शंकर शरण : बीते दिनों समान नागरिक संहिता को लेकर जारी विमर्श के बीच मुस्लिम समाज के नेताओं की जैसी प्रतिक्रिया आई उससे यही लगा कि यह समाज रूढ़ियों को छोड़कर प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने को तैयार नहीं है। यही कारण है कि एक बड़े हिस्से का अब इस्लाम से मोहभंग हो रहा है। इस रुझान के बीच आठ वर्ष पहले गोवा में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में कूनराड एल्स्ट की टिप्पणी याद आ जाती है।

प्रख्यात भारतविद् एल्स्ट ने कहा था कि, ‘मुसलमानों को कहना चाहिए कि मुस्लिम होने में अब कोई मजा नहीं है।’ कुछ लोगों ने इसे इस प्रकार व्याख्यायित किया कि मुसलमानों को ईसाई बनने के लिए कहा जा रहा है, लेकिन ऐसा करने वाले भूल गए कि कूनराड स्वयं ईसाई पंथ त्याग चुके हैं। दरअसल, उनके बयान का भाव वही था, जो आज अनेक पूर्व-मुस्लिम बोल रहे हैं। इन पूर्व मुस्लिमों को सामान्य रूप से ‘एक्स-मुस्लिम’ कहते हैं, जिनकी संख्या निरंतर बढ़ने पर है।

इस्लाम की कमजोर पड़ती आभा के इस रुझान को इस्लामी नेता पांच वर्ष पहले भी झुठला रहे थे। उनका दावा था कि चंद एक्स-मुस्लिम समय बर्बाद कर रहे हैं और कोई मुसलमान इस्लाम नहीं छोड़ता। हालांकि, आज मुस्लिम देशों से आ रहे आंकड़े ही इस दावे को खोखला बता रहे हैं। कुछ एक्स-मुस्लिम समूहों के 16 लाख तक सदस्य/फालोअर हो गए हैं। इसमें इंटरनेट मीडिया की भी अहम भूमिका रही, जिससे दुनिया के किसी भी कोने में रह रहे मुस्लिम को हर बात खुद जानने-परखने की सुविधा मिली।

इंटरनेट की मदद से खोजी मुस्लिमों ने मूल इस्लामी स्रोतों को खंगाला। उनकी विसंगतियां, अंतर्विरोधों और मनमाने दावों को मूल पुस्तकों, सर्वमान्य विवरणों से ही खंडित किया। दुनिया भर के उलमा, मरकज, मदरसे और इमाम उनके तर्को के समक्ष निरुत्तर हैं। जाकिर नाइक जैसे पंथ प्रचारकों को भी इसकी तपिश झेलनी पड़ी है। नाइक के बड़ी तादाद में फालोअर घटे हैं। कारण यही है कि नाइक जैसे प्रचारक भी अब प्रबुद्ध एक्स-मुस्लिमों के साथ खुले वाद-विवाद से कतराते हैं। पहले मूल इस्लामी स्रोतों को पढ़ने-जानने वाले नगण्य थे और उन्हें कोई मंच भी उपलब्ध नहीं था। अब अरबी, फारसी जानने वाले तथा मुल्ला-मौलवियों के सभी तर्कों-कहानियों से परिचित मुस्लिम ही उन्हें चुनौती दे रहे हैं। बिना अरबी जाने या बिना मदरसे में पढ़े कोई इस्लाम को नहीं समझ सकता या कुरान की आयतें कठिन हैं, जैसी पुरानी दलीलें बेमानी हो रही हैं।

इस बदलते परिदृश्य का प्रभाव इस्लामिक संस्थानों पर भी पड़ रहा है। काहिरा के विश्वप्रसिद्ध विश्वविद्यालय अल अजहर ने हाल में कहा कि मुस्लिम स्त्रियों का हिजाब, बुर्का ‘सांस्कृतिक पंरपरा है, न कि इस्लामी।’ यह एक कथन पूरे मुस्लिम जगत की दर्जनों बंदिशें खोलने की राह दिखाता है। दुनिया भर में मुस्लिम लड़कियों पर बुर्के को जबरदस्ती थोपा जाता है। इसे ठुकराने पर मजहबी हुक्म के हवाले से प्रताड़ित किया जाता है। अब यदि शीर्ष इस्लामी अकादमियां ही इस पर अपना सुर बदल रही हैं तो यह एकाएक नहीं हुआ।

अल अजहर का रुख दर्शाता है कि कट्टरता वाली दलीलें कमजोर पड़ रही हैं। इसी तरह जार्डन के औकाफ मंत्रालय के शेख रहे यूसुफ अबू खलफ का कहना है, ‘मैं पांच वर्ष तक इमाम रहा। अब मैं इस्लाम नहीं मानता और अनेक शेख और इमामों को जानता हूं, जो इस्लाम में विश्वास करने का दिखावा करते हैं, किंतु असल में वे उस पर विश्वास खो चुके हैं।’ उनकी बातों में सच्चाई झलकती है, क्योंकि इस्लामी किताबों और मौलानाओं की बातें इतने अंतर्विरोधों से भरी हैं, जिनका समाधान कठिन है। जैसे, कुरान में लिखा है कि ‘जिसे अल्लाह अनुमति दे, वही इस्लाम में विश्वास कर सकता है।’ इससे इस्लाम छोड़ने वाला एक्स-मुस्लिम स्वतः निर्दोष ठहरता है, क्योंकि उसका इस्लाम छोड़ना अल्लाह की मर्जी से जुड़ा है। तब उसे दोषी कहना या दंडित करना कैसे उचित है?

इस्लामी प्रचारक हमेशा यही कहते रहे कि कुरान सदा से एक जैसी सुरक्षित रही है, जिसमें कभी कुछ जोड़ा-बदला नहीं गया। अब अनेक मौलाना स्वीकार करने पर विवश हैं कि यह असत्य है। पैगंबर मोहम्मद साहब के निधन के बाद अरब में ही कुरान के कई तरह के पाठ थे। उन सभी को मिलाकर तीसरे खलीफा उस्मान ने एक प्रामाणिक पाठ तैयार करने की पहल की। उसमें आयतों के अध्यायों (सूरा) का क्रम भी बदल दिया गया।

यही नहीं, प्रामाणिक पाठ बनवाने के बाद खलीफा उस्मान ने कुरान की सभी पुरानी प्रतियों को जलाकर नष्ट भी करवा दिया। यानी पैगंबर मोहम्मद साहब के बहुत बाद ही वर्तमान कुरान वाला संस्करण बना था। कई सऊदी लोग इसे ‘उस्मानी कुरान’ भी कहते हैं। वहीं, एक एक्स-मुस्लिम महिला हातुन ताश ने अरबी भाषा में ही 26 तरह की कुरान होने का दावा किया है कि कई अरब देशों या विभिन्न अरबी संस्करणों में कुरान के पाठों में भिन्नताएं मिलती हैं। ऐसे तथ्यों के समक्ष वह मूल दावा कमजोर हो चुका है कि कुरान आरंभ से ही अपरिवर्तित और एक पूर्णता प्राप्त किताब है।

इसके अलावा सैकड़ों प्रामाणिक हदीसें दर्शाती हैं कि मानव समाज, इतिहास, भूगोल, खगोलशास्त्र और जीव विज्ञान संबंधी तमाम इस्लामी मान्यताएं नितांत दोषपूर्ण हैं। उन पर विश्वास करना कठिन है, क्योंकि वे वैज्ञानिक एवं ऐतिहासिक विवरणों पर खरी नहीं उतरतीं। मानवता का इतिहास इस्लाम के उदय से हजारों वर्ष पुराना है और भारत, चीन तथा मिस्र जैसी प्राचीन सभ्यताओं में संरक्षित ज्ञान और इतिहास इस्लाम के दावों से मेल नहीं खाता। इसलिए साहित्यिक, पुरातत्व, आर्थिक-व्यापारिक, सामरिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में ऐसे तमाम प्रमाण हैं जो धरती, मनुष्य, समाज, धर्म और विज्ञान संबंधी इस्लामी मान्यताओं को खंडित करते हैं। इससे भी इस पंथ में विश्वास रखने वालों की मान्यताएं प्रभावित हो रही हैं।

इसके अतिरिक्त, संप्रति विश्व में इस्लाम के नाम पर दशकों से हिंसा और असहिष्णुता के कारण भी उसकी बड़ी बदनामी हो रही है। संभव है कि इससे बन रही नकारात्मक धारणा भी मुस्लिमों में यही अहसास बढ़ाती हो कि मुस्लिम होने में अब कोई मजा नहीं, जैसा कि एल्स्ट ने कहा था। यह एक ऐसी प्रक्रिया प्रतीत हो रही है, जिसका पलटना अब मुश्किल है।

(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)