शंकर शरण। अमेरिका में अवैध रूप से रह रहे या प्रवेश करने वाले भारतीयों को वहां से निकाले जाने पर हमारे देश में तमाम लोगों की भावनाएं आहत हो रही हैं। वहां से लोगों को जिस तरह भेजा जा रहा है, उसका तौर-तरीका चुभने वाला है। इस बीच मूल बिंदु उपेक्षित है कि क्यों भारत से बड़ी संख्या में लोग बाहर जा रहे हैं? आम समझ यही है कि लोग रोजगार के लिए जाते हैं, परंतु संपन्न घरों के युवा भी अमेरिका-यूरोप जाना चाहते हैं।

ऐसे लोगों को यहां रोजी-रोटी की खास समस्या नहीं है। वस्तुत: अमेरिका या यूरोप जाने वाले भारतीयों में कम ही लोग वहां कोई नियुक्ति-पत्र लेकर जाते हैं। अधिकांश वहां पढ़ाई के लिए जाते हैं और फिर कोई छोटी-मोटी नौकरी शुरू करते हैं। कई बार यह वहां के नियमों का उल्लंघन करके होता है। कनाडा जाने वाले अधिकांश भारतीयों में तो कोर्स-दाखिला केवल बहाना होता है।

वे वहां रह जाने की मंशा से ही जाते हैं। उसी प्रक्रिया का एक रूप यहां देश में भी दिखता है। गांव-गांव में असंख्य माता-पिता बच्चों को पढ़ाते हुए यही चाहते हैं कि वे बाहर निकल कर दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु आदि जगहों पर जाकर काम करें। जबकि दिल्ली-बेंगलुरु में बसे भारतीय अपने बच्चों के लिए यूरोप-अमेरिका जाकर रहने की आकांक्षा रखते हैं और वैसी योजनाएं बनाते हैं।

यह पूरी प्रक्रिया पलायन के लिए चयन जैसी है। यह अपने समाज, अपनी व्यवस्था के विरुद्ध सामूहिक अविश्वास का मौन प्रदर्शन है। लोग अपने संसाधन, बुद्धि और परिश्रम लगाकर अपना समाज और देश छोड़कर वहां जाना चाहते हैं, जो अधिक व्यवस्थित और अवसर देने वाला लगता है। यही बिंदु विचारणीय है।

भारत कोई गरीब देश नहीं, लेकिन कुव्यवस्था से बेहाल है। अन्यथा उच्च मध्यवर्गीय भारतीयों के पास जितना धन है वह अनेक यूरोपीय देशों में नहीं दिखता, लेकिन हमारी आम राजनीतिक, प्रशासनिक, शैक्षिक व्यवस्थाएं बेहाल हैं, जो हतोत्साहित करती हैं। ये व्यवस्थाएं योग्यता या विवेक का आदर नहीं करतीं। शैक्षिक संस्थाएं या तो खानापूरी या शुद्ध धंधा हैं। सो, प्रतिभाएं रामभरोसे रहती हैं।

अन्य क्षेत्रों में भी प्रायः हर अवसर या पद किसी अन्य आधार पर देने-लेने की व्यवस्था स्थापित है। इसीलिए लोग विदेश पलायन कर रहे हैं, जहां समुचित अवसर और सम्मान मिलने की आस हो। इसे लोगों का लालच कहना उनका अपमान करने जैसा है। स्वतंत्र भारत ने ऐसी व्यवस्था बनाई, जिसमें अपनी कोई कल्पना नहीं है। इसीलिए वह सद्गुण, प्रतिभा और योग्यता से बेपरवाह है। अमेरिका ने ऐसी व्यवस्था बनाई, जो सारी दुनिया से गुण, प्रतिभा और योग्यता का स्वागत करती है।

अभी सारा आक्रोश अमेरिका से अवैध भारतीयों को भेजने के तरीके पर दिखाना ऐसा है, मानो उन्हीं भारतीयों को राहत देने के लिए यहां कोई परवाह हो। वस्तुत: हमारा बड़बोलापन और निकम्मापन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिस तेवर से हम शेखी बघारते या दूसरों की निंदा करते हैं, उसी रौ में हर जिम्मेदारी किसी अन्य पर डालकर अपना पल्ला झाड़ते हैं।

सुरक्षा से लेकर शिक्षा, चिकित्सा, दैनिक प्रशासन और न्याय व्यवस्था तक हर मामले में पार्टीबाजी, पर-दोषारोपण और लफ्फाजी हमारा प्रमुख विमर्श है। यह भारत में लंबे समय से चल रहा है। दूसरों को दोष देकर अपने को स्वत: पीड़ित, सही या श्रेष्ठ समझना। इसमें आसानी है। इसके लिए किसी ठोस परीक्षण का श्रम नहीं करना पड़ता। इस प्रक्रिया में द्वेष-निंदा-आरामपसंदगी की ऐसी तिहरी माया है कि हम सामने दिखते हाथी जैसा बड़ा सच भी अनदेखा कर देते हैं।

अपने विमर्श में नियमित रूप से हम जो दावा करते हैं, वास्तविक व्यवहार उसके धुर विपरीत दिखाता है। हमारा संपूर्ण जीवन नेताओं से लेकर बुद्धिजीवियों, छात्रों और मैनेजरों तक यानी नीति, उद्योग, शिक्षा, कला, रहन-सहन, भाव-भंगिमा, खेलकूद, मनोरंजन आदि तक मुख्यतः विदेशी विचारों, वस्तुओं, भाषा, शैली, माडल आदि से प्रेरित संचालित है।

क्या यह साफ नहीं दिखाता कि हम अमेरिकी-यूरोपीय चीजों, विचारों, उपायों, पुस्तकों, फिल्म, संगीत और खेल आदि को भी श्रेष्ठतर मानते हैं? उसके लिए अपनी हर चीज, ज्ञान, दर्शन, यम-नियम, भाषा-संस्कृति यहां तक कि सदा के लिए देश छोड़कर अमेरिका-यूरोप में बस भी जाना चाहते हैं? पूरी बुद्धि, परिश्रम और धन लगाकर बच्चों को वहां पहुंचाना और ‘सेटल’ करना चाहते हैं।

यह व्यावहारिक बिंदु है। एक छोटा बच्चा भी सामने उपलब्ध दो चीजों में बेहतर उठाता है। अतः सत्य और व्यवहार को कसौटी बनाना ही उचित है। तब दिखेगा कि अधिकांश भारतीय अमेरिका-यूरोप को अपनाने के लिए तैयार बैठे हैं, क्योंकि हम अपना कुछ भी तुलनीय नहीं बना सके हैं।

प्रश्न है कि यदि हमारे ऊपर भेदभाव, उपेक्षा, उत्पीड़न आदि कोई स्वदेशी करे-तो क्या वह मंजूर है? जबकि कोई विदेशी उसके विपरीत व्यवहार करे तो हमें नामंजूर होगा? इसी का उत्तर हमारे लाखों-लोग अवसर मिलते ही विदेश पलायन को प्राथमिकता के रूप में देते हैं। देश त्याग कर यूरोप, अमेरिका या आस्ट्रेलिया में जा बसने की उत्कट प्रकिया यही है।

यह उनकी संस्कृति, उनकी शिक्षा, उनका शासन खुशी-खुशी स्वीकार करने के सिवा और क्या है? इसके लिए वे कष्ट भी उठाते हैं। यानी न केवल वह संस्कृति और शासन बेहतर है, बल्कि उसमें प्रजा बनने के लिए लंबी तपस्या करने, वहां नागरिकता-विहीन रहकर भी जीवन लगाने के लिए तमाम भारतीय तैयार हैं। बिना किसी आमंत्रण या दबाव के।

इसका कारण मात्र लोभ को बताना उन भारतीयों का अपमान करना है, जिन्हें हम पहले तो उचित अवसर या स्थान नहीं देते, फिर उनकी चाह और परिश्रम का मजाक उड़ाते हैं। तथ्यों और प्रमाणों से बेपरवाह। अपवाद छोड़कर हमारे बुद्धिजीवियों में नीति-निर्माण और सुव्यवस्था की समझ तक नहीं रही है। वे नारेबाजी के भरोसे रहते हैं। तब कौन देश ऐसे लोगों की भीड़ चाहेगा? यह स्वाभाविक है कि अमेरिकी प्रशासन भी केवल सुयोग्य भारतीयों को रखना चाहे और बाकी को कड़ाई से बाहर करे। हमें अपना घर सुधारने की चिंता होनी चाहिए। दूसरों की निंदा करना आत्महीनता है।

(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)