[ जगमोहन सिंह राजपूत ]: इन दिनों समाचार माध्यमों और खासकर टीवी चैनलों में किसी विषय पर अपनी बात रख रहे पक्ष और विपक्ष के नेताओं के रवैये से यही स्पष्ट होता है कि वर्तमान राजनीति में चुनाव परिणामों से महत्वपूर्ण कुछ और है ही नहीं। अधिकांश चैनलों पर बहस विमर्श के नाम पर स्तरहीनता, अज्ञानता, राजनीतिक नासमझी और हर हाल में दलगत प्रतिबद्धता के भाव ही दिखाई पड़ते हैं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्थितियों की जानकारी और भारत के संबंध में उनकी महत्ता जैसे विषय आज के विमर्श में मुश्किल से ही कोई जगह बना पाते हैं। आगामी चुनावों और उनके परिणामों पर चर्चाएं तो थिंक टैंक, सेमिनार और प्रायोजित भाषणों में भी बढ़ती ही जा रहीं हैं। अनेक बार जो कुछ गांव-कस्बे की चौपाल पर चर्चित होता है वह बड़े-बड़े विद्वानों की चर्चा और विश्लेषण से अधिक सारगर्भित हो जाता है।

यह अलग तथ्य है कि वहां वैसे विशिष्ट मेहमान नहीं होते जिनके दर्शन हमें टीवी पर लगभग प्रतिदिन हो ही जाते हैं। एक दिन उत्तर प्रदेश के एक गांव में स्थानीय लोगों के साथ बैठकर एक चैनल पर हो रही एक परिचर्चा सुनने का अवसर मिला। उस दिन की वह चर्चा काफी हद तक शालीन थी। शोर कम था, मगर श्रोता लगभग हर बिंदु को न केवल समझ रहे थे, बल्कि उस पर लगातार अपनी प्रतिक्रिया भी दे रहे थे। राजनीति, पक्ष, विपक्ष, सत्ता और विरोध, संसद, काला धन, 15 लाख, आलोचना, चाटुकारिता जैसे शब्द अत्यंत विश्वास के साथ उपयोग में आ रहे थे। इस पर कई लोगों ने कहा कि 15 लाख रुपये हर एक के बैैंक खाते में सीधे-सीधे जमा करने की बात तो मोदी जी ने कभी नहीं कही।

वह तो अपने भाषणों में समझाते थे कि वे विदेशों में जमा कालाधन वापस लाने का हरसंभव प्रयास करेंगे और जितना काला धन विदेश में बताया जा रहा है वह सब आ जाए तो 15-15 लाख सबके हिस्से में आ सकते हैैं। यह भी कहा गया कि यह तो हर समझदार जानता है कि ‘सरकारी पैसा’ तो सरकार ही खर्च करेगी। वह उसे हर एक के खाते में नहीं डाल सकती। इसके विरोध में सुनाई पड़ा ‘तो क्या विपक्ष झूठ बोल रहा है?’ उत्तर था-‘अगर वे सही होते तो यह वायदा क्यों नहीं करते कि वे सत्ता में आने पर सबको 15-15 लाख रुपये देने को तैयार हैं? यह भी तो बताएं कि कहां से और कैसे लाएंगे? बात फिर पचास महीने और पचास साल पर पहुंच गई। ऐसा लगा कि यहां की बहसों पर भी टीवी डिबेट्स का असर पड़ चुका है?

पक्ष-विपक्ष की राजनीति में इस समय परिपक्वता की जो भारी कमी दिखाई दे रही है वह किसी न किसी रूप में हर स्तर पर लोगों का ध्यान खींच रही है, लेकिन मुझे आश्चर्य हुआ जब मैैंने गांव के लोगों में समस्या की गंभीरता की समझ देखी। हालांकि ग्रामीण इलाकों में अभी जातिगत लगाव समाप्त नहीं हुआ है। हर बहस उसी आधार पर अपने-अपने नेता के इर्द-गिर्द पहुंच ही जाती है। सभी मानते हैं कि उज्ज्वला, फसल बीमा, जनधन खाते, स्वच्छ भारत और ऐसी ही अन्य योजनाओं में उन्हें भ्रष्ट अधिकारियों को पैसे तो देने पड़े, नोटबंदी के समय तमाम मुश्किलें झेलनी पड़ीं और भ्रष्टाचार से तो पग-पग पर सबका बुरा हाल अभी भी हो रहा है।

पुलिस, कचहरी, अस्पताल में काम करने वालों के दृष्टिकोण में कोई बड़ा सकारात्मक परिवर्तन नहीं हुआ है, मगर इस सबके बाबजूद प्रधानमंत्री के प्रति प्रशंसा भाव दिखता है। जो भारत की राजनीति को न समझता हो उसे यह देखकर घोर आश्चर्य होगा कि कुछ समय पहले तक जातिगत और क्षेत्रीय आधार पर बंटे लोग नरेंद्र मोदी का नाम आते ही कैसे एक स्वर में उनके प्रति समर्थन जताने लगते हैं। यह किसी आश्चर्य से काम नहीं। विश्व में ऐसा अन्य उदाहरण किसी सत्तासीन राजनेता को लेकर दिखाई नहीं देता।

आज भारत का जनपक्ष इतना परिपक्व है कि वह राज्य और केंद्र के लिए अलग-अलग राजनीतिक दलों को समर्थन की बात करता है और समझदारी भरे तर्क देता है। यह परिपक्वता दुर्भाग्य से उन राजनीतिक दलों के अधिकांश आकाओं ने प्राप्त नहीं की है। जहां सत्तापक्ष को चुनाव के बाद भारी जिम्मेदारी मिलती है वहीं विपक्ष का काम केवल ‘आलोचना और इल्जाम’ लगाने तक क्यों और कैसे सीमित हो जाता है? विपक्ष नीतिगत विकल्प क्यों प्रस्तुत नहीं करता हैं। मुझसे पूछा गया,‘भैया, तुम्हें याद है कि इस गांव में तीन बड़े-बड़े बाग थे, चार तालाब थे और अपनी यह नदी कितनी साफ-सुथरी थी, चरागाह थे, लेकिन अब कुछ बचा नहीं है। नदी का पानी जानवर भी नहीं पीते हैं। इसकेलिए मोदी तो जिम्मेदार नहीं हैं।’

मैं देख रहा था कि इस पर कोई असहमति व्यक्त नहीं कर रहा था। तालाबों को पुनर्जीवित करने और शौचालय बनाने के लिए शुरू किए गए कार्यों का श्रेय तो मोदी की सोच को ही दिया गया, मगर यह निराशा भी व्यक्त की गई कि काम आधा-अधूरा ही होता है। सभी ने सहमति में सिर हिलाया। जब एक बुजुर्ग ने कहा कि ‘अब अकेले मोदी भी क्या करें, अफसरों की आदत जो पड़ गई है।’ संभवत: यह अभिव्यक्ति भारत के विशाल प्रांगण में फैले अधिकांश व्यक्तियों की है जो 2014 में एक व्यक्ति के राजनीति में उदय पर अपनी सारी आशाएं और अपेक्षाएं उसे सौंपने को तैयार हुए थे। वे अपने उस विश्वास को आगे भी संजोए रखना चाहते हैं। संवेदनात्मक स्तर पर वर्तमान प्रधानमंत्री ने जो स्थान बनाया है वह राजनीति के पंडितों के लिए शोध का विषय बना रहेगा। अधिकांश लोग उन नेताओं से नाराज ही रहते हैं जो प्रधानमंत्री की आलोचना करते समय अनाप-शनाप बोलते हैैं।

यह भी उजागर हुआ कि संसद में व्यवहार को लेकर भी लोगों में आक्रोश बढ़ा है। किसानों के संबंध में होने वाली बहस को सभी दलों के चाहने के बाबजूद केवल छह सांसदों ने रुकवा दिया। ‘उन्हें अध्यक्ष महोदय ने निकाला क्यों नहीं?’ की अभिव्यक्ति अनेक बार सुनी गई। पक्ष-विपक्ष की राजनीति का जो स्वरूप बड़े शहरों और मीडिया में परिलक्षित होता है उससे अलग भी एक बड़ा वर्ग है जो राजनीति में नीति और उसकी आवश्यकता पर दलगत बाध्यता से ऊपर उठकर सोचता है।

जो विचार और तर्क मुझे गांव, खेतों या बचे हुए खलिहानों में मिले वे बड़े-बड़े राजनीतिक पंडितों को भी आश्चर्य में डाल सकते हैं। बानगी-चुनाव घोषणा पत्र अनावश्यक अभ्यास है। इसका कोई महत्व नहीं है। हर चुनाव के छह महीने पहले सत्तारूढ़ दल विस्तृत रूप में देश को बताए कि उसने अपने घोषणा पत्र में किए गए वादों में कितने निभाए और कितने भुलाए? विपक्षी दल भी बताएं कि उन्होंने कितनी जनसेवा की, कैसे-कैसे नीति का पालन करते हुए अनीति का विरोध किया? समय आ गया है कि कानूनन यह प्रावधान हो कि चुनाव से छह महीने पहले हर राजनीतिक दल और यहां तक कि छोटे दल भी एक विस्तृत नीति-पत्र और समयबद्ध क्रियान्वयन योजना तैयार कर देश के सामने प्रस्तुत करेें।

[ लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं ]