तर पर ही दौड़ से बाहर हो जाते हैं।
डा. विजय अग्रवाल : इन दिनों संघ लोक सेवा आय़ोग यानी यूपीएससी की मुख्य परीक्षाएं हो रही हैं। इन परीक्षाओं का परिणाम नवंबर या दिसंबर में आएगा। इसके बाद साक्षात्कार होगा और फिर सफल अभ्यर्थियों के नाम सामने आएंगे। इस परीक्षा में सफल होने वाले अभ्यर्थियों को लेकर कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय संबंधी संसद की स्थायी समिति ने पिछले दिनों अपने रिपोर्ट में कहा है कि सिविल सेवाओं में 70 प्रतिशत से अधिक भर्तियां तकनीकी और मेडिकल बैकग्राउंड से होती हैं।
संसदीय समिति की यह रिपोर्ट अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, युवाओं के एक वर्ग के इस आरोप को जायज ठहरा रही है कि सिविल सेवा परीक्षा में सीसैट यानी सिविल सर्विसेज एप्टीट्यूड टेस्ट का पेपर उनके साथ भेदभाव कर रहा है। इस समिति ने सिविल सेवा परीक्षा की पद्धति में कई सुधारों की सिफारिश की है, लेकिन उनमें दो विशेष रूप से गौर करने योग्य हैं। समिति ने इस पर गहरी चिंता व्यक्त की है कि सिविल सेवा में आने वाले युवाओं में इंजीनियरों और डाक्टरों की संख्या अधिक है। इसके चलते अन्य पेशे प्रभावित हो रहे हैं।
आंकड़े इसकी पुष्टि करते हैं कि 2012 के बाद से इस सेवा में इंजीनियरों और डाक्टरों का प्रतिशत लगातार बढ़ता गया है। इसे देखते हुए संसदीय समिति ने संघ लोक सेवा आयोग को विशेषज्ञों की एक ऐसी समिति बनाने को कहा है, जो इसे देखे कि सिविल सेवा परीक्षा में सभी परीक्षार्थियों को समान अवसर मिल पा रहे हैं या नहीं? संसदीय समिति के ये दोनों सुझाव गहरे रूप से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। साथ ही सीधे शब्दों में न सही, यह कहते हुए जान पड़ रहे हैं कि सिविल सेवा परीक्षा पद्धति में कुछ विसंगतियां हैं।
यूपीएससी 'सबके लिए समान अवसर' के मूलभूत लोकतांत्रिक एवं न्यायपूर्ण नीति का पालन नहीं कर रही है। निगवेकर समिति ने तो 2013 में ही साफ तौर पर सीसैट के पेपर को भेदभावपूर्ण बता दिया था, लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि आयोग ने इतने गंभीर आरोप पर कोई ध्यान नहीं दिया, बल्कि इसके विपरीत 2023 तक आते-आते उस भेदभाव को चरम तक पहुंचा दिया।
सिविल सेवा परीक्षा में टेक्नोक्रेट का दबदबा बढ़ने का मूल कारण स्वयं की उनकी योग्यता से अधिक उस सीसैट प्रश्नपत्र का लागू होना रहा, जिसे प्रारंभिक परीक्षा के ही स्तर पर 2011 में शुरू किया गया था। यह प्रश्नपत्र पूरी तरह गणित के विद्यार्थियों के पक्ष में है। साफ है कि मानविकी विषयों के विद्यार्थी इस आरंभिक स्तर पर ही दौड़ से बाहर हो जाते हैं।
अच्छा होता कि परीक्षा में सफल होने वाले परीक्षार्थियों की अलग-अलग पृष्ठभूमि पर तरह-तरह के आंकड़े जारी करने वाला यूपीएससी इस तथ्य के भी आंकड़े जारी करता कि प्रारंभिक परीक्षा में बैठने वाले कितने प्रतिशत परीक्षार्थी किन-किन संकायों से होते हैं? ये आंकड़े इस भेदभावपूर्ण तथ्य को सतह पर ला पाते कि प्रारंभिक परीक्षा में बैठने वाले लगभग 75 प्रतिशत युवा कला के तथा 25 प्रतिशत युवा विज्ञान के होते हैं। मुख्य परीक्षा में आंकड़ों का यह स्वरूप इसके ठीक विपरीत हो जाता है। इस का मुख्य श्रेय जाता है-सीसैट के पेपर को।
सीसैट पेपर में कुल 80 प्रश्न होते हैं। इनमें से 25 से 28 प्रश्न औसतन हर साल बोधगम्यता यानी कांप्रिहेंशन के होते हैं। हास्यास्पद यह है कि हिंदी में बोधगम्यता के अंतर्गत जो प्रश्न दिए जाते हैं, वे मूल हिंदी के न होकर अंग्रेजी से अनूदित होते हैं। अनुवाद भी हिंदी और अंग्रेजी भाषा के जानकार से नहीं, गूगल द्वारा कराया जाता है। हिंदी के किसी परिच्छेद को हिंदी के बजाय अंग्रेजी में समझना आसान होता है, बशर्ते थोड़ी-बहुत अंग्रेजी आती हो।
सोचकर देखिए कि आप भाषा के 'बोध' की क्षमता का परीक्षण कर रहे हैं, भाषा के अर्थ-ज्ञान का नहीं और भाषा के बोध का यह परीक्षण किया जा रहा है-अनुवाद की भाषा से। क्या यह सही और न्यायपूर्ण लगता है? क्या अनूदित शब्दों में शब्दों के अपने संस्कार एवं परिवेश उपस्थित रहते हैं? उदाहरण के तौर पर 'जनेऊ' को अंग्रेजी में कैसे बताएंगे? फिल्म 'हम आपके हैं कौन' का अंग्रेजी अनुवाद कैसे किया जाएगा, लेकिन संघ लोक सेवा आयोग कुछ ऐसा ही कर रहा है। क्या यूपीएससी हिंदी एवं अन्य सभी भारतीय भाषाओं के परीक्षार्थियों की इस दुखती रग का कुछ उपचार करेगा? यह भी भेदभाव का एक ज्वलंत नमूना है।
यूपीएससी से अनुरोध है कि वह देश को यह भी बताए कि ऐसे विद्यार्थी कितने प्रतिशत होते हैं, जो सीसैट को क्वालीफाई नहीं कर पाते? साथ ही यह भी जानकारी मिलनी चाहिए कि क्वालीफाई न कर पाने वाले इन परीक्षार्थियों की शिक्षा की पृष्ठभूमि क्या होती है? इससे परीक्षा पद्धति अधिक पारदर्शी हो सकेगी। उसमें क्या परिवर्तन किए जाने चाहिए, इसके लिए ठोस एवं व्यावहारिक तथ्य मिल सकेंगे। इसके साथ ही यूपीएससी के प्रति बढ़ रहे अविश्वास की भावना पर भी रोक लग सकेगी।
संघ लोक सेवा आयोग को संसदीय समिति की उस सिफारिश पर भी गौर करना चाहिए, जिसमें उसने कहा है कि परीक्षार्थियों से प्राप्त फीस तथा उसके व्यय के बारे में पारदर्शिता दिखाई जाए। यह सिफारिश इसकी ओर संकेत करती है कि समिति के सदस्य यूपीएससी की पारदर्शिता की नीति से संतुष्ट नहीं। परीक्षार्थियों द्वारा अपनी किसी मांग के लिए आंदोलन करने तथा आयोग पर अविश्वास करके आंदोलन करने, इन दोनों में बहुत फर्क है। याद नहीं आ रहा कि इससे पहले कभी इस संस्था पर पक्षपात का इतना अधिक गंभीर आरोप लगाया गया हो, किंतु आयोग मौन है। उसकी ओर से कम से कम विचार करने का आश्वासन तो दिया ही जा सकता है।
(लेखक पूर्व सिविल सेवक रहे हैं)
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