विवेक देवराय और आदित्य सिन्हा। स्वतंत्रता के बाद से भारत में समाजवादी सोच के चलते संपदा सृजन को एक समस्या के रूप में देखा गया। समय-समय पर विशेष रूप से चुनावों के दौरान संपदा सृजन को नियंत्रित किए जाने के विचार सामने आते रहते हैं। इसी कड़ी में विरासत कर को लेकर एक बार फिर बहस छिड़ी है। यह स्थिति तब है जब संपदा सृजन को आर्थिक वृद्धि एवं नवाचार का उत्प्रेरक माना जाता है, जिससे लोगों का जीवन स्तर सुधरता है। इसलिए उसे गलत रूप में पेशकर भयादोहन नहीं किया जाना चाहिए। जब व्यक्तिगत एवं संस्थागत दायरे में संपदा सृजन होता है तो उसके पुनर्निवेश से रोजगार सृजन एवं तकनीकी प्रगति की राह खुलती है। इस चक्र से नए उद्योगों की वृद्धि, रोजगार सृजन में बढ़ोतरी और ऊंचे कर राजस्व के जरिये बेहतर सार्वजनिक सेवाएं सुनिश्चित होती हैं। संपदा सृजन के माध्यम से ही निम्न-आय पृष्ठभूमि के लोगों के लिए ऊंचे वेतन वाली नौकरियों की राह खुलती है तो सफल उद्यमियों को शैक्षणिक गतिविधियों एवं सामुदायिक परियोजनाओं में निवेश के लिए प्रोत्साहन मिलता है। इससे सामाजिक व्यवस्था गतिमान रहती है। स्थानीय विकास और सशक्तीकरण से उपलब्धियों एवं उद्यमिता की प्रगतिशील संस्कृति का भी विकास होता है।

समय के साथ भारत ने व्यापक आर्थिक प्रगति की है और इस प्रक्रिया में कुछ विषमता की स्थिति भी उत्पन्न हुई है, जिसे दूर करने के लिए गाहे-बगाहे विरासत कर का सुझाव दिया जाता है। इतिहास गवाह है कि मध्य वर्ग और गरीबों के उत्थान के लिए लाई जाने वाली ऐसी नीतियां अंतत: उनका अहित ही करती हैं। ऐसे कदमों से जनजीवन अस्तव्यस्त होता है और आर्थिक अक्षमता बढ़ सकती है। ऐसे में स्पष्ट है कि चुनावों के बीच इस प्रकार का विचार उछालने वालों की मंशा वास्तविक आर्थिक सुधारों के बजाय राजनीतिक लाभ उठाने की अधिक लगती है। वैसे भी विरासत कर का विचार भारत में नया नहीं है। आजादी के बाद से ही भारत में इसी प्रकार की एस्टेट ड्यूटी लागू हुई, जिसे मार्च 1985 में हटाना पड़ा। इसे हटाने के पीछे यही वजह बताई गई कि इससे राजस्व की तो बहुत कम प्राप्ति हुई, लेकिन यह एक बड़ी संख्या में करदाताओं के उत्पीड़न का कारण बना। यह ड्यूटी कम से कम एक लाख रुपये हैसियत की संपत्ति पर लगाई गई थी, जिसके लिए 7.5 प्रतिशत की दर नियत थी। हालांकि 20 लाख रुपये से अधिक की संपत्ति पर इसकी दर 85 प्रतिशत के स्तर तक पहुंचती थी, जिसके चलते यह दांव जनता की नजरों में खटकने लगा। केंद्र के प्रत्यक्ष कर संग्रह में एस्टेट टैक्स संग्रह की हिस्सेदारी भी बेहद मामूली थी। वित्त वर्ष 1984-85 के दौरान एस्टेट ड्यूटी के तहत कुल 20 करोड़ रुपये का राजस्व मिला। चूंकि इस कर के आकलन की प्रक्रिया खासी जटिल थी और उसमें तमाम मुकदमेबाजी के पेच भी फंस जाते थे तो इसकी वसूली सरकार को खासी महंगी पड़ती थी। जिस समय यह ड्यूटी हटाई गई तब देश में राजीव गांधी की सरकार थी। उनकी सरकार में वित्त मंत्री रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इसे लेकर अपने बजट भाषण में कहा, 'एस्टेट ड्यूटी से जहां केवल 20 करोड़ रुपये की प्राप्ति हुई, वहीं इसके अनुपालन पर काफी प्रशासनिक व्यय करना पड़ा।' अंतत: 16 मार्च, 1985 की अवधि के उपरांत इसकी समाप्ति की घोषणा हुई।

विरासत कर अक्सर आर्थिक अक्षमताओं को भी आमंत्रित करता है, जिसके कई मोर्चों पर अनपेक्षित परिणाम सामने आते हैं। इस प्रकार के कर से लोगों का आर्थिक व्यवहार बिगड़ सकता है। विरासत कर जैसी व्यवस्था में लोग बचत या निवेश से अधिक उपभोग की ओर उन्मुख हो सकते हैं। विरासत कर की अतिरिक्त लागत भी करदाताओं का मिजाज बिगाड़ती है। साक्ष्य यही दर्शाते हैं कि ऊंचे एस्टेट टैक्स संपदा सृजन की राह में बाधक बनते हैं, जिससे आर्थिक वृद्धि के लिए आवश्यक पूंजी निर्माण प्रभावित होता है। इसके विरोध में एक तर्क दोहरे कराधान का भी है, क्योंकि विरासत कर के दायरे में आने वाली परिसंपत्तियां पहले ही आयकर या पूंजीगत लाभ कर के दायरे में आ चुकी होती हैं। यदि सक्षमता की दृष्टि से देखें तो ऐसे परिदृश्य में कोष की सीमांत सक्षमता लागत यानी एमईएसएफ काफी ऊंची हो सकती है। यह संकेत करता है कि जिन करों को एक बार ही अधिरोपित किया जाता है, उनसे राजस्व वसूली किफायती होती है। छोटे उद्यमों और पारिवारिक स्वामित्व वाली इकाइयों के मामले में विरासत कर के चलते तरलता की समस्या भी खड़ी हो जाती है। चूंकि ऐसी इकाइयों के पास वृहद कर देनदारियों की पूर्ति के लिए आवश्यक लिक्विड असेट्स का अभाव होता है तो उन्हें अपनी उत्पादक परिसंपत्तियों की बिक्री या उन्हें पूरी तरह भुनाने पर मजबूर होना पड़ता है। इससे स्थापित उद्यमों का पूरा ढांचा बिगड़ सकता है, जिससे रोजगार और आर्थिक विविधता के समक्ष खतरा उत्पन्न होने का जोखिम बढ़ जाता है।

ऊंचा विरासत कर पूंजी पलायन को भी गति दे सकता है। इसके चलते लोग अपनी पूंजी को वहां लगाना चाहेंगे जहां करों को लेकर अनुकूल व्यवस्था हो। इससे देश का कर दायरा सिकुड़ने के साथ ही घरेलू निवेश घट सकता है, जिससे संसाधन आवंटन की स्थिति गडबड़ा सकती है। विरासत कर के पेचीदा अनुपालन एवं जटिल प्रशासनिक प्रक्रिया से भी यह फायदे से अधिक नुकसान करता है और संभावित राजस्व प्राप्ति नगण्य रह सकती है। भारत जैसे विविधतापूर्ण और अधिकांश मामलों में परिसंपत्तियों के असंगठित स्वरूप वाले देश में विरासत कर को लागू करने की अपनी तमाम चुनौतियां हैं। रियल एस्टेट, ज्वैलरी और कृषि भूमि जैसी संपत्तियों की व्यापकता प्रभावी कराधान व्यवस्था के लिए आवश्यक मूल्यांकन को जटिल बनाती है। विरासत कर के आकलन के लिए संपत्तियों का सटीक रिकार्ड बहुत आवश्यक है, जिसका भारत में अभाव है। आंकड़े डिजिटल भी नहीं हैं। इससे यह प्रक्रिया और जटिल हो जाएगी। कुल मिलाकर, जिस विषमता को दूर करने के लिए विरासत कर का विचार आगे बढ़ाया जाता है उससे जाने-अनजाने विषमता और बढ़ती ही है। धनाढ्य लोग बेहतर कर नियोजन के साथ अक्सर इस प्रकार के करों के प्रभाव को कुछ कम करने या उससे बच निकलते हैं, जबकि अपेक्षाकृत कम संसाधनसंपन्न लोगों को उसकी तपिश झेलनी पड़ती है।

(देवराय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के प्रमुख और सिन्हा परिषद में ओएसडी-अनुसंधान हैं)